गुलाम क़ादिर
हज जैसी महान और आध्यात्मिक यात्रा को हर मुसलमान अपने जीवन में एक बार अवश्य करना चाहता है. लेकिन जब यह यात्रा किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा पूरी की जाए जो 38 वर्षों से अंधकार में जी रहा हो, तब यह केवल एक इबादत नहीं, बल्कि ईमान और आत्मबल का प्रतीक बन जाती है.
62 वर्षीय ज़ाविया मोहम्मद, एक सेवानिवृत्त गणित शिक्षिका और मलयेशिया की नागरिक, इस साल हज 2025 (1446 हिजरी) में शामिल होकर दुनिया भर के मुसलमानों के लिए प्रेरणा बन गई हैं. उन्होंने 24 वर्ष की उम्र में ग्लूकोमा के कारण अपनी दृष्टि खो दी थी, लेकिन हौसले और आस्था से भरपूर ज़ाविया आज मक्का की पवित्र भूमि पर अल्लाह के दरबार में खड़ी हैं.
ज़ाविया बताती हैं,“मैं देख नहीं सकती, लेकिन सब कुछ महसूस करती हूं. जब मैंने काबा की दीवार छुई और ‘लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक’ की सदा सुनी, तो मुझे यकीन हो गया कि अल्लाह ने मुझे अपने घर बुलाया है.”
उनके चेहरे पर संतोष और कृतज्ञता साफ झलकती है. ज़ाविया ने कहा,“दृष्टि मेरी नहीं थी, वह अल्लाह की दी हुई थी — उधार की. जब उसने वापस ली, तब भी उसने मुझे वो दिया जिसकी तमन्ना हर मोमिन करता है — हज का मौका.”
मां बनने की कीमत — आंखों की रौशनी
1986 में शादी के बाद 1987 में जब ज़ाविया गर्भवती हुईं, तभी उनकी ग्लूकोमा की बीमारी गंभीर हो गई। डॉक्टरों ने तत्काल सर्जरी और गर्भपात की सलाह दी ताकि दृष्टि बचाई जा सके.
लेकिन एक मां की ममता और एक मोमिन की ईमानदारी ने उन्हें यह सब त्यागने से रोक दिया. उन्होंने सर्जरी नहीं करवाई और अपनी संतान को जन्म देने का फ़ैसला लिया.
6 मई 1988 को उन्होंने बेटे को जन्म दिया. उसी के साथ उनकी दृष्टि ने हमेशा के लिए साथ छोड़ दिया — लेकिन उन्होंने पाया एक माँ होने की असली खुशी.
इस हज यात्रा में ज़ाविया के साथ उनके पति मोहम्मद ईसा याकूब (62) और दोनों बेटियाँ — नूर सालेहा (36) और फ़ैज़ाह सुएदा (25) भी हैं.
नूर सालेहा, जो नर्सिंग की छात्रा हैं, ने अपनी पढ़ाई अस्थायी रूप से रोक दी ताकि वे अपनी मां के साथ मक्का आकर उनकी पूरी देखभाल कर सकें.
वे कहती हैं,“माँ ने हमें कभी नहीं देखा, लेकिन हमें प्यार करना, पालना, सिखाना और अल्लाह से जोड़ना कभी नहीं छोड़ा। आज जब वह हज कर रही हैं, मैं दुआ करती हूं कि अल्लाह उन्हें उनका हक़ — उनका नूर — वापस दे.”
मसीर की ओर बढ़ते क़दम
अब तक ज़ाविया ने अपने परिवार की सहायता से तवाफ़, सई और दूसरी जरूरी इबादतें पूरी कर ली हैं. वे अब अराफात, मुजदलफा और मिना की ओर आगे बढ़ रही हैं, जिसे मसीर कहा जाता है — हज का सबसे अहम पड़ाव.
उनका हर क़दम उन लाखों हाजियों के लिए मिसाल बन गया है जो शारीरिक रूप से पूर्ण होते हुए भी आध्यात्मिक यात्रा के लिए तैयार नहीं हो पाते. उन्होंने कहा:“अगर अल्लाह चाहे, तो मुझे रोशनी वापस मिल सकती है”
ज़ाविया अपने मन में एक उम्मीद अब भी संजोए हुए हैं. उन्होंने कहा:“अगर अल्लाह चाहे, तो मैं फिर से देख सकती हूं. लेकिन अगर यह अंधापन ही मेरे लिए बेहतर है, तो मैं इसे भी अल्लाह की रहमत समझती हूं.”
ज़ाविया मोहम्मद की कहानी केवल एक महिला की व्यक्तिगत जीत नहीं है — यह उस विश्वास, धैर्य और आत्मबल की कहानी है जो इंसान को अंधकार से निकालकर ईश्वर की रौशनी तक ले जाता है.
उनकी मौजूदगी ने मक्का में हाजियों के दिलों को छू लिया है। कोई उन्हें दुआ में याद कर रहा है, कोई उनके हौसले से प्रेरित हो रहा है.
आख़िरी दुआ
इस पवित्र यात्रा पर ज़ाविया की बस एक ही दुआ है:“अल्लाह मेरी इस बंदगी को कुबूल करे। अगर मेरी आंखें न खुलें, तो मेरे दिल का नूर कभी कम न हो.”
ज़ाविया मोहम्मद की हज यात्रा हमें यही सिखाती है:जब हिम्मत हो, नियत साफ़ हो और अल्लाह पर भरोसा हो — तो अंधकार भी राह बन जाता है.