निदा फाजलीः ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 12-10-2022
निदा फाजली
निदा फाजली

 

ज़ाहिद खान                             

निदा फ़ाज़ली उर्दू और हिन्दी ज़बान के जाने-पहचाने अदीब, शायर, नग़मा निगार, डायलॉग राइटर थे. निदा फ़ाज़ली ने कुछ अरसे तक पत्रकारिता भी की, लेकिन उनकी अहम शनाख़्त एक ऐसे शायर की है, जिन्होंने अपनी शायरी में मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब और फ़लसफ़े को हमेशा तरज़ीह दी. आपसी भाईचारे और एकता के गीत गाये. ग़ज़ल, नज़्म और रुबाइयों के अलावा जब उन्होंने दोहे लिखे, तो उन्हें भी ख़ूब मक़बूलियत मिली.

आम अवाम की बोली-वाणी में लिखे गए, इन दोहों में ज़िंदगी का एक नया फ़लसफ़ा और नई सोच नज़र आती है. छोटे-छोटे ये दोहे सीधे दिल में उतर आते हैं. तरक़्क़ीपसंद तहरीक सेनिकले तमाम कद्दावर शायरों की तरह उनकी शायरी में भी एक विचार दिखलाई देता है, जो पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करता है.

निदा फ़ाज़ली की शायरी की शैली और उसका लब-ओ-लहजा उर्दू ज़बान के दीगर शोहरा से जुदा है. उनकी सीधी-सादी शायरी और हिंदी-उर्दू ज़बान के आमफ़हम अल्फ़ाज़ ने नई पीढ़ी को आकर्षित किया. कई बार ऐसा लगता है कि वे जैसे शायरी नहीं, बल्कि उनकी ही ज़बान में गुफ़्तगु कर रहे हों.

मिसाल के तौर पर उनकी ग़ज़ल के चंद अशआर देखिए, "रात के बाद दिन की सहर आएगी/दिन नहीं बदलेगा, तारीख़ बदल जाएगी.", "धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो/ज़िंदगी क्या है किताबें हटा कर देखो.", "ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को/बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख."

उन्होंने अपने दोहों के ज़रिए अवाम को अमीर ख़ुसरो, मीर, रहीम और नज़ीर अकबराबादी की परंपरा से जोड़ने का महती काम किया. निदा फ़ाज़ली बुनियादी तौर पर शायर हैं लेकिन उनके नस्र का भी कोई जवाब नहीं. निदा फ़ाज़ली की शायरी के बारे में अनेक लोगों ने लिखा और खुलकर अपनी राय रखी है.

मगर निदा फ़ाज़ली का खुद अपनी शायरी के बारे में यह ख़याल था, “मेरी शायरी न सिर्फ अदब और उसके पाठकों के रिश्ते को ज़रूरी मानती है बल्कि उसके सामाजिक सरोकार को अपना मयार भी बनाती है. मेरी शायरी बंद कमरों से बाहर निकल कर चलती फिरती ज़िंदगी का साथ निभाती है. उन हलक़ों में जाने से भी नहीं हिचकिचाती जहां रोशनी भी मुश्किल से पहुंच पाती है. मैं अपनी ज़बान तलाश करने सड़कों पर, गलियों में, जहाँ शरीफ़ लोग जाने से कतराते हैं, वहां जा कर अपनी ज़बान लेता हूँ. जैसे मीर, कबीर और रहीम की ज़बानें. मेरी ज़बान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है और न पेशानी पर तिलक लगाती है.”

निदा की इस बात में सौ फीसद सच्चाई है. यक़ीन न हो तो उनकी ग़ज़लों के चुनिंदा अशआर पेश हैं, "दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है/मिल जाये तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है.", "हर तरफ हर जगह बे-शुमार आदमी/फ़िर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी." “बेसिन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ/ याद आती है चौका बासन, चिमटा, फुंकनी जैसी माँ. ”ये कैसी कशमकश है ज़िंदगी में/किसी को ढूढ़ते हैं, हम किसी में."

12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में पैदा हुए निदा फ़ाज़ली का असल नाम मुक़तिदा हसन था. उनके वालिद मुर्तज़ा हसन भी शायर थे. वे तत्कालीन ग्वालियर रियासत के रेलवे विभाग में मुलाज़िम थे. घर में मौक़े-बेमौक़े शे’र-ओ-शायरी का ज़िक्र चलता रहता था. जिसने निदा के अंदर कमसिनी से ही शे’रगोई का शौक़ पैदा कर दिया.

उनकी शुरुआती तालीम ग्वालियर में ही हुई. वहीं आला विक्रम यूनीवर्सिटी उज्जैन से. जहां उन्होंने उर्दू और हिन्दी में एम.ए की डिग्रियां हासिल कीं. मुल्क की तक़सीम और उससे उपजे साम्प्रदायिक तनाव, हिंसा के सबब उनके परिवार को ग्वालियर छोड़ना पड़ा. कुछ समय तक वे भोपाल रहे. बंटबारे ने जो लोगों को ज़ख्म दिये, उनसे दिलों के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं. समाज में मुहब्बत और भाईचारे पर नफ़रत हावी थी.

ऐसे माहौल में निदा फ़ाज़ली के वालिद ने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला कर लिया. मगर निदा को यह मंज़ूर न था. वे चुपचाप घर से भाग गये. उनका परिवार पाकिस्तान हिज़रत कर गया, वे भारत में ही रह गए. ज़िंदा रहने के लिए निदा फ़ाज़ली को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ी. घर वालों के बिना उन्हें ख़ूब परेशानियां झेलनी पड़ी, मगर उन्होंने संघर्ष करना नहीं छोड़ा.

पढ़ाई के अलावा वे अपना ज़्यादातर वक़्त  शायरी में बिताते. तालीम मुकम्मिल करने के बाद दिल्ली और दूसरे मुक़ामात पर नौकरी की तलाश में दर-दर भटके. साल 1964 में बंबई चले गए. यहां भी उनके लिए राह आसान नहीं थी. शुरुआत में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा.

बाद में अपने समय की मशहूर मैगज़ीन 'धर्मयुग' और अख़बार 'ब्लिट्ज़' में काम किया. साथ-साथ शायरी की महफ़िलों में भी शिरकत करते रहे. ज़ल्द ही उनकी अदबी हलक़ों में भी  पहचान बन गई. एक बार जो उन्हें मुक़ाम मिला तो फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. सिनेमा और अदब दोनों ही मैदान में काम करते रहे.

“लफ़्ज़ों का पुल”, निदा फ़ाज़ली का पहला शे'री मजमुआ था. जिसकी बेशतर नज़्में, ग़ज़लें और गीत वे बंबई आने से पहले ही लिख चुके थे. उनका ये अंदाज़ लोगों को ख़ूब पसंद आया. ये किताब 1971 में शाया हुई और हाथों हाथ ली गई. मुशायरों में भी उन्हें ख़ूब मक़बूलियत मिली. थोड़े से ही अरसे में उन्होंने बड़ा नाम कर लिया. मंच के वे लोकप्रिय शायर हो गए. देश-दुनिया का कोई भी मुशायरा उनके बिना मुकम्मिल नहीं होता था.                                                 

फ़िल्मी दुनिया में निदा फ़ाज़ली का आग़ाज़ डायरेक्टर कमाल अमरोही की ऐतिहासिक फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' से हुई. फ़िल्म तो नाकामयाब रही, पर इसके गाने सुपर हिट हुए. उसके बाद नग़मा निगार और डायलॉग राइटर के तौर पर उन्होंने कई फिल्मों में काम किया. निदा फ़ाज़ली ने अनेक किताबें लिखीं. “लफ़्ज़ों का पुल” के बाद उनके कलाम के कई मजमुए 'मोर नाच', 'आँख और ख़्वाब के दरमियान', 'शहर तू मेरे साथ चल', 'ज़िंदगी की तरफ़', 'शहर में गांव' और 'खोया हुआ सा कुछ' शाया हुए.

उन्होंने अपनी आपबीती भी लिखी. जो दो हिस्सों में है. “दीवारों के बीच” और “दीवारों के बाहर” नाम से आई यह आपबीती भी उनकी शायरी की ही तरह मक़बूल हुई. इन सब किताबों के अलावा निदा फ़ाज़ली ने मशहूर शायरों के रेखाचित्र लिखे, जो “मुलाक़ातें” किताब में संकलित हैं. साल 1998 में किताब “खोया हुआ सा कुछ” पर उन्हें साहित्य अकादेमी अवार्ड मिला. वहीं साल 2013 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' के सम्मान से नवाज़ा.

इसके अलावा मुल्क की मुख़्तलिफ़ उर्दू अकेडमियों ने उन्हें तमाम ईनामात और ऐजाज़ से नवाज़ा. उनकी किताबों के तर्जुमे देश-दुनिया की अनेक ज़बानों में हुए. 8 फरवरी, 2016 को निदा फ़ाज़ली इस जहांने फ़ानी से हमेशा के लिए रुख्सत हो गये.