जी-20 में अफ्रीकी सदस्यताः भारत का साहसिक कदम, नए युग का सूत्रपात

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 18-09-2023
African Union chairperson Azali Assoumani Hugs PM Narendra Modi after Joins G20
African Union chairperson Azali Assoumani Hugs PM Narendra Modi after Joins G20

 

प्रवासन, अपराध, सैन्य तख्तापलट और गुलामी जैसे कारणों से हमेशा चर्चा में रहने वाले अफ्रीका के पास अब एक नए युग में प्रवेश करने का अवसर है. अफ्रीकी देशों को पश्चिम ने जमकर लूटा है. हमेशा की तरह उन्हें नजरअंदाज किया गया है. लेकिन अब अफ्रीकी संघ को अपने हाथ मजबूत महसूस होंगे, क्योंकि जी-20 में शामिल होने से उसके संवाद और जुड़ाव का दायरा बढ़ जाएगा.

एशिया के बाद सबसे अधिक आबादी वाले महाद्वीप के रूप में विख्यात अफ्रीका को जी-20 से बाहर रहने के पीछे का तर्क समझ से परे था. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्राकृतिक विविधता, दुर्लभ और सामरिक खनिजों से समृद्ध एक महाद्वीप अंतरराष्ट्रीय मामलों की सुर्खियों से बाहर रहा है.

अब, नई दिल्ली में जी-20 की बैठक में, इस वर्ष अध्यक्षता करने वाले भारत ने, अफ्रीकी संघ को समूह में शामिल होने के लिए आमंत्रित करके सम्मानजनक स्थान दिया है. इसलिए जी-20 के भीतर अफ्रीका की स्थिति और बहुमुखी वैश्विक नेतृत्व के महत्व को समझना जरूरी है. पश्चिमी देशों ने अफ्रीका के सिर्फ आर्थिक मूल्य को पहचाना है, जो प्रवासन, अपराध, सैन्य तख्तापलट और गुलामी जैसे कारणों से हमेशा चर्चा में रहता था.

 


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55 देशों का महाद्वीप अफ्रीका मानव जाति का उद्गम स्थल माना जाता है. पहली मानव बस्ती मिस्र में नील नदी के तट पर पाई जा सकती है. हालाँकि, प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध एक क्षेत्र दूसरों के आधिपत्य के आगे झुक गया. सैकड़ों वर्षों से, नए स्थानों की तलाश में यात्रियों और खोजकर्ताओं को अफ्रीकी महाद्वीप पर शरण मिली.

बाद में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों ने अफ्रीका को अपनी चरागाह के रूप में चुना. सैकड़ों वर्षों तक उन्होंने वहां अपने उपनिवेश स्थापित किये और अफ्रीका को अपने दबाव में रखा. पश्चिमी देशों ने इस क्षेत्र और इसके लोगों का शोषण किया, मेहनतकश लोगों को गुलाम बनाया और मानव इतिहास में सबसे काला अध्याय लिखा. चाहे वह उन्नीसवीं सदी में रबर का व्यापार हो या परमाणु हथियारों की भूख, जो बीसवीं सदी में जुझारू देशों के बीच प्रतिस्पर्धा के तौर पर शुरू हुई.

इन दोनों शताब्दियों में अफ्रीका के रबर, सोना, हीरे और यूरेनियम ने प्रमुख भूमिका निभाई. यदि पश्चिमी देशों को अफ्रीका के ख़जानों को छूने का अवसर नहीं मिला होता, तो जिस आधिपत्यवाद पर वे अब चढ़े हैं, उससे वे वंचित रह गए होते.


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21वीं सदी में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्ध देश और इलेक्ट्रिक बैटरी से चलने वाली कारों की एक नई श्रृंखला बनाने के लिए पारंपरिक ईंधन को छोड़ने वाले निर्माता, अब कांगो जैसे अफ्रीकी देशों में पाए जाने वाले कोबाल्ट का पीछा कर रहे हैं.

आज, प्रचुर मात्रा में भंडार के कारण कांगो को ‘कोबाल्ट के सऊदी अरब’ के रूप में जाना जाता है. हालांकि यह सब एक मिथक है कि इन बैटरियों में आग लगने की संभावना कम होती है, अगर उनमें कोबाल्ट शामिल हो. शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन, बैटरी, सेमीकंडक्टर चिप्स और अन्य रणनीतिक खनिजों के लिए आवश्यक खनिजों के खनन और शोधन में दुनिया पर हावी है.

लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि विकसित दुनिया की प्राथमिकता कम होने के कारण अफ्रीका में क्या हो रहा है. इन और ऐसे सभी खनिजों की बाजार कीमत बहुत अधिक है, लेकिन इनका एक भी टुकड़ा अफ्रीकी देशों के हाथों में नहीं जाता है.

अफ्रीका में पिछले कुछ दशकों से लगातार खनन के परिणामस्वरूप, पर्यावरण खराब हो गया है और नदियों ने दिशा बदल दी है और अब सूखने लगी हैं. पारंपरिक आजीविका, कृषि और अन्य व्यवसायों के अलावा, अधिकांश अफ्रीकी नागरिक खनन और इससे होने वाली अल्प आय पर निर्भर हैं.

 


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जैसे-जैसे सामान्य असंतोष बढ़ रहा है, सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के साथ बढ़ती झड़पें हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं. साहेल, सहारा, नाइजर, केन्या और दक्षिण अफ्रीका के देशों में बेबनवा को हर दिन मारा जा रहा है. हताश और बेहतर जीवन की तलाश में, हजारों लोग भूमध्य सागर पार करके यूरोप में जाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हैं.

जो बच जाते हैं, उनके लिए यूरोपीय देशों में आसान पहुंच और अवसर नहीं होते. समाज में ‘हमारे’ नागरिकों और ‘बाहरी’ आप्रवासियों के बीच बहस चल रही है और इसके परिणामस्वरूप, यूरोपीय संघ की वैचारिक संरचना ढीली हो रही है.

नजरअंदाज किया गया

1999 में लीबिया के नेता मुअम्मर गद्दाफी ने इन सभी जटिलताओं पर कुछ हद तक नियंत्रण पाने के लिए एक अफ्रीकी समूह बनाने की पहल की. 2002 में उन्होंने अफ्रीकी संघ की स्थापना की. यूरोपीय संघ की तुलना में अफ्रीकी संघ को अभी भी अपनी योग्यता साबित करनी है.

अफ्रीकी देशों के शासकों, उनकी वैचारिक असंगति, महासंघ के उद्देश्य पर विचार किये बिना अपनायी गयी भूमिका, विदेशी देशों की स्थानीय समस्याएं, भुखमरी, बेरोजगारी और हिंसा आदि के कारण अफ्रीकी महासंघ में स्थायित्व नहीं आ सका है. यूरोप की तरह पूरे अफ्रीका में एक ही मुद्रा लागू करने की योजना है. इसके अलावा, यूरोपीय शेंगेन वीजा ब्लॉक के भीतर किसी भी देश की यात्रा की अनुमति देता है.

यह अभी भी अफ्रीकी संघ द्वारा विचाराधीन है. ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण फैसले रुकने से यह समूह अपनी ताकत नहीं दिखा पा रहा है. यदि समूह को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर प्रभाव डालना है, तो उसे विचार और कार्य में सर्वसम्मति और सुसंगतता बनाए रखनी होगी. इसी बात को ध्यान में रखकर ग्रुप के प्रतिनिधि फेडरेशन को रणनीतिक रूप दे रहे हैं.

अफ्रीकी देश वैश्विक सौर गठबंधन का हिस्सा हैं, जो भारत और फ्रांस की एक पहल है. अन्य अफ्रीकी देश अब दक्षिण अफ्रीका से ब्रिक्स जैसे रणनीतिक संगठन में शामिल होने का आह्वान कर रहे हैं. प्रशांत द्वीप, दक्षिण अमेरिकी, अफ्रीकी और आसियान देशों का एक नया ‘ग्लोबल साउथ’ समूह आकार ले रहा है.

 


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रूस-यूक्रेन युद्ध और इस युद्ध के बाद की दुनिया में इसके भविष्य के मद्देनजर, यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं कि ग्लोबल साउथ के देशों को अपनी बात कहने का मौका मिले. अफ्रीकी संघ यहां अहम भूमिका निभा सकता है. भारत ग्लोबल साउथ की शक्ति का उपयोग करके इन देशों के लाभों, चुनौतियों और मुद्दों की भी खोज कर रहा है.

अफ्रीकी समुदाय को जी-20 में आमंत्रित करना इस दिशा में पहला कदम हो सकता है. 2023 में जी-20 के अध्यक्ष के रूप में भारत ने विकसित देशों की चेतना में गहराई तक पहुंचकर ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को हरी झंडी देते हुए यह निर्णय लिया है. लगातार बढ़ रहे पश्चिमी देशों और चीन से, अफ्रीकी देशों को यह सम्मान मिलने की संभावना कम ही थी. ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन्होंने हमेशा अफ्रीका को अकथनीय तरीके से मारा है.

अफ्रीकी देशों में कभी भी विश्व मामलों की धारा के ख़िलाफ जाने और अपनी स्थिति पर जोर देने का साहस नहीं हुआ. दूसरी ओर, वे पूरी तरह से अपनी योग्यता साबित नहीं कर पाए, क्योंकि उन्हें हमेशा मुख्यधारा में प्रवेश करने के अवसर से वंचित किया गया है. जी-20 में अफ्रीकी संघ को शामिल करने से न केवल हाथ मजबूत होता है, बल्कि बातचीत और जुड़ाव का दायरा भी बढ़ता है. हालाँकि यह सशक्तिकरण महाद्वीप की सभी समस्याओं का समाधान नहीं करेगा, लेकिन इसने इसे अत्याचार की बेड़ियों से छुटकारा पाने और अपने उचित अधिकारों का दावा करने का मौका जरूर दिया है.