नई दिल्ली
उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा की उस याचिका को गुरुवार को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ चल रही आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को अमान्य ठहराने की मांग की थी। यह रिपोर्ट दिल्ली स्थित उनके आधिकारिक आवास के स्टोर रूम से अधजली नकदी की बरामदगी के मामले में तैयार की गई थी, जिसमें उन्हें कदाचार का दोषी ठहराया गया है।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ए. जी. मसीह की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायमूर्ति वर्मा का आचरण विश्वास से परे है और इस याचिका को सुनवाई योग्य नहीं माना जा सकता।
अदालत ने कहा कि जांच प्रक्रिया के दौरान वर्मा ने फोटो या वीडियो फुटेज के अपलोड होने पर कभी आपत्ति नहीं जताई और बिना विरोध के जांच में सहयोग किया। 6 मई को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना को दिए गए अपने पत्र में भी उन्होंने यह नहीं कहा कि जांच प्रक्रिया असंवैधानिक है।
पीठ ने कहा कि एक न्यायाधीश का आचरण हर स्तर पर संदेह से परे होना चाहिए। न्यायमूर्ति वर्मा द्वारा की गई याचिका में कोई ठोस आधार नहीं है और आंतरिक जांच समिति की प्रक्रिया संविधान के अनुरूप ही थी।
“यह कहना गलत है कि यह कोई समानांतर या संविधानेतर प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया अनुच्छेद 141 के अंतर्गत पूरी तरह कानूनी है और इसका उद्देश्य न्यायिक व्यवस्था की शुचिता बनाए रखना है,” — सुप्रीम कोर्ट।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, 14 मार्च को दिल्ली स्थित वर्मा के सरकारी आवास के स्टोर रूम में लगी आग के बाद अधजली नोटों की गड्डियाँ बरामद हुई थीं। जांच समिति ने पाया कि स्टोर रूम पर न्यायमूर्ति वर्मा और उनके परिवार का नियंत्रण था और वहां मिली नकदी का सीधा संबंध उनसे जुड़ता है।
इस पर समिति ने कहा कि यह गंभीर कदाचार का मामला है और न्यायमूर्ति वर्मा को पद से हटाया जाना चाहिए।
जांच की अध्यक्षता पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश शील नागू ने की। तीन सदस्यीय समिति ने 10 दिन तक गहन जांच, 55 गवाहों से पूछताछ, और घटनास्थल का निरीक्षण किया। जांच के निष्कर्षों के आधार पर प्रधान न्यायाधीश ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट भेजते हुए महाभियोग की सिफारिश की।
न्यायमूर्ति वर्मा की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने समिति की जांच को "संविधानेतर और समानांतर तंत्र" बताया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि यह संविधान के तहत मान्य प्रक्रिया है और संसद के अधिकार क्षेत्र को प्रभावित नहीं करती।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि न्यायमूर्ति वर्मा के किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है। उन्हें समिति के समक्ष अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर मिला था। हालांकि, अदालत ने यह छूट दी कि यदि उनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू होती है, तो वे वहां अपनी बात रख सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अधिवक्ता मैथ्यूज जे नेदुम्पारा द्वारा दायर वह याचिका भी खारिज कर दी जिसमें न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई थी।
यह निर्णय न्यायपालिका की निष्पक्षता और जवाबदेही के प्रति सर्वोच्च न्यायालय की गंभीरता को दर्शाता है। न्यायमूर्ति वर्मा की याचिका की अस्वीकृति से यह संदेश स्पष्ट है कि न्यायपालिका के भीतर कदाचार या भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे वह कितना भी उच्च पद पर क्यों न हो।