नई दिल्ली
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली और जर्मनी के फ्रेडरिक शिलर विश्वविद्यालय जेना (एफएसयू जेना) के शोधकर्ताओं ने एक संयुक्त अध्ययन में पाया है कि भले ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) आधारित आधुनिक मॉडल बुनियादी वैज्ञानिक कार्यों को कुशलता से अंजाम दे सकते हैं, लेकिन उनमें अब भी वैज्ञानिक सोच और तर्क की स्पष्ट कमी है।
यह शोध प्रतिष्ठित ‘नेचर कम्प्यूटेशनल साइंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन में बताया गया है कि ये अग्रणी एआई मॉडल रसायन विज्ञान और पदार्थ विज्ञान जैसे क्षेत्रों के कुछ बुनियादी कार्यों को अच्छी तरह संभाल सकते हैं, लेकिन बिना मानवीय निगरानी के इन्हें अनुसंधान के गंभीर वातावरण में लागू करना जोखिमपूर्ण हो सकता है।
आईआईटी दिल्ली के एसोसिएट प्रोफेसर एनएम अनूप कृष्णन और एफएसयू जेना के प्रोफेसर केविन माइक जब्लोंका की अगुवाई में एक शोध टीम ने “मैकबेंच” नामक एक व्यापक मूल्यांकन उपकरण (बेंचमार्क) विकसित किया है। यह दुनिया का पहला ऐसा परीक्षण मानदंड है, जो यह जांचने के लिए तैयार किया गया है कि विजुअल-लैंग्वेज मॉडल वास्तविक जीवन की वैज्ञानिक समस्याओं से कैसे निपटते हैं।
प्रो. कृष्णन ने कहा,"हमारे निष्कर्ष वैज्ञानिक समुदाय के लिए एक जरूरी चेतावनी हैं। इन एआई मॉडल्स में बेशक डेटा प्रोसेसिंग की शानदार क्षमता है, लेकिन ये अभी 'स्वायत्त वैज्ञानिक निर्णय' लेने में सक्षम नहीं हैं।"
उन्होंने यह भी जोड़ा कि एआई मॉडल का प्रदर्शन इंटरनेट पर उपलब्ध डेटा की मात्रा पर निर्भर करता है, जिससे यह संकेत मिलता है कि ये मॉडल गहरी वैज्ञानिक समझ के बजाय सिर्फ पैटर्न की पहचान पर अधिक भरोसा करते हैं।
आईआईटी दिल्ली के पीएचडी शोधार्थी इंद्रजीत मंडल ने कहा कि यह अध्ययन मौजूदा एआई प्रणालियों की क्षमताओं और सीमाओं दोनों को उजागर करता है। उन्होंने कहा,
"ये मॉडल सामान्य और दोहराए जाने वाले कार्यों के लिए उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन जहां गहन विश्लेषण और सुरक्षा से जुड़े निर्णय हों, वहां अब भी मानव विशेषज्ञता और निगरानी की आवश्यकता बनी हुई है।"
यह अध्ययन वैज्ञानिक अनुसंधान में एआई की भूमिका को लेकर एक महत्वपूर्ण चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है – जो बताता है कि तकनीकी चमत्कारों के बावजूद, मानव विवेक और तर्कशक्ति की जगह एआई नहीं ले सकता।