अलीगढ़ में अनोखा है सेहरी-इफ्तार की सूचना देने का तरीका

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 06-05-2021
दुलारे गोला दागते हुए (फाइल फोटो)
दुलारे गोला दागते हुए (फाइल फोटो)

 

 

रेशमा / अलीगढ़

रमजान के दौरान किसी भी शहर पर नजर डालेंगे, तो वहां सेहरी-इफ्तार की सूचना देने का एक अलग ही तरीका नजर आएगा. कहीं नगाड़ा बजाया जाता है, तो कहीं मस्जिद की सबसे ऊंची मीनार पर लाल रंग का बल्ब जलाकर इशारा दिया जाता है. एक और पुराना रिवाज है, जो आज भी ज्यादातर शहरों में अपनाया जाता है. सेहरी के वक्त 5 से 7 लोगों की टोली अपने-अपने मोहल्ले में घूम-घूमकर लोगों को सेहरी के लिए जगाती है. लेकिन अलीगढ़ में ऊपरकोट जामा मस्जिद द्वारा अनोखे तरीके से सेहरी-इफ्तार की सूचना शहर को दी जाती है. आज के वक्त में यह तरीका कारगर न होने के बाद अलीगढ़ की पहचान बन चुकी सदियों पुरानी इस रस्म को निभाया जा रहा है.

गोला हो गया रोज इफ्तार कर लें

“अरे भाई गोला हो गया रोजा इफ्तार कर लें.” यह वो आवाज है, जो रमजान के महीने में अलीगढ़ के ज्यादातर गली-मोहल्ले में सुनाई देती है.

असल में होता यह है कि जैसे ही रोजा इफ्तार का वक्त होता है, तो ऊपरकोट जामा मस्जिद के पास एक गोला छोड़ा जाता है. इस गोले की आवाज बनियापाड़ा, तुर्रकमान गेट, भुजपुरा, रेलवे रोड, गूलर रोड, टनटनपाड़ा, सुईवालान, देहली गेट और हाथी वाले पुल समेत तमाम इलाके में इस गोले की आवाज जाती थी.

भूकी सराय के रहने वाले अफसर बताते हैं कि जैसे ही गोले की आवाज सुनाई देती है, तो लोग घरों में और आस-पड़ोस में एक-दूसरे को खबर देने लगते हैं कि गोला छूट गया है. अब इफ्तार कर लीजिए.

कम होता गया गोले का महत्व

जामा मस्जिद के पास ही रहने वाले 52 वर्षीय मोहम्मद अहमद बताते हैं कि हम बचपन से जामा मस्जिद के पास गोला छूटते हुए देख रहे हैं. बुर्जुर्गों से सुनते आ रहे हैं कि काफी लम्बे वक्त से सेहरी-इफ्तार के दौरान यहां गोला छूटता है. पहले इस काम को खुद जामा मस्जिद की कमेटी अंजाम देती थी. मस्जिद के मोहज्जिम (अजान देने वाले) गोला छोड़ते थे. उसके बाद करीब 25-30 साल से दुलारे और दुलारे की मौत के बाद उनका बेटा इस गोले को छोड़ता आ रहा है. लेकिन कोरोना-लॉकडाउन के चलते दो साल से गोला नहीं छोड़ा जा रहा है.

मोहम्मद सुलेमान का परिवार बनाता है गोला

मोहम्मद अहमद ने बताया कि क्योंकि गोले में गंधक और पोटाश का इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए शुरु से ही यह गोला आतिशबाजी बनाने वालों से ही बनवाया जाता है. लेकिन कई पीढ़ियों से तो मोहम्मद सुलेमान का परिवार इस गोले को बनाता आ रहा है. गंधक-पोटाश भरने के बाद इसे सुतली से लपेटा जाता है, क्योंकि सुलेमान के परिवार के पास आतिशबाजी का लाइसेंस है। इसलिए इसे बनाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं आती है. इस गोले का खर्च मस्जिद की कमेटी ही उठाती है.

अब गोले के साथ बजता है सायरन

मोहम्मद अहमद बताते हैं कि जामा मस्जिद के आसपास ही नहीं शहर भर में अब शोरगुल बहुत बढ़ गया है. खुद जामा मस्जिद के पास ही घना बाजार हो गया है कि गोले की आवाज अब दूर तलक नहीं जाती है, इसीलिए मस्जिद में सायरन भी लगा दिया गया है. लेकिन गोला छोड़ने की रस्म को बंद नहीं किया गया है. शुरुआत में गोला मस्जिद की मुख्य सीढ़ियों के पास छोड़ा जाता था. आबादी बढ़ी, तो सामने खाली मैदान में छोड़ा जाने लगा. अब मछली बाजार की साइड छोड़ा जाता है.