ढाई चाल : मंच पर नए अध्यक्ष की एंट्री

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 02-10-2022
ढाई चाल : मंच पर नए अध्यक्ष की एंट्री
ढाई चाल : मंच पर नए अध्यक्ष की एंट्री

 

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पिछले तकरीबन एक दशक में भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रभाव को काफी विस्तार दिया है. सत्ता पर तो खैर वह पूरे जोर शोर से काबिज हुई ही है, लेकिन एक चीज ऐसी है जिसमें वह कांग्रेस पार्टी से अभी भी काफी पीछे है. वह  है पार्टी के अंदर की नाटकीयता. किसी भी बड़े फैसले से पहले कांग्रेस में बहुत बड़ा ड्रामा खेला जाना कोई नई बात नहीं .

जब सीताराम केसरी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया गया था, उन घटनाओं के सामने तो पिछले हफ्ते जो दिल्ली में हुआ वह कुछ भी नहीं . या थोड़ा और पहले जाएं तो वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनाने के लिए जो ड्रामा हुआ.
 
पार्टी के ऐसे कारनामों की फेहरिस्त बहुत लंबी है. इनसे से पार्टी जो मीडिया स्पेस हासिल करती है उसका मुकाबला कोई बड़े से बड़ा इवेंट मैनेजर भी नहीं कर सकता.
 
पिछले एक डेढ़ हफ्ते में ऐसे ही प्रहसन ने पहले देश के लोगों का मनोरंजन किया. फिर यह पता पड़ा कि कर्नाटक के कद्दावर नेता मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस पार्टी के अगले अध्यक्ष होंगे.
 
हालांकि अभी बाकायदा चुनाव होना है. उसमें खड़गे का मुख्य मुकाबला शशि थरूर से होगा. वैसे एक झारखंड के केएन त्रिपाठी भी मैदान में हैं. फिर नामांकन वापसी की तारीख भी बाकी है. लेकिन अब खड़गे का पार्टी अध्यक्ष होना तकरीबन तय माना जा रहा है.
 
खड़गे में वह सब कुछ है जो कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए जरूरी होता है. उनकी एक अतिरिक्त अहर्ता यह है कि वे दलित हैं. यानी वे एक ऐसे जातीय वर्ग से आते हैं जिसने कांग्रेस का पल्ला बरसों पहले छोड़ दिया था.
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वोट बैंक की इन उम्मीदों के अलावा भी वे हर तरह से योग्य हैं, जाना पहचाना नाम हैं. ढेर सारे चुनाव जीते हैं. पार्टी आला कमान के विश्वस्थ हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि उनके नाम से बहुत ज्यादा विवाद नहीं जुड़े.
 
उनकी यह आखिरी खूबी ऐसी है जो अशोक गहलौत या दिग्विजय सिंह के साथ नहीं थी. बहुत सारी योग्यताएं होते हुए भी वे आखिर में किसी गुट के नेता ही थे. तमाम उम्र गुटबाजी करने वाले से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि पार्टी अध्यक्ष के चुने जाने के तुरंत बाद वह किसी संत की तरह तटस्थ हो जाएगा. पंच परमेश्वर की तरह बर्ताव करने लगेगा.

खड़गे के बारे में एक बात यह कही जा रही है कि वे दक्षिण भारत के नेता हैं, जबकि कांग्रेस की असली कमजोरी उत्तर भारत में है. यह सच है. लेकिन आज की कांग्रेस की दिक्कत यही है कि उत्तर भारत में अब उसके पास ज्यादातर पिटे-पिटाए नेता ही बचे हैं. 
 
उत्तर भारत में उसके पास बहुत से नेता हैं. लेकिन उनमें कोई मल्लिकार्जुन खड़गे नहीं हैं.ठीक यहीं पर हमें कांग्रेस के उस दक्षिण भारतीय नेता को याद कर लेना चाहिए जो आजादी के बाद के कांग्रेस के सबसे दमदार अध्यक्ष थे.
 
वे थे के कामराज. उन्होंने कांग्रेस संगठन में जिस तरह का बदलाव किया वैसे बदलाव अगर बाद में किए गए होते तो शायद पार्टी को आज ये दिन न देखने पड़ते.
 
कामराज न हिंदी जानते थे. न अंग्रेजी. पार्टी के ज्यादातर नेताओं के साथ उनका खुलकर संवाद भी नहीं हो पाता था. अक्सर वे इशारों और भाव भंगिमाओं से काम निपटा दिया करते थे.
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उनके बारे में  कहा जाता था कि उन्होंने कांग्रेस संगठन को उसी तरह अपने बस में कर लिया था, जैसे कभी कालीदास ने विद्योत्तमा को किया था.हालांकि आज की कांग्रेस विद्योत्तमा नहीं है. न ही खड़गे कामराज हैं.
 
वे कन्नड़ के अलावा हिंदी और अंग्रेजी भी अच्छी तरह बोलते और समझते हैं. यह मानने का कोई कारण नहीं कि वे दक्षिण भारत में तो प्रभावी होंगे और उत्तर भारत में नहीं.
 
बेशक यह सवाल अपनी जगह है कि कांग्रेस में आला कमान की जो लंबी परंपरा है और वहां काम करने की जो संस्कृति बन गई है, उसमें नया अध्यक्ष वास्तव में कितना प्रभावी हो सकेगा ? हो भी सकेगा या नहीं ?
 
( स्तंभकार वरिष्ठ पत्रकार है. )