आशा खोसा/ नई दिल्ली
"मेरी कहानियाँ महिलाओं के बारे में हैं - कैसे धर्म, समाज और राजनीति उनसे बिना किसी सवाल के आज्ञाकारिता की मांग करती है, और ऐसा करते हुए, उन पर अमानवीय क्रूरता करती है, उन्हें केवल अधीनस्थ बना देती है. मीडिया में प्रतिदिन होने वाली घटनाएँ और मेरे द्वारा झेले गए व्यक्तिगत अनुभव मेरी प्रेरणा रहे हैं. इन महिलाओं का दर्द, पीड़ा और असहाय जीवन मेरे भीतर एक गहरी भावनात्मक प्रतिक्रिया पैदा करता है. मैं व्यापक शोध में संलग्न नहीं हूँ; मेरा हृदय ही मेरा अध्ययन का क्षेत्र है."
इस तरह से कन्नड़ लेखिका और वकील बानू मुश्ताक ने प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार 2025के लिए अपना नामांकन दाखिल करते समय अपनी पुस्तक हार्ट लैंप के बारे में लिखा.
बहुत से लोग इस तथ्य से अवगत नहीं हैं कि बानू मुश्ताक को भी कई महिलाओं, विशेष रूप से मुस्लिम समुदायों में, स्वतंत्रता के हनन का सामना करना पड़ा है. हालाँकि वह विश्वविद्यालय गई और अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी की, लेकिन जीवन उतना सुखद नहीं था जितना उसने सोचा था कि एक शिक्षित और मुक्त महिला के लिए होगा.
26 साल की उम्र में शादी करने के बाद, उन्हें यह जानकर झटका लगा कि उनसे सिर्फ़ एक गृहिणी बनकर रहने की उम्मीद की जाती थी, जो अपने घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहती थी और खुद को ढक कर रखती थी.
उन्होंने द वोग मैगज़ीन को बताया कि जब ज़्यादातर मुस्लिम महिलाएँ अपनी किशोरावस्था में शादी कर रही थीं, तब उन्होंने विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. वह पुरस्कार विजेता स्थानीय भाषा के अख़बार लंकेश पत्रिके की रिपोर्टर भी बनीं, बंदया साहित्य सहित कई विरोध साहित्यिक मंडलियों में कार्यकर्ता और अंततः एक वकील भी बनीं. वह दो बार नगर परिषद के लिए भी चुनी गईं.
उन्होंने द वोग को बताया, "मैं हमेशा से लिखना चाहती थी, लेकिन लिखने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था, क्योंकि अचानक, प्रेम विवाह के बाद, मुझे बुर्का पहनने और खुद को घरेलू कामों में समर्पित करने के लिए कहा गया. मैं 29साल की उम्र में प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित एक माँ बन गई."
बुकर पुरस्कार विजेता ने द वीक मैगज़ीन को बताया कि वह अपनी जान लेने के बारे में सोच रही थी और उसने अपने शरीर पर केरोसिन डाल लिया. जैसे ही वह माचिस जलाने वाली थी, उसका पति वहाँ पहुँच गया.
"शुक्र है कि उसने [पति ने] समय रहते इसे समझ लिया, मुझे गले लगाया और माचिस ले ली. उसने मुझसे विनती की, हमारे बच्चे को मेरे पैरों पर रखते हुए कहा, 'हमें मत छोड़ो'."
दीपा भस्थ द्वारा कन्नड़ से अनुवादित बानू मुश्ताक की हार्ट लैंप 2025में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार की विजेता है, जो अनुवादित कथा साहित्य के लिए दुनिया का सबसे प्रभावशाली पुरस्कार है. यह पुरस्कार पाने वाली लघु कथाओं का पहला संग्रह भी है, जिसकी घोषणा बेस्टसेलिंग बुकर पुरस्कार-सूचीबद्ध लेखक मैक्स पोर्टर ने मंगलवार, 20मई को लंदन के टेट मॉडर्न में की.
12 लघु कथाओं के संग्रह में, हार्ट लैंप दक्षिण भारत के पितृसत्तात्मक समुदायों में महिलाओं और लड़कियों के रोजमर्रा के जीवन का वर्णन करता है.
अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार की वेबसाइट कहती है कि 'यह अनुवाद के महत्वपूर्ण कार्य को मान्यता देता है, जिसमें £50,000 (INR 57.59लाख) की पुरस्कार राशि लेखक और अनुवादक के बीच समान रूप से विभाजित की जाती है.
1990 और 2023 के बीच लिखी गई, हार्ट लैंप की 12 कहानियाँ दक्षिण भारत के पितृसत्तात्मक समुदायों में महिलाओं और लड़कियों के जीवन का वर्णन करती हैं. मुश्ताक, एक वकील और प्रगतिशील कन्नड़ साहित्य के भीतर प्रमुख आवाज़, महिलाओं के अधिकारों की एक प्रमुख चैंपियन और भारत में जाति और धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ एक प्रदर्शनकारी हैं और उन्हें उन महिलाओं के अनुभवों से कहानियाँ लिखने की प्रेरणा मिली जो मदद माँगने उनके पास आई थीं.
हार्ट लैंप कन्नड़ भाषा से अनुवादित पहली पुस्तक है, जिसे पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है. कन्नड़ भाषा को अनुमानित 65मिलियन लोग बोलते हैं. दीपा भाष्थी अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय अनुवादक बनीं.
अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार 2025 के निर्णायकों के अध्यक्ष मैक्स पोर्टर ने कहा, 'हार्ट लैंप अंग्रेजी पाठकों के लिए वास्तव में कुछ नया है. एक क्रांतिकारी अनुवाद जो भाषा को उलझा देता है; अंग्रेजी की बहुलता में नई बनावट पैदा करता है. यह अनुवाद की हमारी समझ को चुनौती देता है और उसका विस्तार करता है. ..ये सुंदर, व्यस्त, जीवन-पुष्टि करने वाली कहानियाँ कन्नड़ से निकलती हैं, जो अन्य भाषाओं और बोलियों की असाधारण सामाजिक-राजनीतिक समृद्धि के साथ मिलती हैं. यह महिलाओं के जीवन, प्रजनन अधिकारों, आस्था, जाति, शक्ति और उत्पीड़न की बात करती है.
"यह वह किताब थी जिसे जजों ने पहली बार पढ़ने से ही बहुत पसंद किया. जूरी के अलग-अलग नज़रिए से इन कहानियों की बढ़ती हुई प्रशंसा को सुनना एक खुशी की बात है." मूल रूप से 1990और 2023के बीच कन्नड़ भाषा में प्रकाशित, बानू मुश्ताक के पारिवारिक और सामुदायिक तनावों के चित्र महिलाओं के अधिकारों की अथक वकालत करने और सभी प्रकार के जातिगत और धार्मिक उत्पीड़न का विरोध करने के उनके वर्षों की गवाही देते हैं."
इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ वेबसाइट के अनुसार, "मुश्ताक का लेखन एक साथ मजाकिया, जीवंत, मार्मिक और कटु है, जो एक समृद्ध बोली जाने वाली शैली से विचलित करने वाली भावनात्मक ऊंचाइयों का निर्माण करता है. यह उनके पात्रों में है - शानदार बच्चे, दुस्साहसी दादी, विदूषक मौलवी और ठग भाई, अक्सर असहाय पति, और सबसे बढ़कर माँएँ, जो बड़ी कीमत पर अपनी भावनाओं से बचती हैं - कि वह एक आश्चर्यजनक लेखिका और मानव स्वभाव की पर्यवेक्षक के रूप में उभरती हैं."
बानू मुश्ताक छह लघु-कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और एक कविता संग्रह की लेखिका हैं. उन्होंने अपने साहित्यिक कार्यों के लिए कर्नाटक साहित्य अकादमी और दाना चिंतामणि अत्तिमाबे पुरस्कार सहित कई प्रमुख पुरस्कार जीते हैं.
बानू मुश्ताक की कहानियों का भास्थी द्वारा किया गया अनुवाद अंग्रेजी पेन के ‘पेन ट्रांसलेट’ पुरस्कार का विजेता था. उन्होंने हार्ट लैंप के लिए अपनी प्रक्रिया को ‘उच्चारण के साथ अनुवाद’ कहा है, और वह अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय अनुवादक बनीं. दीपा ने कहा, “वह किताब जिसने दुनिया के बारे में मेरे सोचने के तरीके को बदल दिया.”