ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
104 वर्षीय मौलवी एम. ए. अब्दुल्ला की कहानी सिर्फ एक तकनीकी बदलाव की नहीं, बल्कि सम्मान, आत्मनिर्भरता और सामाजिक समावेशन की एक गूंजती हुई मिसाल है। एर्नाकुलम ज़िले के आशामन्नूर गाँव में रहने वाले मौलवी, जो कभी डिजिटल दुनिया से पूरी तरह अनजान थे, आज हर सुबह अपने बेटे के स्मार्टफोन को हाथ में लेकर अपना दिन शुरू करते हैं।
उनके झुर्रियों से भरे चेहरे पर वह आत्मविश्वास झलकता है, जो यह बताने के लिए काफी है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। सोशल मीडिया पर रील्स देखना, YouTube पर अपने पसंदीदा प्रार्थना गीत खोजना, और विदेश में रहने वाले अपने पोते से वीडियो कॉल पर बातचीत करना अब उनके रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुका है।
एक ऐसे समय में जब तकनीक को अक्सर युवा वर्ग से जोड़कर देखा जाता है, अब्दुल्ला मौलवी जैसे बुज़ुर्ग उस धारणा को तोड़ते हैं। वह उन 22 लाख नागरिकों में शामिल हैं जिन्हें केरल सरकार की अग्रणी परियोजना ‘डिजी केरलम’ के तहत डिजिटल साक्षर बनाया गया। यह पहल महामारी के समय शुरू हुई, जब सरकारी सेवाएं पूरी तरह ऑनलाइन हो गईं और समाज का एक बड़ा हिस्सा — खासकर बुज़ुर्ग, मजदूर और ग्रामीण नागरिक — इन सेवाओं तक पहुँच नहीं बना पा रहे थे। यह साफ़ हो गया था कि अगर लोगों को अधिकारों और अवसरों तक पहुँच दिलानी है, तो डिजिटल अंतर को खत्म करना होगा।
डिजी केरलम की जड़ें 2021 के लॉकडाउन में तिरुवनंतपुरम के पास के एक छोटे से गांव पुलमपारा में पनपीं, जहाँ लोग मनरेगा की मजदूरी के पैसे बैंक में आए या नहीं, यह देखने के लिए घंटों लाइन में लगते थे और ₹200-300 तक खर्च करके शहर जाते थे। यह दृश्य प्रशासन को यह समझाने के लिए काफी था कि डिजिटल साक्षरता अब कोई विकल्प नहीं बल्कि आवश्यकता है। वहाँ से जो प्रयोग शुरू हुआ, वह 2022 में पुलमपारा को राज्य का पहला पूर्ण डिजिटल साक्षर पंचायत बनाने तक पहुँचा और फिर पूरे केरल में फैल गया।
सरकारी योजना के तहत स्वयंसेवकों, NSS छात्रों, पुलिस कैडेट्स, कुदुम्बश्री कार्यकर्ताओं और स्थानीय निवासियों को प्रशिक्षित कर गाँव-गाँव भेजा गया। इन लोगों ने घर-घर जाकर लोगों को सिखाया कि स्मार्टफोन कैसे चालू करें, ऑनलाइन बैंकिंग कैसे करें, सरकारी पोर्टल पर सेवाएँ कैसे लें और परिवार के लोगों से वीडियो कॉल पर कैसे जुड़ें। मौलवी अब्दुल्ला के बेटे फैज़ल बताते हैं कि उनके पिता को अब किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता — वे खुद YouTube से जानकारी लेते हैं, खुद ही अपने पोते को कॉल करते हैं और टेक्नोलॉजी को एक दोस्त की तरह अपनाते हैं। उनके लिए यह सिर्फ सुविधा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और सम्मान का स्रोत है।
डिजी केरलम अभियान का स्केल अभूतपूर्व था — 1,034 स्थानीय निकायों में 2.57 लाख से अधिक स्वयंसेवकों ने भाग लिया। 1.5 करोड़ से अधिक नागरिकों का सर्वेक्षण कर यह तय किया गया कि किसे डिजिटल प्रशिक्षण की आवश्यकता है, और फिर 21.87 लाख लोगों को प्रशिक्षित किया गया। इनमें से 21.87 लाख से भी ज़्यादा ने मूल्यांकन पास किया, और सफलता दर 99.98% रही। खास बात यह है कि इसमें 1000 से अधिक ऐसे नागरिक थे जिनकी उम्र 90 साल से अधिक थी।
यह बदलाव सिर्फ तकनीकी नहीं था, यह सामाजिक था। जिन लोगों को समाज में हाशिए पर समझा जाता था — जैसे बुज़ुर्ग, अकेले रहने वाले, अत्यधिक गरीब परिवार — वे इस डिजिटल यात्रा के केंद्र में थे। जैसे 79 वर्षीय सरसु, जो पहले अकेलेपन और दुःख से घिरी थीं, अब YouTube चैनल चलाती हैं और अपने लोकगायन को दुनिया के सामने रखती हैं। यह तकनीक उन्हें फिर से जीने का कारण दे रही है। जैसे ही 21 अगस्त 2025 को केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन तिरुवनंतपुरम के सेंट्रल स्टेडियम से घोषणा करेंगे कि केरल भारत का पहला पूर्ण डिजिटल साक्षर राज्य बन गया है, उसी क्षण मौलवी अब्दुल्ला की तरह हजारों लोगों की चुप मुस्कान इस ऐतिहासिक उपलब्धि की सबसे बड़ी गवाही होगी।
डिजी केरलम अभियान के मूल में सिर्फ मोबाइल फ़ोन या इंटरनेट नहीं था — यह लोगों को विश्वास दिलाने की पहल थी कि वे सीख सकते हैं, बदल सकते हैं और जुड़ सकते हैं। पुलमपारा की सहायक निदेशक सजिना सत्तार ने बिल्कुल सही कहा कि सबसे बड़ी चुनौती लोगों को तकनीक सिखाना नहीं थी, बल्कि उन्हें यह यकीन दिलाना था कि वे इसे सीख सकते हैं। एक बार यह भरोसा जागा, फिर सब आसान हो गया।
आज अब्दुल्ला मौलवी की उंगलियाँ जब स्मार्टफोन की स्क्रीन पर चलती हैं, तो वह सिर्फ स्क्रीन पर नहीं, बल्कि समाज की सोच पर चल रही होती हैं। वे इस बात का जीता-जागता उदाहरण हैं कि डिजिटल क्रांति केवल युवाओं की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो सीखने के लिए तैयार है। डिजी केरलम ने तकनीक को सम्मान, जुड़ाव और आत्मनिर्भरता का माध्यम बनाया — और मौलवी अब्दुल्ला जैसे नागरिक उस क्रांति के सबसे शांत लेकिन सबसे प्रभावशाली चेहरे हैं।