-114 साल पुराने नवाबी जायके के मुरीद हैं देश-विदेश में
मुकुंद मिश्र / लखनऊ
खान-पान का जिक्र हो और फिर लखनऊ का जिक्र न आए, ऐसा मुमकिन ही नहीं. मुगलिया जायके और अपनी लाजवाब लज्जत के लिए मशहूर नवाबी नगरी का नाम देश के चुनींदा शहरों के तौर पर नॉनवेज के शौकीनों की जुबां पर रहता है. और हो भी क्यों न... नवाबों के दौर से मुंह में घुल जाने और जेहन में बस जाने वाला जायका सौ से अधिक साल बीत जाने के बावजूद लोगों को अपना मुरीद बनाये हुए है. जी हां, टुंडे के कबाब आजकल टुंडे कबाबी के नाम से जाना जाता है, इन कबाब के दीवानों की जमात देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों तक में बसती है.
नॉनवेज खाने के शौकीनों में जितनी शोहरत लखनऊ के टुंडे कबाब ने पाई है, उतनी हैदराबादी बिरयानी या किसी और अन्य व्यंजन ने नहीं.
लखनऊ के टुंडे कबाब की दास्तां बीती सदी की शुरूआत से ही शुरू होती है और अब तक जारी है.
1905 में पहली बार लखनऊ के अकबरी गेट में एक छोटी सी दुकान शुरू हुई. इस दुकान के सामने देश भर के बड़े-बड़े खानसामे और फाइव स्टार होटलों के पकवान भी फीके हैं.
114 साल पुरानी दुकान पर लोग दूर-दूर से टुंडे खाने तो आते ही हैं, साथ ही वे ये भी देखना चाहते हैं, कि आखिर ऐसा क्या खास है इन टुंडे कबाबों में.
हाजी परिवार कई बरस पहले भोपाल से लखनऊ आ गया था और अकबरी गेट के पास गली में इस छोटी सी दुकान की शुरूआत की थी.
हाजी के इन कबाबों की शोहरत इतनी तेजी से फैली कि पूरे शहर-भर के लोग यहां कबाबों का स्वाद लेने आने लगे. इस शोहरत का ही असर था कि इन कबाबों को ‘अवध के शाही कबाब’ का दर्जा हासिल हुआ.
लखनऊ के टुंडे कबाब की बात करें, तो बीती सदी की शुरुआत से ही शुरू होती है और इस कबाब की असल इजाद तो उससे भी पहले लखनऊ से दूर भोपाल के नवाब की रसोई से हुई थी.
टुंडे कबाबी के मोहम्मद उस्मान के मुताबिक उनके पुरखे भोपाल के नवाब के यहां खानसामा हुआ करते थे. नवाब साहब खाने-पीने के बहुत शौकीन थे, लेकिन ढलती उम्र के साथ-साथ उनके दांतों ने उनका साथ छोड़ दिया. उन्हें खाने-पीने में दिक्कत होने लगी. बावजूद इसके नवाब साहब और उनकी बेगम का खानपान का शौक कम नहीं हुआ.
ऐसे में उनके लिए ऐसे कबाब बनाने का विचार किया गया, जिन्हें बिना दांत के भी आसानी से खाया जा सके, यानी मुंह में जाते ही वह घुल जायें. इसके लिए गोश्त को बेहद बारीक पीसकर और उसमें पपीते मिलाकर कबाब बनाया गया.
दांतों के साथ ही नवाब साहब व बेगम की सेहत को भी ध्यान में रखते हुए उसमें ऐसे मसालों को मिलाया गया, जो पेट दुरुस्त रखने में भी कारगर थे.
इसके बाद हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया और अकबरी गेट के पास गली में छोटी सी दुकान शुरू कर दी. हाजी के इन कबाबों की शोहरत इतनी तेजी से फैली कि पूरे शहर-भर के लोग यहां कबाबों का स्वाद लेने आने लगे.
टुंडे के कबाब की बात करें, तो इसे तैयार करने के लिए पूरे दो से ढाई घंटे लगते हैं. इन कबाबों की खासियत को नीम हकीम भी मानते हैं और पेट के लिए फायदेमंद होने की मुहर भी लगाते हैं.
बॉलीवुड स्टार शाहरूख खान तो टुंडे के कबाब के मुरीद हैं. उनके मुंबई स्थित घर मन्नत में कोई भी जलसा हो, वहां टुंडे कबाब बनाने वाले जरूर बुलाये जाते हैं.
बॉलीवुड के ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, अनुपम खेर, आशा भौंसले, सुरेश रैना जावेद अख्तर और शबाना आजमी भी इनके बड़े प्रशंसकों में शामिल हैं.
इन कबाबों के टुंडे नाम पड़ने के पीछे भी एक किस्सा है. दरअसल टुंडे का मतलब है, जिसका हाथ न हो. लखनऊ में टुंडे कबाब को पहचान देने वाले रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बहुत शौकीन थे.
एक बार की बात है पतंग के चक्कर में एक हादसा हो गया हौर उनका हाथ टूट गया, जिसे बाद में काटकर अलग करना पड़ा. अब हाथ गंवाने के साथ ही उनका पतंग का शौक भी काफूर हो गया.
मुराद अली पिता के साथ दुकान पर ही बैठने लगे. टुंडे होने की वजह से जो यहां कबाब खाने आते, वो टुंडे के कबाब बोलने लगे और किसी को इस दुकान की पहचान भी बताते, तो टुंडे कहकर ही. यहीं से इस दुकान का नाम पड़ गया टुंडे कबाब.
मोहम्मद उस्मान का कहना है कि यहां के कबाब में आज भी उन्हीं मसालों का इस्तेमाल किया जाता है, जो भोपाल के नवाबों के लिए तैयार किये जाने के दौरान होता था.
उन्होंने बताया कि कबाब के मसालों की रेसीपी कोई और न जान सके. इसलिए उन्हें अलग-अलग दुकानों से खरीदा जाता है. इसके बाद घर में ही एक बंद कमरे में पुरुष मेंबर उन्हें कूट और छानकर तैयार करते हैं.
इन मसालों में से कुछ तो ईरान और दूसरे देशों से भी मंगाए जाते हैं. कबाब की रेसिपी का यह रहस्य हाजी परिवार ने आज तक किसी को भी नहीं बताया, अपने परिवार की बेटियों तक को भी नहीं.
खास बात ये है कि अकबरी गेट पर शुरू हुई इस दुकान को पहले मुराद अली और उनके बाद रईस अहमद और अब मोहम्मद उस्मान चला रहे हैं.
हाजी जी के परिवार के अलावा और कोई दूसरा शख्स इसे बनाने की खास विधि और इसमें मिलाए जाने वाले मसालों के बारे में नहीं जानता है. यही कारण है, कि जो कबाब का जो स्वाद यहां मिलता है, वो पूरे देश में और कहीं नहीं. कबाब में सौ से ज्यादा मसाले मिलाये जाते हैं.
कबाब तो खास है ही, इसके अलावा इन कबाबों को जिन पराठों के साथ ही खाया जाता है, उन्हें भी स्पेशल तरीके से तैयार किया जाता है. पराठे भी ऐसे वैसे नहीं मैदा में घी, दूध, बादाम और अंडा मिलाकर तैयार किए जाते हैं.
टुंडे कबाबों की मशहूरियत भले ही पूरी दुनिया में हो, लेकिन हाजी परिवार ने इनकी कीमतें आज भी ऐसी रखी हैं कि आम या खास किसी की जेब पर ज्यादा असर नहीं पड़ता. परिवार का ध्यान दौलत से ज्यादा शोहरत कमाने पर रहा.
एक समय ऐसा भी था, जब एक पैसे में दस कबाब मिलते थे. फिर कीमतें बढ़ने लगीं, तो लोगों को दस रुपये में भर पेट खिलाते थे.