भारतीय इतिहास की एक विलक्षण प्रतिभा अमीर खुसरो

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 29-05-2021
अमीर खुसरो जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व भारतीय इतिहास में कम ही हैं
अमीर खुसरो जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व भारतीय इतिहास में कम ही हैं

 

आवाज़ विशेष । अमीर खुसरो

अरविंद कुमार

"गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस.

चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस"

दुनिया में अब तक सर्वाधिक बहुमुखी प्रतिभा का धनी व्यक्ति लियोनार्डो दा विंची को माना जाता है, जो यूरोपीय पुनर्जागरण के नायक थे. लेकिन उनसे दो सौ साल पहले भारत में एक ऐसा शख्स पैदा हुआ जो विंची की तरह ही बहुमुखी प्रतिभा का विस्फोट था. उसके बिना हिंदुस्तान के अदब, जुबान,  संगीत,इतिहास लेखन, शायरी,सूफी परंपरा, कव्वाली और कल्चर की कल्पना नहीं की जा सकती. वह शख्स और कोई नहीं बल्कि अमीर खुसरो था.

खुसरो खड़ी बोली का पहला कवि, इतिहासकार, सूफी शायर,  गायक,संगीतज्ञ, दोहों-पहेलियों-मुकरियों, गजलों का रचयिता भी था. यानी वह एक सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यक्तिव थे, जिसके बिना हिंदुस्तानी तहजीब  की कल्पना भी असंभव है. वह भारत की साझी संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे का भी प्रतीक था. खुसरो को हिंदी, हिंदवी, फारसी, अवधी, ब्रजभाषा इ सबके बीच एक पुल भी कहना उचित ही होगा.

मुस्लिम नवजागरण पर दो खंडों में किताब लिखने वाले लेखक कर्मेंदु शिशिर का तो कहना है कि भारत में खुसरो जैसी विलक्षण प्रतिभा का कोई आदमी नहीं हुआ.

दिल्ली सल्तनतकाल की प्रमुख हस्तियों में अमीर खुसरो का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है. उत्तर प्रदेश के कासगंज में 1253ई. में जन्मे खुसरो एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जिसके कई पीढ़ियों से राजदरबार से घनिष्ठ रिश्ते थे. वह कैकूबाद, जलालुद्दीन खिलजी, अलाउद्दीन खिलजी, मुबारकशाह और गयासुद्दीन तुगलक के अंतर्गत शाही सेवा में रहे.

अमीर खुसरो सूफियों के काफी नजदीक रहे और हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे. उन्होंने अपने काव्य और संगीत के माध्यम से भारत की सूफी संस्कृति के निर्माण में महान योगदान दिया था.

अमीर खुसरो ने 8सुल्तानों का शासन देखा था.खुसरो पहले मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है. वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में लिखा.उन्हें खड़ीबोली के आविष्कार का ही श्रेय दिया जाता है. वे अपनी अनूठी पहेलियों और यादगार मुकरियों के लिए जाने जाते हैं. सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए हिन्दवी का उल्लेख किया था.

खुसरो फारसी के कवि भी थे. उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था. उनके ग्रंथों की सूची लम्बी है साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में काफी महत्त्व है.

खुसरो की सभी कृतियाँ, सन 1289-1325के बीच रची गई थीं. इनमें से कुछ की रचना के लिए उनसे ख़ास तौर पर कहा गया था, जबकि कुछ अन्य उन्होंने अपने शाही रक्षकों को खुश करने के लिए लिखी थीं.

अमीर खुसरो की प्रमुख किताबों में किरान-उस-सादेन भी है जो ऐतिहासिक विषय को लेकर उसकी पहली रचना है. इसे उन्होंने 1289ई. में लिखा था. इसमें बुगरा खां और उसके बेटे कैकूबाद के मिलन का वर्णन है. इसमें दिल्ली, उसकी इमारतों, शाही दरबार, अमीरों और अफसरों के सामाजिक जीवन के विषय में दिलचस्प विवरण दिए गए हैं. इस रचना द्वारा उन्होंने मंगोलों के प्रति अपनी घृणा भी प्रकट की है.

मिफता-उल-फुतूह की रचना उन्होंने 1291ई में की. इसमें उन्होंने जलालुद्दीन खिलजी के सैन्य अभियानों, मालिक छज्जू के विद्रोह और दमन, रणथम्बौर पर सुलतान की चढ़ाई और अन्य स्थानों की विजय पर का वर्णन किया है.

खजाइन-उल-फुतूह में, जिसे तारीख-ए-अलाई के नाम से भी जाना जाता है, अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के पहले 15वर्षों का विवरण है. यद्यपि यह रचना मूलतः साहित्यिक है फिर भी इसका अपना महत्त्व है क्योंकि अलाउद्दीन खिलजी का समसामयिक विवरण केवल इसी पुस्तक में मिलता है. इसमें उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी द्वारा गुजरात, चित्तौड़, मालवा और वारंगल की विजय के विषय में लिखा है. इसमें हमें मालिक काफूर के दक्कन अभियानों का आँखों देखा विवरण मिलता है और भौगोलिक और सैन्य विवरणों की दृष्टि से यह काफी प्रसिद्ध है. इसमें अलाउद्दीन के भवनों व प्रशासनिक सुधारों का वर्णन किया गया है.

अमीर खुसरो की एक अन्य रचना “आशिका” का सम्बन्ध गुजरात के राजकरन की पुत्री देवलरानी और अलाउद्दीन के पुत्र खिज्रखां की प्रेमकथा से है. इसमें अलाउद्दीन की गुजरात व मालवा विजय के बारे में चर्चा की गई है. साथ ही उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन भी किया है. इसमें वे मंगोलों द्वारा स्वयं अपने कैद किये जाने की चर्चा भी करते हैं.

एक अन्य पुस्तक, जहाँ हिन्दुस्तान और उसके लोगों का अच्छा चित्रण हुआ है वह “नूह सिपिहर’है. इसमें मुबारक खिलजी का बड़ा हीबारीक विवरण है. उन्होंने मुबारकशाह के भवनों के विजयों के साथ-साथ जलवायु, सब्जियों, फलों, भाषाओं, दर्शन और जीवन जैसे विषयों पर विचार किया है. इसमें तत्कालीन सामाजिक स्थिति का बड़ा ही जीवंत चित्रण देखने को मिलता है.

खुसरो की अंतिम ऐतिहासिक मसनवी है तुगलकनामा. इसमें खुसरोशाह के विरुद्ध गयासुद्दीन तुगलक की विजय का चित्रण है. पूरी कहानी को धार्मिक रंग में प्रस्तुत किया गया है. इसमें गयासुद्दीन सत तत्वों का प्रतीक है और उसे असत् तत्वों के अमीर खुसरोशाह के साथ संघर्ष करते दिखाया गया है.

अमीर खुसरो के किताबों की खासियत है कि उन्होंने जो बहुत-सी तिथियाँ दी हैं और कालक्रम पेश किया है वह अलबेरूनी की अपेक्षा कहीं अधिक विश्ववसनीय हैं. उनकी रचनाएँ तत्कालीन सामाजिक स्थितियों पर भी काफी प्रकाश डालती हैं और यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी ओर उस समय के अन्य इतिहासकारों का ख़ास ध्यान नहीं गया था.

रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में अमीर खुसरो को हिंदी में खड़ीबोली का पहला कवि माना है. भोलानाथ तिवारी ने खुसरो पर किताब लिखी है तो गोपीचंद नारंग से लेकर अखलाक आहान तक खुसरो के मुरीद हैं. हिंदी की इस वर्ष साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका अनामिका ने तो खुसरो के जीवन पर गत वर्ष ‘आईनासाज’नामक एक उपन्यास लिख डाला है.

खुसरो के जीवन और उसके व्यक्तित्व पर एक बायोपिक फिल्म भी बननी चाहिए थी, जिससे आज की पीढ़ी को खुसरो के बारे में एक प्रामाणिक जानकारी मिलती. यूं तो फिल्म्स डिवीजन ने 1974में खुसरो पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी और 80के दशक में दूरदर्शन पर एक धारावाहिक भी खुसरो पर आया था, लेकिन फीचर फिल्म या बायोपिक फिल्म की बात ही कुछ होती. सरकार को खुसरो के नाम पर एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी तथा एक राष्ट्रीय शोध संस्थान भी खोलना चाहिए.

72साल की जिंदगी में हिंदुस्तानी तहजीब और तमद्दुन के हजारों रंग बिखेरने वाले इस शख्स की इन पंक्तियों को भला कौन भूल सकता है-

मोरे पिया घर आए

ऐ री सखी मोरे पिया घर आए

भाग लगे इस आँगन को

बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के

चरण लगायो निर्धन को

मैं तो खड़ी थी आस लगाए

मेहंदी कजरा माँग सजाए

देख सुरतिया अपने पिया की

हार गई मैं तन-मन को

जिस का पिया संग बीते सावन

उस दुल्हन की रैन सुहागन

जिस सावन में पिया घर नाहीँ

आग लगे उस सावन को

अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ

लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ

तुम ही जतन करो ऐ री सखी री

मैं मन भाऊँ साजन को