नीलम गुप्ता
सन् 1857 में लड़ी गई भारत की आजादी की पहली लड़ाई विभिन्न कारणों से अपने मकसद को हासिल भले ही न कर पाई हो, पर यह सर्वमान्य तथ्य है कि उस लड़ाई में अनेक ऐसी महिलओं ने भी हिस्सा लिया, जिन्हें समाज उपेक्षा की नजर से देखता था. ऐसी ही महिलाओं में से एक थीं अजीजन बाई.
कहने को नर्तकी पर दिल देश प्रेम से ओतप्रोत था. तभी तो पहले अपना घर रणबांकुरों को सौंप दिया और फिर खुद भी जंगे मैदान में कूद गईं. अंग्रेज जंग तो जीत गए, मगर अजीजन बाई का सिर न झुका पाए. गोलियों से छलनी होने के लिए अंग्रेज सेनापति के सामने वह हंसते-हंसते जा खड़ी हुईं और प्राणों की बलि दे हमेशा के लिए जंगे इतिहास में अपना नाम अमर कर गईं.
अजीजन का जन्म 1832 में लखनऊ में एक तवायफ के घर में हुआ था. उसकी मां की जल्द ही मृत्यु हो गई. कुछ बड़ी होने पर मां की जगह उसने संभाली. बाद में वह कानपुर में आ गई और यहीं मुजरा करने लगीं. तभी उसकी पहचान नाना साहेब के कई सैनिकों से हुई, जो उनका मुजरा देखने उसके यहां आते थे.
जून 1857 में अंग्रेज सेना ने बिठूर के राजा नाना साहेब को कानपुर के किले पर घेर लिया, तो उनके भीतर विद्रोह की आग भभक उठी. उन्होंने अपना घर सैनिकों के लिए खोल दिया. वे वहां छुपने के लिए तो आते ही, युद्ध की अपनी रणनीति तय करने के लिए भी उसे एक गुप्त अड्डे के रूप में इस्तेमाल करने लगेे. धीरे-धीरे उसका नाम नाना साहेब के मुख्य सेनापति तांत्या टोपे के कानों तक भी पहुंचा. उन्होंने अजीजन से बतौर नर्तकी रात को अंग्रेज जवानों के खेमे में जाकर उनका मनोरंजन करने के साथ-साथ महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त करने के लिए कहा.
तब वह अक्सर शाम को अंग्रेज के खेमे में जातीं और अपने रूप व हुनर का इस्तेमाल कर जो भी उनसे जानकारियां निकलवा सकती थीं, निकलवातीं. पर यह तो रात की बात थी. दिन में क्या? दिन में वह सैनिकों के वस्त्र धारण करतीं, हाथ में तलवार और पीठ पर बंदूक व कारतूस लटकाए नाना साहेब के जवानों के बीच घूमती.
जिसको जिस चीज की जरूरत होती, वह उसे देतीं. घायल सैनिकों के घावों पर मलहम लगातीं और गांवों से खाना व दूध लाकर उन्हें देती. बाद में तो इन सब कामों के लिए उन्होंने महिलाओं की एक पूरी मंडली ही तैयार कर ली और नाम रखा ‘मस्तानी’.
वाह क्या बात है. जंग के मैदान में सैनिक वेष में हाथों में तलवार व दिल में जोश लिए मस्तानियों की टोली दिन भर जंगे मैदान में घूमती रहती और अपने जवानों की सेवा करती रहती. उनके दिलों में जोश भरने के लिए बुलंद आवाज में अजीजन देशभक्ति की बातें करतीं. अपनी ऐसी ही बातों से उसने गांवों की महिलाओं को भी अपने साथ आने के लिए प्रेरित किया था.
सैनिकों से पहले खुद तलवार चलाने का प्रशिक्षण लिया और फिर अपनी टोली की महिलाओं को दिया. सोचकर देखिए, कितना कठिन रहा होगा, यह उस समय, जब महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर रोक रहती थी. फिर अजीजन खुद एक तवायफ, जिसे समाज नीची निगाह से देखता है. पर जवानों के लिए किए जा रहे उसके सेवा कार्य ने उसके तवायफ रूप को पीछे छोड़ दिया. लोग दिल खोलकर उसे जवानों के लिए खाना, दवा-दारू व रसद देते. आते-जाते वह गांव में जोशीले भाषणों से महिलाओं को प्रेरित करतीं. अंततः महिलाओं के भीतर भी अपनी भूमि के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा जगा और वे अजीजन के साथ आ खड़ी हुईं.
युद्ध करीब 20 दिन चला और नाना साहेब की रणनीति के आगे अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा. समझौता भी हो गया, मगर अंग्रेज फिर आगे बढ़ आए और इस बार कानपुर के किले को कब्जाने में सफल हो गए. अब देश प्रेमियों की धर-पकड़ शुरू हुई. इस धरपकड़ में अजीजन भी उनके हाथ पड़ गईं. बंदी बनाकर उन्हें सेनापति हैवलॉक के सामने उपस्थित किया गया. सैनिक वेष में जब हैवलॉक ने उसे अपने सामने खड़े देखा, तो देखता ही रह गया. उसने उसके रूप के किस्से सुने थे, पर वह इतनी सुंदर होगी, इसकी कल्पना नहीं की थी.
कहते हैं कि हैवलॉक ने अजीजन के सामने प्रस्ताव रखा कि वह समर्पण कर अंग्रेज कैंप में शामिल होका सेवा करने को तैयार हो जाए, तो उसे माफ कर दिया जाएगा. पर उसने सिर ऊंचा कर कहा-‘गौरों की पूर्ण पराजय देखने के अतिरिक्त मेरी कोई दूसरी इच्छा नहीं है. आप मेरे प्राण ले सकते हैं. मुझे झुका नहीं सकते.’ यह सुनते ही हैवलॉक बेहद गुस्से में आ गया और अजीजन को तुरंत गोली मारने का आदेश दिया. तब अजीजन खुद ही फायर स्क्वायड के सामने जाकर खड़ी हो गई और गर्व से सिर ऊंचा कर कहा-‘मारो गोली.’
आज अजीजन हमारे बीच नहीं हैं, पर देश की मिट्टी के कण-कण में वह आज भी समाई हुई हैं और हमेशा समाई रहेंगी.