आवाज द वाॅयस /नई दिल्ली
जैसे-जैसे भारतीय फुटबॉल का स्तर लगातार ऊंचा उठ रहा है, वैसे-वैसे यह मांग भी तेज हो गई है कि कोचिंग का एक मजबूत ढांचा देश की अपनी फुटबॉल संस्कृति पर आधारित हो। इसी दिशा में एक ऐतिहासिक कदम तब देखने को मिला जब खालिद जमील को भारतीय पुरुष फुटबॉल टीम का मुख्य कोच नियुक्त किया गया। वे 2012 के बाद पहले भारतीय हैं जिन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई है, और यह बदलाव न सिर्फ प्रतीकात्मक है, बल्कि यह एक मजबूत संदेश भी देता है कि अब देश घरेलू प्रतिभा पर भी भरोसा कर रहा है।
भारतीय कोचों की बात करें तो सबसे बड़ा नाम आज भी सैयद अब्दुल रहीम का ही लिया जाता है। उन्होंने 1951 से 1962 के बीच भारतीय टीम को कोचिंग दी और इस दौरान भारत को दो एशियन गेम्स (1951 व 1962) में स्वर्ण पदक दिलाया और 1956 ओलंपिक में भारत को चौथा स्थान दिलवाया, जो अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। रहीम की रणनीतिक समझ और प्रयोगों ने भारत को ‘एशिया का ब्राजील’ कहा जाने लगा। उनकी कोचिंग शैली में नवाचार था — जैसे कमजोर पैर से खेलने वाले टूर्नामेंट आयोजित कराना ताकि खिलाड़ियों की समग्र दक्षता बढ़े।
इसके बाद सुखविंदर सिंह ने भारतीय फुटबॉल में अहम योगदान दिया। उन्होंने न सिर्फ 1999 में SAFF चैंपियनशिप जितवाई बल्कि 2002 फीफा विश्व कप क्वालीफायर में भारत को इतिहास के सबसे बेहतरीन प्रदर्शन तक पहुंचाया। उन्हीं के मार्गदर्शन में सुनील छेत्री को 2005 में पहली बार राष्ट्रीय टीम में शामिल किया गया।
तीन बार भारतीय टीम के कोच रहे नायमुद्दीन भी उपलब्धियों से पीछे नहीं रहे। उन्होंने 1987 में सहायक कोच रहते हुए भारत को दक्षिण एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक दिलाया और फिर 1997 व 2005 में SAFF चैंपियनशिप में जीत दिलाई। उन्होंने फिटनेस, अनुशासन और आहार को टीम कल्चर में शामिल किया और अपने सख्त लेकिन असरदार कोचिंग स्टाइल से टीम को नई दिशा दी।
इसी क्रम में सावियो मेडेइरा का नाम भी उल्लेखनीय है, जिन्होंने सहायक कोच से मुख्य कोच बनने की यात्रा पूरी की। 2011 में उन्होंने SAFF चैंपियनशिप में भारत को खिताबी जीत दिलाई, हालांकि 2012 AFC चैलेंज कप में टीम ग्रुप स्टेज से आगे नहीं बढ़ सकी।
खालिद जमील की नियुक्ति इस बात का संकेत है कि भारतीय फुटबॉल अब घरेलू कोचिंग टैलेंट को वैश्विक मंच पर मौका देने के लिए तैयार है। यह बदलाव न सिर्फ प्रेरणादायक है, बल्कि भारतीय फुटबॉल के भविष्य के लिए भी एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है, जहां विदेशी अनुभव की चकाचौंध के बीच घरेलू प्रतिभा को उसका उचित सम्मान और अवसर दिया जा रहा है।