दस्तावेजः कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 04-01-2023
गोपालदास नीरज (फोटो सौजन्यः ट्विटर)
गोपालदास नीरज (फोटो सौजन्यः ट्विटर)

 

दस्तावेज/ ज़ाहिद ख़ान

गीतकार, कवि गोपाल दास ‘नीरज' का नाम हिन्दी के उन कवियों में शुमार किया जाता है, जिन्होंने मंच पर कविता और गीतों को नई बुलंदियों तक पहुंचाया. उनकी आवाज़ और गीतों का जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोलता था. जब वे अपनी विरल स्वर लहरी में गीत पढ़ते, तो सुनने वालों के ज़ेहन पर नशा सा तारी हो जाता. श्रोता मदहोश हो जाते. भाव अतिरेक में झूमने लगते. ज्यों-ज्यों नीरज के गीतों को सुनते, उनकी प्यास और भी ज़्यादा बढ़ती जाती.

शंहशाहे-तरन्नुम शायर जिगर मुरादाबादी तक नीरज की आवाज के शैदाई थे. देहरादून के एक मुशायरे में, जिसकी सदारत जिगर मुरादाबादी ख़ुद कर रहे थे, जब उन्होंने नीरज की कविता सुनी, तो एक के बाद एक उन्होंने उनसे उनकी तीन कविताएं पढ़वाईं और हर कविता के बाद नीरज की पीठ ठोककर यह कहा,‘‘उम्रदराज़ हो इस लड़के की. क्या पढ़ता है, जैसे नगमा गूंजता है.’’ जिगर साहब की दुआओं का ही असर था कि नीरज लंबे समय तक जिए और अपने नगमों से लोगों का मनोरंजन और उन्हें जीवन की नई सीख देते रहे. नीरज नजले के मरीज थे, जिसकी वजह से उनकी आवाज़ में एक खरखराहट थी.

श्रोताओं को उनकी आवाज़ को सुनकर, ऐसा एहसास होता कि वे मानो शराब पीकर गीत पढ़ रहे हों.  बहरहाल,बाद में यही उनका स्टाइल हो गया. श्रोता तरन्नुम में ही उनसे उनके गीत सुनने की फ़रमाइश करते. दूसरे कवि अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते और श्रोताओं का नीरज के गीतों से जी नहीं भरता. एक दौर ऐसा भी रहा, जब नीरज का नाम कवि सम्मेलन के सौ फ़ीसदी कामयाब होने की गारंटी माना जाता था. सात दशकों तक वे लगातार कवि सम्मेलन मंचों पर छाये रहे. उनको सुनकर देश की चार पीढ़ियां जवान हुईं.

जब नीरज नवीं कक्षा के छात्र थे, तब उन्होंने अपनी पहली कविता कवि सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में एटा के कवि सम्मेलन मंच पर पढ़ी और यह सिलसिला ज़िंदगी के आख़िर तक जारी रहा. कवि सम्मेलनों की वे आन, बान और शान थे. उनकी मौजूदगी भर से मंच की गरिमा बढ़ जाती थी.

उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के पुरवाली गांव में 4जनवरी, 1925को जन्मे नीरज की शुरुआती ज़िंदगी काफ़ी संघर्षपूर्ण रही. बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया छिन गया. जीवनयापन के लिए पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं. मेरठ और अलीगढ़ के कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक भी रहे. लेकिन उनका जी गीतों में ही बसता था. बाद में सब कुछ छोड़-छाड़ के वे गीत के ही हो लिए. गीत उनकी ज़िंदगी थे.

दीगर कवि, गीतकारों की तरह कवि सम्मेलनों के सर्वोच्च मुक़ाम तक पहुंचने में नीरज को ज़्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. साल 1942में दिल्ली में एक कवि सम्मेलन था, नीरज की जब बारी आई, तो उनके गीत और आवाज़ का कुछ ऐसा जादू हुआ कि श्रोता वंस मोर-वंस मोर चिल्लाने लगे. उसके बाद उन्होंने और भी कई कविताएं और गीत सुनाये और सबका समान असर हुआ. इस कवि सम्मेलन के बाद, उनकी मक़बूलियत पूरे मुल्क में फैल गई. थोड़े से ही अरसे में वे हरिवंश राय बच्चन, गोपाल सिंह ‘नेपाली‘, बलबीर सिंह ‘रंग’, देवराज दिनेश, रामअवतार त्यागी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन‘, वीरेन्द्र मिश्र, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जैसे अग्रिम पंक्ति के गीतकारों में शामिल हो गए.

साल 1944 में शिमला में गांधी-जिन्ना सम्मेलन के बाद नीरज ने एक गीत लिखा, ‘‘आज मिला है गंगा जल, जल दमदम का.’’ ज़ाहिर है कि अपने अलग तरह के भाव और विचारभूमि के चलते गीत काफ़ी लोकप्रिय हुआ. यह गीत जब वे दिल्ली के एक कवि सम्मेलन मंच पर पढ़ रहे थे, तो उनका यह गीत सुनकर मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी, जो कि उस वक्त ‘साइंस पब्लिसिटी ऑर्गेनाइजेशन’ में डायरेक्टर थे, बहुत मुतास्सिर हुए. उन्होंने नीरज को अपने महकमे में नौकरी की पेशकश की, जिसे नीरज ने मंजूर कर लिया.

इस नौकरी में नीरज की ज़िम्मेदारी थी कि वे गीतों के माध्यम से सरकारी योजनाओं का प्रचार करें. इस काम के तहत देश में जगह-जगह सम्मेलन हुए. जिसमें उन्होंने अपने गीतों के जरिए जनता के बीच जागरूकता फैलाई. मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी की संगत में आकर, नीरज का झुकाव ग़ज़ल के जानिब हुआ. उर्दू के कई नामचीन शायरों से वे मिले. इसका असर यह हुआ कि वे ग़ज़ल भी लिखने लगे. गीत की तरह उनकी ग़ज़लों ने भी कमाल दिखाया.

नीरज कवि सम्मेलनों के साथ-साथ मुशायरों में भी बुलाए जाने लगे. यहां भी वे कवि सम्मेलनों की तरह कामयाब रहे. उनकी एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़लें हैं, जो आज भी हमें गुनगुनाने को मजबूर करती हैं. सीधी-साधी ज़बान में लिखी गई, इन ग़ज़लों में ज़िंदगी का एक बड़ा फ़लसफ़ा छिपा हुआ है.‘‘हम तेरी चाह में ऐ यार वहां तक पहुंचे/होश ये भी न जहां है कि कहां तक पहुंचे.’’, ‘‘तमाम उम्र मैं एक अजनबी के घर में रहा/सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा.’’, ‘‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाए जाए/जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए.’’

साल 1955 में नीरज ने अपना कालजयी गीत ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे......’’ लिखा, यह गीत, उन्होंने पहली बार लखनऊ रेडियो स्टेशन से पढ़ा. गीत रातों-रात पूरे देश में लोकप्रिय हो गया. इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह था कि हर कवि सम्मेलन या मुशायरे में श्रोता इसी गीत की बार-बार फ़रमाइश करते थे. सच बात तो यह है कि मंचीय कविता को नीरज ने नई ऊंचाइयां प्रदान की. उन्होंने कविता की एक अलग मंचीय भाषा का अविष्कार किया, जो कि न तो पूरी तरह से हिन्दी है और न ही उर्दू.

नीरज ने शुरुआत कविता और गीत से की. इसके बाद उन्होंने ग़ज़लें भी लिखीं. अंत में उनका रुझान दोहों और साधुक्कड़ी कविताओं की ओर हो गया था. ‘‘तन से भारी श्वास है, इसे समझ लो ख़ूब/मुर्दा जल में तैरता जाता, ज़िंदा जाता डूब.’’ और ‘‘हम तो मस्त फ़क़ीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे/जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे.’’ जैसे नीरज के दोहे, उन्हें कबीर, रहीम और रसख़ान जैसे आला दर्जे के हिन्दी कवियों की पंक्ति में रखते हैं. नीरज अपनी ज़िंदगी में कई सम्मानों से नवाज़े गए. शिक्षा और साहित्य में उनके विशेष योगदान को देखते हुए, भारत सरकार ने साल 1991में उन्हें ‘पद्मश्री’ और साल 2007में ‘पद्मभूषण’ सम्मान प्रदान किया.

नीरज ने फ़िल्मों के लिए गीत भी लिखे. निर्देशक आरके चंद्रा ने साल 1960में अपनी फ़िल्म ‘नई उमर की नई फ़सल’ में उन्हें गीत लिखने का पहला मौक़ा दिया. नीरज का पहला ही गीत ‘‘कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे....‘‘ सुपर हिट रहा. उसके बाद यह सिलसिला आगे भी ज़ारी रहा. लेकिन फ़िल्मी दुनिया उन्हें ज़्यादा रास नहीं आई.

साल 1972 में वे फ़िल्म नगरी को अलविदा कहकर वापस अलीगढ़ लौट आए. लेकिन तब तक उनके खाते में कई कामयाबियां जुड़ गई थीं. नीरज ने कम वक़्फ़े में ही रोशन, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, इक़बाल कुरैशी, जयदेव, हेमंत कुमार जैसे संगीतकारों और देव आनंद, राजकपूर, मनोज कुमार जैसे अभिनेता-निर्देशकों के साथ काम किया. उनकी चर्चित फिल्मों में ‘कन्यादान’, ‘तेरे मेरे सपने’, ‘प्रेम प्रतिज्ञा’, ‘प्रेम पुजारी’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘चंदा और बिजली’, ‘चा चा चा’, ‘छुपा रुस्तम’, ‘शर्मीली’, ‘पहचान’ आदि हैं.

नीरज का फ़िल्मी सफ़र भले ही छोटा रहा, पर इस सफ़र में उन्होंने ऐसे कई गीत दिए, जो कभी भुलाए नहीं जा सकते. फ़िल्मों में लिखे उनके गीतों ‘‘फ़ूलों के रंग से दिल की कलम से’’, ‘‘खिलते हैं गुल यहां खिल के बिछुड़ने को’’, ‘‘बस यही अपराध हर बार करता हूं’’, ‘‘शोख़ियों में घोला जाये फूलों का शबाब’’, ‘‘रंगीला रे तेरे रंग में...’’, ‘‘मेघा छाए आधी रात, बैरन बन गई निंदिया’’ आदि ने ख़ूब धूम मचाई. फ़िल्मी दुनिया के बड़े पुरस्कार ‘फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड’ के लिए नीरज का नाम लगातार तीन साल 1970से 1972तक नामांकित किया गया और साल 1970में उन्हें फिल्म ‘चंदा और बिजली’ फिल्म के गीत ‘काल का पहिया घूमे रे भईया’ के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला.

नीरज ने भले ही फ़िल्मों में कम गीत लिखे, लेकिन इन गीतों में भाषा के स्तर पर उन्होंने तरह-तरह के मौलिक प्रयास किए. फ़िल्मी गीतों पर जब उर्दू ज़बान पूरी तरह से छाई हुई थी, उन्होंने शुद्ध हिन्दी के गीत लिखे. जो लोगों को पसंद भी आए. वे नीरज ही थे, जिन्होंने फ़िल्मी गीतों के इतिहास में पहली बार फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में छंद मुक्त कविता ‘‘ऐ भाई जरा देख के चलो...’’ को गीत के तौर पर इस्तेमाल किया और यह गीत खूब हिट हुआ. ‘‘कारवां गुज़र गया‘‘, ‘‘ऐ भाई देख के चलो‘‘, ‘‘ये नीरज की प्रेम सभा है‘‘, ‘‘हम तेरी चाह में ऐ यार कहां तक पहुंचे'' जैसे कालजयी गीत लिखने वाले गीतों के जादूगर नीरज का कहना था कि ‘‘कविता अपने प्रशंसक और लोकप्रियता तभी क़ायम रख सकती है, जब कविता उसी भाषा में हो, जिस भाषा का श्रोता वर्ग या पाठक वर्ग हो. कविता में श्रोता के हृदय की भाषा हो. जनता की भाषा हो. आप उसी भाषा में कहें, जो उसे समझ आए. कविता जब देश के सामूहिक, देशीय संस्कार को स्पर्श करेगी, तभी हृदय में बैठेगी.’’

नीरज ने 93 साल की लंबी ज़िंदगी जी, सैकड़ों अर्थपूर्ण गीत लिखे और अपने गीतों से पाठको और श्रोताओं को नये संस्कार दिए. उनके जाने से जैसे कवि सम्मेलनों का नूर ही चला गया. वह पुर—असर आवाज़ ख़ामोश हो गई, जो श्रोताओं के कानों में मिश्री घोलती थी. नीरज आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका एक नहीं, अनगिनत गीत ऐसे हैं जो श्रोताओं और पाठकों के ज़ेहन में कल भी ज़िंदा थे, आज भी ज़िंदा हैं और आगे भी रहेंगे. ‘‘चुप-चुप अश्क बहाने वालो/मोती व्यर्थ लुटाने वालो/कुछ सपनों के मर जाने से/जीवन नहीं मरा करता है.’’