ख़ूबसूरत हैं आंखें तेरी, रात को जागना छोड़ दे

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 12-12-2023
hasan quazi and pinaj masani
hasan quazi and pinaj masani

 

-फ़िरदौस ख़ान

शायरी तो दिल से निकलती है, रूह से निकलती है. सच कहें तो रूह की गहराइयों से निकलती है. शायरी तो वही हुआ करती है, जो शायर की क़लम से निकलकर सीधे दिल में उतर जाए, रूह की गहराई में समा जाए. बहुत कम शायर ही ऐसे होते हैं, जिनकी शायरी सुनने वालों की ज़ुबान पर चढ़ जाती है. ऐसे ही एक शायर हैं हसन काज़मी.  

ज़िन्दगी भर कोई देखेगा हमारा रस्ता

ज़िन्दगी भर हमें फ़ुर्सत नहीं मिलने वाली

हसन काज़मी साहब का पूरा नाम सैयद कमरूल हसन है. उनका जन्म 6फ़रवरी 1963को उत्तर प्रदेश के कानपुर में हुआ था. उन्होंने उर्दू में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की है. कानपुर एक औद्योगिक नगरी होने के साथ-साथ अदबी महफ़िलों के लिए भी जाना जाता है.

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हसन काज़मी साहब बताते हैं कि उनके ननिहाल में शायरी का माहौल था. वहां आए-दिन अदबी महफ़िलें हुआ करती थीं. इसलिए बचपन से ही उन्हें अदब का माहौल मिला और उनकी दिलचस्पी शायरी में होने लगी. उन्होंने भी शेअर कहना शुरू कर दिया. उनका पहला शेअर था-

भटक गया जो कभी ज़िन्दगी की राहों में

तेरे ख़्याल ने उस वक़्त रहबरी की है  

उनका ये शेअर बहुत पसंद किया गया. जिसने भी इसे सुना, उनकी ख़ूब तारीफ़ की. इस तारीफ़ ने उनका हौसला बढ़ाया. उनका अदबी सफ़र 1975में शुरू हुआ. उन्होंने देश-विदेश के मुशायरों और कवि सम्मेलनों में शिरकत की. वे बताते हैं कि बात साल 1977 की है, जब जिगर अकादमी के एक कार्यक्रम में कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ‘सहर’ कानपुर तशरीफ़ लाए.

उस कार्यक्रम में उन्होंने मारूफ़ शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की एक ग़ज़ल सुनाई. सहर साहब उनसे बहुत मुतासिर हुए. उस वक़्त उन्होंने कहा कि ये चराग़ एक दिन ख़ूब रौशनी फैलाएगा. उनकी बात सच साबित हुई और उन्होंने शायरी में ख़ूब शौहरत हासिल की.

हसन साहब बताते हैं कि साल 1977 में उन्होंने झांसी में पहली बार मुशायरे में शिरकत की थी. उस वक़्त उन्हें चालीस रुपये मिले थे. उसे देखकर उन्हें बेहद ख़ुशी हुई और उनकी पहली कमाई थी. उसमें से उन्होंने बीस रुपये किराये और खाने-पीने में ख़र्च किए और बाक़ी रुपये संभाल कर रखे. इसके बाद उन्होंने मुशायरों को संजीदगी से लेना शुरू कर दिया.

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शायरी उनका शौक़ भी थी और यह उनकी आमदनी का ज़रिया भी बनी. लेकिन शायरी में ज़िन्दगी गुज़ारने लायक़ आमदनी नहीं है. इसलिए उन्होंने शायरी के साथ-साथ रोज़गार के दीगर ज़राये  अपनाये.  उन्होंने साल 1982से दूरदर्शन के लखनऊ केंद्र से कैजुअल एंकरिंग से अपने करियर की शुरुआत की.

उन्होंने सहारा न्यूज़ नेटवर्क नोएडा में भी एंकरिंग की. उन्होंने रोज़नामचा राष्ट्रीय सहारा उर्दू में भी काम किया. इसके अलावा उन्होंने दूरदर्शन के उर्दू चैनल के लिए देश के जाने-माने शायरों के वृत्तचित्र का निर्माण, लेखन और सम्पादन भी किया.इसके अलावा उन्होंने मुख़तलिफ़ ज़िम्मेदारियां भी उठाईं.

साल 1980 में वे कानपुर की जिगर अकादमी के संयुक्त सचिव रहे. वे साल 1984से उत्तर प्रदेश की हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड कमेटी के संयुक्त सचिव और 2008से उर्दू अकादमी ऑफ़ अमेरिका के भारत के प्रतिनिधि हैं. देश की जानी मानी संस्थाओं द्वारा उन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा गया है.

इनमें नरेश कुमार शाद अवार्ड, हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड, लखनऊ महोत्सव में युवा रत्न, अमीर खुसरो लिटरेरी अवार्ड, मुमताज़ शायर अवार्ड, बज़्मे-अदब अवार्ड, कुंवर महेंद्र सिंह बेदी अवार्ड, मुमताज़ सहाफ़ी अवार्ड, लखनऊ महोत्सव में युवा रत्न शिखर सम्मान आदि शामिल हैं.   

उनकी शायरी की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी शायरी की पहली किताब ‘तेरी याद के जुगनू’ साल 1990में शाया हुई थी. इसकी भाषा देवनागरी थी. उनकी दूसरी किताब ‘ख़ूबसूरत हैं आंखें तेरी’ साल 2012में उर्दू में शाया हुई थी.

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देश-विदेश के जाने-माने गायकों ने उनकी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ से सजाया है. इनमें सुप्रसिद्ध गायक जगजीत सिंह, तलत अज़ीज़, अनूप जलोटा, पंकज उधास, उदित नारायण, पूर्णिमा ठाकुर, घनश्याम वास्वानी और चन्दन दास आदि शामिल हैं. तलत अज़ीज़ द्वारा गायी गई ग़ज़ल ‘ख़ूबसूरत हैं आंखें तेरी रात को जागना छोड़ दे’ ने हसन साहब को कामयाबी की बुलंदी तक पहुंचा दिया. ये ग़ज़ल देश-विदेश में ख़ूब पसंद की गई.            

ख़ूबसूरत हैं आंखें तेरी, रात को जागना छोड़ दे

ख़ुद ब ख़ुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे

तेरी आंखों से कलियां खिलीं, तेरे आंचल से बादल उड़ें

देख ले जो तेरी चाल को, मोर भी नाचना छोड़ दे

तेरी अंगड़ाइयों से मिलीं ज़हन-ओ-दिल को नई रोशनी

तेरे जलवों से मेरी नज़र, किस तरह खेलना छोड़ दे

तेरी आंखों से छलकी हुई जो भी इक बार पी ले अगर

फिर वो मयख़ार ए साक़िया जाम ही मांगना छोड़ दे

पाकिस्तान की मारूफ़ अदाकारा सलमा आग़ा को भी हसन साहब की ग़ज़लें बहुत पसंद हैं. वे अक्सर इन्हें गुनगुनाया करती हैं.उनका ये शेअर भी बहुत मशहूर हुआ है. संसद में भी इसे पढ़ा जा चुका है.

सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं

मैं भी इस मुल्क में उर्दू की तरह रहता हूं

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हसन साहब की शायरी में मुहब्बत है, शोख़ी है और इन्द्रधनुषी ख़्वाबों के रंग हैं. उन्होंने मौजूदा हालात पर भी शेअर कहे हैं. बानगी देखें- 

नील गगन पर सुनते तो हैं क़ुदरत रहती है

लेकिन माँ के पांव के नीचे जन्नत रहती है

बासी रोटी सेंककर जब नाश्ते में माँ ने दी

हर अमीरी से हमें ये मुफ़लिसी अच्छी लगी

आसमां के चांद तारों में कहां ऐसी चमक

हमको अपने घर के बच्चों की हंसी अच्छी लगी

ख़्वाब आंखों तक आते नहीं कोई ताबीर लाते नहीं

सूने बिस्तर पे कल रात भर नींद करवट बदलती रही

मेरा साथ है किसी और का, मेरी ज़िन्दगी कहीं और है

मैं चराग़ हूं किसी राह का, मेरी रौशनी कहीं और है

खेत पनघट वो पगडंडियां बचपने की वो नादानियां

नौकरी लाई हमको यहां दिल तो रहता है देहात में    

साज़ बूंदों के बजने लगे, फूल शाख़ों पे सजने लगे

चूड़ियां गुनगुनाने लगीं तेरे मेहंदी लगे हाथ में 

ये हवा की शरारत भी है, और चराग़ों की आदत भी है

हुस्न वालों की फ़ितरत भी है, रूठना बात ही बात में

वे कहते हैं कि आज भी सौन्दर्य और प्रेम रस को सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है, क्योंकि ग़ज़ल अपने जज़्बात का इज़हार करने का सबसे उम्दा तरीक़ा है. आज के तनाव के दौर में ग़ज़लें दिलो-दिमाग़ को सुकून देती हैं. ये मुहब्बत का पैग़ाम देती हैं.

हसन साहब देश-विदेश के सरकारी- ग़ैर सरकारी संस्थाओं में समाज के पिछड़े और कमज़ोर वर्गों की मदद के लिए होने वाले जलसों और कार्यकर्मों में शिरकत करते हैं. वे कहते हैं कि मेरा सपना है कि उर्दू जैसी ख़ूबसूरत भाषा का सारी दुनिया में प्रचार-प्रसार हो और इस भारतीय भाषा को नई तकनीक के ज़रिये दुनियाभर में पहुंचाया जाए. मैं उर्दू को दुनिया के कोने-कोने में देखना चाहता हूं.

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)