जब कृष्ण ने अपनी बिटिया सामा को दिया था गौरेया बन जाने का शाप

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 20-03-2021
गौरेया मिथिला की लोककथाओं में बहुत पाई जाती है
गौरेया मिथिला की लोककथाओं में बहुत पाई जाती है

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

इंसान और परिंदों का साथ बहुत पुराना है. देश के विभिन्न इलाकों में चिड़ियो को लेकर बहुत सारी परंपराएं और लोकगीत हैं. बिहार के मिथिला में तो गोरैया से जुड़े बहुत सारे किस्से हैं, और उनमें भी एक ऐसी लोककथा है जो गोरैया को लोककथा के जरिए पौराणिकता से जोड़ती है.

कार्तिक के महीने में जब आसमान में चांद की उजली रोशनी बिखरी होती है, मिथिला के गांवों में एक गीत गूंजने लगता है

‘सामचको-सामचको अबिह हे

जोतला खेत में बैसियह हे

सब रंग पटिया ओछिबइह हे

भइया के आशीष दीहअ हे’

मिथिला में भाई-बहनों का एक त्योहार है, सामा-चकेबा. यह गीत उन्हीं दिनों गाया जाता है.

इस गीत से जुड़ा किस्सा कोई धार्मिक या पौराणिक कथा नहीं है, बस सदियों से मौखिक परंपरा से चली आ रही एक लोककथा है. भगवान कृष्ण की एक बेटी थी. नाम था श्यामा या मैथिली में सामा. कृष्ण के एक बेटे भी थे जिनका नाम था साम्ब मिथिला वाले उनको सतभइयां या चकेवा भी कहते हैं. तो, दोनों भाई-बहनों, सामा और चकेवा में असीम स्नेह था. सामा प्रकृतिप्रेमी थी जिसका ज्यादातर समय परिंदों, पेड़-पौधों, लता-गुल्मों और फूल-पत्तों के बीच बीतता था.

सामा अपनी दासी डिहुली के साथ वृंदावन जाकर ऋषियों के बीच तपोवन के एकांत में खेला करती थी. लेकिन कृष्ण का एक मंत्री था. चुरक. जिसे कालांतर में मिथिला में चुगला नाम से जाना गया. चुरक या चुगला ने सामा के खिलाफ कृष्ण के कान भरने शुरू कर दिए. उसने सामा पर वृन्दावन के एक तपस्वी के साथ अवैध संबंध होने का आरोप लगाया.

कृष्ण ईश्वर थे. पर अपने मंत्री की बातों में आ गए. कृष्ण ने आक्रोश में अपनी पुत्री को गोरैया बन जाने का शाप दे दिया. नतीजतन, सामा गोरैया बन गई और वृंदावन के वन-उपवन में रहने-फुदकने लगी. उस निर्दोष को इस रूप में देखकर वहां के साधु-संत भी गोरैयों में तब्दील हो गए.

अपनी गायब बहन के बारे में पूछताछ करने पर जब सामा के भाई चकेवा को इस प्रकरण की जानकारी हुई तो उन्होंने पिता कृष्ण को समझाने की भरसक कोशिश की. कृष्ण नहीं माने तो वह तपस्या पर बैठ गए. अपनी कठिन तपस्या के बल पर अंततः चकेवा ने कृष्ण को मनाने में सफलता पा ली. प्रसन्न होकर कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक के महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी और कार्तिक की पूर्णिमा को पुनः लौट जाएगी.

कार्तिक में सामा और चकेवा इन दोनों प्यारे भाई-बहनों का मिलन हुआ. उसी दिन की याद में सामा-चकेवा का त्यौहार मनाया जाता है.

सामा चकेवा का त्योहार आठ दिनों का होता है और सूर्योपासना छठ के पारण के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन इसका अवसान होता है.

इस त्योहार में सामा और चकेवा की जोड़ी के साथ चुगला, वृन्दावन, बटगमनी, वृक्षों, पक्षियों आदि की मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाई जाती हैं. बांस की रंग-बिरंगी टोकरियों में इन मूर्तियों को सजाकर उनकी पूजा की जाती है. सांझ को गांव या नगर की लड़कियों और महिलाओं की टोली लोकगीत गाती हुईं निकलती हैं.

सामा खेलते लोकसंस्कृति अपने चरम पर होती हैं. गाने होते हैं, चुहल होती है. अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाने के बाद सभी महिलायें गाती-गुनगुनाती घर लौट जाती हैं. इस दौरान सामा-चकेवा का विशेष श्रृंगार किया जाता है और उसे खाने के लिये हरे धान की बालियां दी जाती हैं और रात्रि में उसे युवतियों द्वारा खुले आसमान के नीचे ओस पीने के लिये छोड़ दिया जाता है.

कार्तिक शुक्ल सप्तमी से लेकर पूर्णिमा तक यह सिलसिला चलता है और इस त्योहार के आखिरी दिन यानी कार्तिक पूर्णिमा को बहनें अपने भाइयों के साथ खेतों में जाती हैं. चूड़ा, दही, गुड़ और मिठाई से मुंह जूठा कराने के बाद वे भाईयों के घुटने से मूर्तियां तुड़वा देती हैं. उसके बाद सामा-चकेवा का विसर्जन होता है. जाते-जाते चुगलखोर चुगला की पटसन से बनाई गई मूंछ में आग लगा दी जाती है. भाइयों को मिठाई खिलाकर और उनकी लंबी उम्र की प्रार्थनाएं करने के बाद अगले वर्ष फिर सामा चकेवा के आने की कामना के साथ इस आयोजन का समापन होता है.

पंचकोसी मिथिला में सामा-चकेबा को जुते हुए खेतों में भसाने (विसर्जित करने की) की परंपरी है. जबकि अन्य जगह उसे नदी एवं तालाब में प्रवाहित किया जाता है. विसर्जन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करते हुए गीत गाती हैं, जिसका जिक्र ऊपर किया थाः

‘सामचको-सामचको अबिह हे

जोतला खेत में बैसियह हे

सब रंग पटिया ओछिबइह हे

भइया के आशीष दीह हे’

विश्व गोरैया दिवस पर इतनी लंबी कहानी के उल्लेख की कोई वजह तो होगी!

असल में, हमारे देश में स्थापित पौराणिक और शास्त्रीय पर्वों के साथ लोक उत्सवों की अद्भुत छटा है, जिसमें कर्मकांड कम और समाज की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती दिखती है. लोक आस्था का पर्व छठ हो या फिर सामा चकेबा, दोनों ही पर्यावरण के पर्व हैं. भाई-बहन के रिश्ते को भैया दूज और राखी से परे ले जाकर सामा-चकेबा का पर्व अद्भुत आयाम देता है. इस आयाम में, प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को बेहद मासूम अभिव्यक्ति दी जाती है.

मिथिला में सामा चकेबा भाई-बहन का त्योहार है.


आठ दिनों के इस त्योहार का बड़ा मकसद प्राचीन काल से ही मिथिला क्षेत्र में हर साल आने वाले प्रवासी पक्षियों और स्थानीय परिंदों को सुरक्षा और सम्मान देना है. बरसात के बाद कार्तिक के महीने से सर्दियों की शुरुआत होती है. ताल-तलैया-पोखरों से भरे मिथिला के मैदानी इलाकों में दूर-दराज़ से दुर्लभ नस्लों के रंग-बिरंगे परिंदों का आना शुरू हो जाता है. खेतों में फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़ों को खा जाने वाली गौरेया भी पूज्य बन गई है मिथिला में.

मिथिला में आने वाले ये प्रवासी पंछी हिमालय या सुदूर उत्तरी ध्रुव के बर्फीले इलाकों से इधर आते हैं क्योंकि सर्दी यह बनिस्बतन कम पड़ती है और पानी भी पर्याप्त मात्रा में है.

प्रवासी पक्षियों के आगमन की शुरुआत सामा चकेवा पक्षियो से होती है. इन पक्षियों को शिकारियों के हाथों से बचाने के साथ ही मनुष्य और पक्षियों के सनातन रिश्तों को आगे ले जाने और पर्यावरणीय सहअस्तित्व को स्थायित्व देने के लिए ही संभवतः हमारे पूर्वजों ने सामा और चकेवा के मिथकीय प्रतीक गढ़े.

सामा और चकेवा पक्षियों की कल्पना कृष्ण की संतानों के रूप में की गई. चुगला संभवतः इन मासूम पक्षियों के शिकारियों का प्रतीक है. शायद यही वजह है कि महिलाएं गांव के पोखरों की मिट्टी लेकर सामा चकेवा पक्षी बनाने के बाद उन्हें पारंपरिक तरीके से सजाती भी हैं और उनके स्वागत में गीत भी गाती हैं. कार्तिक पूर्णिमा को इस पक्षी जोड़े की विदाई और चुगला रुपी शिकारी की मूंछे जलाने के साथ इस पर्व का समापन इस उम्मीद के साथ किया जाता है कि प्रवासी और गौरेया जैसे स्थानीय पक्षियों को यहां के लोगों से कोई शिकायत नहीं होगी और अगले वर्ष वे फिर लौटकर यहां के मैदानों, झीलों और ताल-तलैया को अपने मासूम कलरव से भर देंगे.

अब तो सामा चकेबा त्योहार ही एकल परिवारों के दौर में कम हो रहा है, इसके साथ ही लोगों के हृदय की विशालता भी उसी तरह कम होती जा रही है, जैसे बड़े-बड़े पोखरे मकान-दुकान बनाने के लिए भथे जा रहे हैं.

पर यकीन मानिए, हर त्योहार पूजा नहीं होती, उनमें समाज अपने को सहेजकर रखने का यत्न भी करता है. सामा-चकेबा भी वैसा ही पर्व है.