आवाज द वाॅयस/ गुरुग्राम ( हरियाणा )
एस्प्लेनेड मॉल, गुरुग्राम का माहौल कुछ अलग ही था. शहर की भागदौड़ और मेट्रो संस्कृति के बीच, जश्न-ए-अदब 2025 के तहत आयोजित दो दिवसीय सांस्कृतिक समारोह ने इस स्थान को लय, साहित्य, शास्त्रीय ध्वनियों और तालीम-ओ-तहज़ीब की रूह से सराबोर कर दिया.कार्यक्रम में प्रो. वसीम बरेलवी, पद्मश्री सुरेन्द्र शर्मा, फरहत एहसास, कैसर खालिद (आईपीएस), आलोक अविरल, डॉ. सीता सागर, जावेद ने अपने कलाम से जमकर जलवा बिखेरा.
यह उत्सव सिर्फ एक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि एक ऐसी सांस्कृतिक यात्रा थी, जिसमें भारत की समृद्ध साहित्यिक विरासत, शास्त्रीय कलाएँ, सूफियाना रंग, ग़ज़लों की मिठास और कविताओं का चिंतनशील स्वरूप एक साथ सजे। संस्कृति मंत्रालय और कृसुमी कॉरपोरेशन के सहयोग से आयोजित इस कार्यक्रम में समकालीन भारत में सांस्कृतिक संवाद की एक नई इबारत लिखी गई.
समारोह का उद्घाटन ऋचा जैन और उनके समूह द्वारा प्रस्तुत ‘कथक-कथा’ से हुआ, जिसमें भगवान कृष्ण पर आधारित भावपूर्ण कथा और कथक नृत्य की शुद्धता ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. दर्शकों ने महसूस किया कि यह केवल एक प्रस्तुति नहीं थी, बल्कि भारतीय पौराणिक परंपरा का पुनर्जन्म था, जो ताल और भाव के माध्यम से व्यक्त हो रहा था.
इसके बाद प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. महेंद्र भीष्म ने लेखिका भारती जी के साथ संवाद किया, जहाँ उन्होंने अपनी चर्चित पुस्तक "कहानी: एक किरदार अनेक" पर विस्तार से चर्चा की। उनके शब्दों ने न केवल कथाओं की गहराई को उजागर किया, बल्कि समाज के भीतर पात्रों के बदलते स्वरूपों को भी सामने लाया.
दिन की शाम कविताओं के नाम रही. काव्य संगोष्ठी में कर्नल गौतम राजर्षि, गुलज़ार वानी (आईआरएस), मीनाक्षी जिजीविषा और अन्य कवियों ने अपनी रचनाओं से दर्शकों के मन को स्पर्श किया.
जैसे-जैसे दिन ढलने लगा, माहौल अध्यात्म की ओर मुड़ता चला गया. डॉ. ममता जोशी और उनके समूह की सूफी प्रस्तुति "मोहे लागी लगन" ने प्रेम, भक्ति और समर्पण के रंग बिखेरे, जबकि पंडित साजन मिश्रा (पद्म भूषण) और स्वर्णांश मिश्रा ने "चलो मन वृंदावन की ओर" जैसी शास्त्रीय प्रस्तुति से समा बांध दिया.
दूसरे दिन की शुरुआत मशहूर ग़ज़ल गायक शकील अहमद की "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" से हुई, जिन्होंने अपनी सधी हुई आवाज़ और बारीक अदायगी से श्रोताओं को मोह लिया। एक-एक शेर के बाद उठती तालियों की गूंज ने साबित किया कि ग़ज़ल आज भी लोगों के दिलों की धड़कन है.
इसके बाद मंच पर आए हास्य और व्यंग्य के उस्ताद, कॉमेडियन रहमान खान. उन्होंने अपने अनोखे अंदाज़ में समाज की जटिलताओं पर हल्के-फुल्के लहजे में गंभीर बात की, और दर्शकों को हँसते-हँसते सोचने पर मजबूर कर दिया.
कार्यक्रम में डॉ. विद्या शाह की प्रस्तुति भी विशेष आकर्षण रही. “हमारी अटरिया पे” जैसी ठुमरी, दादरा और ग़ज़लों के साथ उन्होंने एक ऐसा संगीत संसार रचा जिसमें क्लासिक और सूफियाना अंदाज़ का अनुपम संगम था. उनके सुरों में रची भावनाएँ लंबे समय तक श्रोताओं के मन में गूंजती रहीं.
समारोह के अंतिम सत्र में संगीत और कविता ने समां बांधा. प्रसिद्ध ऑर्थोपेडिक सर्जन और कला प्रेमी डॉ. यश गुलाटी (पद्मश्री) ने सैक्सोफोन पर एक दुर्लभ, वाद्य प्रस्तुति दी, जिसने भारतीय और पाश्चात्य संगीत की सीमाओं को धुंधला कर दिया.
इसके बाद शुरू हुआ बहुप्रतीक्षित मुशायरा और कवि सम्मेलन, जिसमें देश के दिग्गज साहित्यकारों ने शिरकत . प्रो. वसीम बरेलवी, पद्मश्री सुरेन्द्र शर्मा, फरहत एहसास, कैसर खालिद (आईपीएस), आलोक अविरल, डॉ. सीता सागर, जावेद मुशायरे और जश्न-ए-अदब के संस्थापक कुंवर रणजीत सिंह चौहान जैसे रचनाकारों ने अपने काव्य से श्रोताओं को हास्य, प्रेम, विद्रोह और आत्मचिंतन की यात्रा पर ले गए.
जश्न-ए-अदब के संस्थापक कुंवर रणजीत सिंह चौहान ने कहा,“हम केवल कार्यक्रम आयोजित नहीं कर रहे हैं; हम कविता, संगीत और प्रेम के माध्यम से पीढ़ियों के बीच पुल का निर्माण कर रहे हैं. यह हमारी जीवित विरासत है – और यह केवल कुलीन हॉल में नहीं, बल्कि हर जगह है.”
कृसुमी कॉरपोरेशन के निदेशक (सेल्स एंड मार्केटिंग) श्री विनीत नंदा ने इस आयोजन के उद्देश्य पर रोशनी डालते हुए कहा,“हमारा प्रयास रहा कि सांस्कृतिक जड़ों को आधुनिक भारत की जमीन पर फिर से उगाया जाए. जिस तरह दर्शकों ने हर कला प्रस्तुति से आत्मीयता जोड़ी, वह यह साबित करता है कि भारत आज भी कला और संस्कृति से प्रेम करता है.”
समारोह के अंतिम क्षणों में जश्न-ए-अदब के अध्यक्ष श्री नवनीत सोनी ने सभी प्रायोजकों, विशेषकर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और कृसुमी कॉरपोरेशन को धन्यवाद देते हुए कहा,“हम इस ऐतिहासिक सांस्कृतिक आयोजन को संभव बनाने के लिए उनके सहयोग के हमेशा ऋणी रहेंगे. यह केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि हमारी साझा विरासत की जीवंत प्रस्तुति थी.”
जश्न-ए-अदब 2025 केवल एक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि एक ऐसा संवाद था जिसने दिखाया कि कला, साहित्य और संस्कृति न केवल मनोरंजन का माध्यम हैं, बल्कि समाज को जोड़ने वाली वो अदृश्य डोर हैं, जो पीढ़ियों को एक-दूसरे से बांधती हैं.