हर—दिल—अज़ीज़ गायक मो. रफ़ी का जन्मदिवस: जब रफ़ी ने फ़िल्मों में गायकी छोड़ दी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 24-12-2022
हर—दिल—अज़ीज़ गायक मो. रफ़ी का जन्मदिवस: जब रफ़ी ने फ़िल्मों में गायकी छोड़ दी
हर—दिल—अज़ीज़ गायक मो. रफ़ी का जन्मदिवस: जब रफ़ी ने फ़िल्मों में गायकी छोड़ दी

 

ज़ाहिद ख़ान

हर-दिल-अज़ीज़ गायक मोहम्मद रफ़ी की ज़िंदगी में एक दौर ऐसा भी आया था, जब वे कुछ अरसे के लिए फ़िल्मों से दूर हो गए थे. उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाना बंद कर दिया था. वजह, साल 1971में रफ़ी साहब हज़ पर गए थे. जब वह वहाँ से लौटने लगे, तो कुछ मौलवियों और उलेमाओं ने उनसे कहा, ‘‘अब आप हाज़ी हो गए हैं. लिहाज़ा आपको फ़िल्मों में नहीं गाना चाहिए.’’ मो. रफी यह बात मान भी गए और वाक़ई भारत लौटकर, उन्होंने गाने गाना बंद कर दिया.

उनके इस फ़ैसले से उनके चाहने वालों को बड़ी निराशा हुई. सभी ने उनसे मिन्नतें कीं, वे गाने गाना दोबारा शुरू कर दें. आख़िरकार नौशाद साहब ने उन्हें समझाया, ‘‘गाना छोड़ कर ग़लत कर रहे हो मियां. ईमानदारी का पेशा कर रहे हो, किसी का दिल नहीं दुखा रहे. यह भी एक इबादत है. अब बहुत हो गया, अब गाना शुरू कर दो.’’ तब रफ़ी साहब ने फिर से गाना शुरू किया. अपनी इस वापसी के बाद रफ़ी ने ’हम किसी से कम नहीं’, ’यादों की बारात’, ‘अभिमान’, ‘बैराग’, ‘लोफ़र’, ‘लैला मजनूं’, ‘सरगम’, ‘दोस्ताना’, ‘अदालत’, ‘अमर, अकबर, एंथनी’, ‘कुर्बानी’ और ‘क़र्ज़’ जैसी कई फ़िल्मों के लिए बहुत से यादगार गीत गाए.

मो. रफ़ी ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हज़ारों गीत गाये और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के क़दम वहीं ठिठक कर रह जाते हैं. उनकी मीठी आवाज़ जैसे कानों में रस घोलती है. दिल में एक अजब सी कैफ़ियत पैदा हो जाती है. हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले मो. रफ़ी की पैदाइश 24दिसंबर, 1924को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी.

उनके परिवार का संगीत से कोई ख़ास सरोकार, लगाव नहीं था. मो. रफ़ी ने ख़ुद इस बात का ज़िक्र अपने एक लेख में किया था. उर्दू के मकबूल रिसाले ‘शमां’ में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने लिखा है,‘‘मेरा घराना मज़हबपरस्त था. गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था. मेरे वालिद हाज़ी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे. उनका ज़्यादा वक़्त यादे-इलाही में गुजरता था. मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था.

ज़ाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप-छिप कर किया करता था. दरअसल, मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फ़ाज़ में गायकी के शौक की तर्बियत (सीख) एक फकीर से मिली थी. ‘‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार’’ यह गीत गाकर, वह लोगों को दावते-हक़ दिया करता था.

जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था.’’ बहरहाल, उस फकीर ने रफ़ी साहब की गीतों के जानिब इस दीवानगी और जुनून को देखते हुए दुआ दी कि ‘‘यह लड़का आगे चलकर ख़ूब नाम कमाएगा.’’ साल 1935में मो. रफी के अब्बा ग़म-ए-रोजगार की तलाश में लाहौर आ गए. मो. रफ़ी की गीत-संगीत की चाहत यहां भी बनी रही. मो. रफ़ी की गायकी को सबसे पहले उनके घर में बड़े भाई मोहम्मद हमीद और उनके एक दोस्त ने पहचाना.

इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए, उन्होंने रफ़ी को बक़ायदा संगीत की तालीम दिलाई. उस्ताद अब्दुल वाहिद ख़ान, उस्ताद उस्मान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फ़िरोज़ निज़ामी और उस्ताद गुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से उन्होंने गीत-संगीत का ककहरा सीखा. राग-रागनियों पर अपनी कमान बढ़ाई. जो आगे चलकर फ़िल्मी दुनिया में उनके बहुत काम आया. आलम यह था कि मुश्किल से मुश्किल गाना, वे सहजता से गा लेते थे.

मोहम्मद रफ़ी ने अपना पहला नग़मा साल 1941में महज सतरह साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकोर्ड किया था, जो साल 1944में रिलीज हुई. इस फ़िल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’. संगीतकार श्याम सुंदर ने ही मो. रफ़ी को हिंदी फ़िल्म के लिए सबसे पहले गवाया. फ़िल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945में रिलीज हुई.

उस वक़्त भी हिंदी फ़िल्मों का मुख्य केन्द्र बम्बई ही था. लिहाज़ा अपनी क़िस्मत को आजमाने मो. रफ़ी बम्बई पहुंच गए. उस समय संगीतकार नौशाद ने फ़िल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे. उनके वालिद की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफ़ी, बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे. नौशाद साहब ने रफ़ी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए. फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया.

नौशाद के संगीत से सजी ’अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फ़िल्म थी, जिसके गीत ’‘तेरा ख़िलौना टूटा’’ से रफ़ी को काफ़ी शोहरत मिली. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ’मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में’’, जो सुपर हिट साबित हुआ. इस गीत के बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद रफ़ी की जोड़ी बन गई.

इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए. साल 1951में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत तो नेशनल एंथम बन गए. ख़ास तौर पर इस फ़िल्म के ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ गानों में नौशाद और मोहम्मद रफ़ी की जुगलबंदी देखते ही बनती है. नौशाद के लिए मो.रफ़ी ने तक़रीबन 150से ज़्यादा गीत गाए. उसमें भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित जो गीत गाए, उनका कोई मुक़ाबला नहीं. मसलन ’‘मधुबन में राधिका नाचे रे’’ (फ़िल्म कोहिनूर)

1950और 60के दशक में मोहम्मद रफ़ी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों के साथ सैंकड़ो गाने गाए. एक दौर यह था कि मो. रफ़ी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे. उनके गीतों के बिना कई अदाकार फ़िल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे. फ़िल्मी दुनिया में मो. रफ़ी जैसा वर्सेटाइल सिंगर शायद ही कभी हो. उन्होंने हर मौके, हर मूड के लिए गाने गाए.

ज़िंदगी का ऐसा कोई भी वाक़िया नहीं है, जो उनके गीतों में न हो. मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं. ‘‘मेरा यार बना है दूल्हा’’, ‘‘आज मेरे यार की शादी है’’, ‘‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’’, ‘‘बाबुल की दुआएं लेती जा’’ और ‘‘चलो रे डोली उठाओं कहार’’. हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग. जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है.

मोहम्मद रफ़ी, फ़िल्मी दुनिया में अपने करियर की शुरुआत में कुंदन लाल सहगल, जीएम दुर्रानी और तलत महमूद की गायकी के प्रशंसक रहे. शुरू की फ़िल्मों में उन्होंने उनकी गायन शैली को अपनाया, लेकिन बाद में अपना ख़ुद का एक स्टाइल बना लिया. वे खुद ही दूसरे गायकों के लिए आईकॉन बन गए. मोहम्मद रफ़ी अपने पेशे के लिए बहुत ही समर्पित इंसान थे. शोहरत की बुलंदियों को छूने के बाद भी कभी कोई बुरा शौक उन्हें कभी छू नहीं पाया.

फ़िल्मों में तरह-तरह के गीत गाने वाले रफ़ी अपनी आम ज़िंदगी में कम ही बोलते थे. इंटरव्यू और फ़िल्मी पार्टियों से दूर रहते. हँसमुख और दरियादिल ऐसे कि हमेशा सबकी मदद के लिये तैयार रहते थे. मो. रफ़ी ने सैकड़ों फ़िल्मों के लिए गाने गाये लेकिन ख़ुद उन्हें फ़िल्में देखने का बिल्कुल शौक नहीं था. परिवार के साथ कभी उनकी ज़िद पर कोई फ़िल्म देखने जाते, तो फ़िल्म के दौरान सो जाते.

अपने परिवार और ख़ास दोस्तों के साथ बैडमिंटन, कैरम खेलना और पतंग उड़ाना उनके मुख्य शौक थे. मो. रफ़ी ने हज़ारों नग़में गाये, लेकिन उन्हें फ़िल्म ‘दुलारी‘ में गाया गीत ‘‘सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे.’’ बहुत पसंद था. यह उनका पसंदीदा गीत था. 1970 के दशक में मो. रफ़ी ने कई लाइव संगीत कार्यक्रमों में अपने गीतों का प्रदर्शन किया. इसके लिए वे पूरी दुनिया घूमे.

मोहम्मद रफ़ी के यह सभी लाइव शो कामयाब साबित हुए. दुनिया भर में फैले मो. रफ़ी के प्रशंसक उनके गीतों के जैसे दीवाने थे. आज भी अपने देश से ज़्यादा उनके प्रशंसक, पूरी दुनिया में फैले हुए हैं. ऐसी शोहरत बहुत कम लोगों को नसीब होती है.