सैकड़ों अंग्रेजों की नाक काटी थी कादिर उर्फ कादू मकरानी ने

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 06-08-2021
कादू मकरानी की कब्र (सौजन्य से मीर बलूच विकिपीडिया)
कादू मकरानी की कब्र (सौजन्य से मीर बलूच विकिपीडिया)

 

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साकिब सलीम

एक इतिहासकार होने का मजा यह है कि आप सबसे असामान्य स्रोतों से एक तथ्य पर अटकते हैं और फिर उसमें से एक अनकही कहानी निकाल सकते हैं.

कुछ साल पहले, मैं विज्ञान के विकास में भारत द्वारा निभाई गई भूमिका को समझने के लिए पी. सैंटोनी-रुगिउ और पी.जे साइक्स द्वारा लिखित ‘हिस्ट्री ऑफ प्लास्टिक सर्जरी’ पढ़ रहा था. मैं जो खोज रहा था, उसके सबूत मिले. हालाँकि, राइनोप्लास्टी (नाक पुनर्निर्माण सर्जरी) के विकास पर अध्याय को पढ़ते हुए, मुझे जूनागढ़ के डॉ त्रिभुवनदास शाह का योगदान मिला और यह कुछ ऐसा था, जिसके बारे में दुनिया को बताने की जरूरत थी.

1880 के दशक के मध्य से 1900 के आसपास तक, इस डॉक्टर ने 300 से अधिक राइनोप्लास्टी सफलतापूर्वक कीं थी. संख्या असामान्य रूप से अधिक थी. जबकि अधिकांश डॉक्टरों ने अपने जीवन में ऐसे एक दर्जन मामले भी नहीं देखे होंगे, जबकि त्रिभुवनदास ने ऐसे सैकड़ों रोगियों के ऑपरेशन किए, जिन्हें नाक सुधार की सर्जरी की आवश्यकता थी. अब, भारत में प्लास्टिक सर्जरी के इतिहास से कहीं अधिक, मैं एक ही डॉक्टर द्वारा की गई इस असामान्य रूप से सबसे ज्यादा सर्जरी के पीछे का रहस्य जानना चाहता था.

मेरी खोज मुझे एक पुस्तकालय में ले गई. मुझे 1889 में प्रकाशित डॉ. त्रिभुवनदास की राइनोप्लास्टी नामक पुस्तक मिली. उस समय तक उन्होंने 100 सर्जरी की थीं. त्रिभुवनदास को पहले से ही इस सर्जरी के अग्रणी के रूप में दुनिया भर में स्वीकार किया जा रहा था. किताब में उन्होंने जूनागढ़ के मकरानी डाकू के बारे में लिखा है. इस नाम की और खोज करने पर मुझे एक महान ब्रिटिश विरोधी क्रांतिकारी कादू कादू मकरानी उर्फ कादिर बख्श रिंद बलोच के बारे में पता चला.

मैंने जो पाया, वह एक आदिवासी नेता का दबा हुआ इतिहास था, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपनी मातृभूमि की सेवा में अपना जीवन लगा दिया.

कादू मकरानी बलूचिस्तान के मकरान के रहने वाले थे. जैसे-जैसे अंग्रेजों ने अपने क्षेत्रों का विस्तार करना शुरू किया, उन्होंने जनजातियों का भी शोषण किया. अंग्रेजों ने उनकी प्रथाओं को नीचा दिखाया. कादू के नेतृत्व में मकरानी आदिवासी गुजरात के काठियावाड़ की ओर चले गए, जहां स्थानीय शासकों पर पहले से ही अंग्रेजों का नियंत्रण था. कादू ने देखा कि अपने औपनिवेशिक आकाओं की मांगों को पूरा करने के लिए स्थानीय शासक अपने ही लोगों का शोषण कर रहे थे. कादू ने अपने कबीले को सशस्त्र गिरोहों में संगठित किया और गरीब किसानों और कारीगरों को ज्यादतियों से बचाने की ठान ली.

स्थानीय शासकों के खजाने को निशाना बनाया गया. जूनागढ़ के आम लोगों के बीच बांटने के लिए ब्रिटिश वफादारों के अन्न भंडार लूट लिए गए. इस बीच, अंग्रेजों और औपनिवेशिक हितों की सेवा करने वाले भारतीयों को दंडित किया गया. कादू मकरानी ने उन्हें नहीं मारा. वह सिर्फ उनकी नाक काट लेते थे. जैसा कि भारतीयों का मानना है कि नाक का कटना सम्मान का एक प्रतीकात्मक नुकसान था. यह वो नाक काटने की सजा ही थी, जिसने त्रिभुवनदास को राइनोप्लास्टी में अग्रणी बना दिया.

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पत्थर जिसने कादू मकराणी को मारा


कादू अंग्रेजों के लिए सिरदर्द था और उन्होंने उन पर रुपये के इनाम की घोषणा की. उन्हें पकड़ने के लिए 1,000 रुपए और 20 एकड़ जमीन के इनाम का ऐलान किया गया. एक बार जब कादू गुजरात से बलूचिस्तान जा रहे थे, तो एक शख्स ने उनके बारे में जानकारी लीक कर दी. ब्रिटिश सेना उसे पकड़ तो नहीं पाई, लेकिन एक पत्थर उनके सिर में लग गया और वह बेहोश हो गये. बाद में, कादू को अंग्रेजों ने उनके खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए फांसी पर लटका दिया था. उनके समर्थक आदिवासियों ने उनकी मृत्यु के बाद भी नाक काटने की प्रथा को जारी रखा और नकटे मरीज त्रिभुवनदास के क्लिनिक में आते रहे.

आज भी गुजरात में इस बारे में एक कहावत मशहूद है - ‘कादू नाक काट लेता है, लेकिन त्रिभुवनदास उसे फिर जोड़ देता है.’ गुजरात में, कादू अभी भी लोक गीतों में जीवित हैं. 1960 में कादू के जीवन पर एक फिल्म भी बनी थी.

(साकिब सलीम एक इतिहासकार और लेखक हैं.)