आगरा के मुगलई आतिशबाजों का जवाब नहीं, आसमान में बना देते हैं कोई भी तस्वीर

Story by  फैजान खान | Published by  [email protected] | Date 22-10-2022
आगरा के धौर्रा गांव में पटाखे बनाती महिलाएं
आगरा के धौर्रा गांव में पटाखे बनाती महिलाएं

 

फैजान खान / आगरा

दीपावली के त्योहार पर घर रोशन होते हैं, तो आसमान भी आतिशबाजी से गुलजार हो जाते हैं. बच्चों से लेकर बड़े तक पटाखा चलाते हैं. इसे लेकर अभी से तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. इन सबके बीच एक बड़ा सवाल है, जिन पटाखों से दीवाली को जगमग करते हैं, उनकी शुरूआत कैसे और कब हुई.

बहुत से लोगों को इस बारे में जानकारी नहीं होगी लेकिन आपको बता दें कि इस फील्ड में भी शहर-ए-अकबराबाद यानी आगरा ने अहम रोल अदा किया है. इस आतिशबाजी को बेहतरीन बनाने में मुगलों ने की कोशिशें भी अहम हैं. अगर शासन इस आतिशबाजी के व्यापार पर ध्यान देना शुरू कर दे, तो यहां के कारीगर शिवाकाशी को भी इस मामले में पीछे छोड़ देंगे.

आतिशबाजी की शुरूआत को हजारों वर्ष पहले बताया जाता है, लेकिन मुगलों ने इसे और ज्यादा खूबसूरत और मजबूत बनाया. मुगल बादशाह जहीरउदृदीन मोहम्मद बाबर ने जब दिल्ली पर हमला किया, तो उसके पास बेहतरीन तोपखाना था, जिसकी बदौलत हिंदुस्तान में मुगल हुकूमत की शुरूआत हुई. मुगलों के तोपखाने के लिए जो कारीगर गोला-बारूद बनाते थे, उनके वंशज ही आज भी आतिशबाजी बनाने का काम करते हैं.

धोर्रा, पैंतीखेड़ा में होता है आतिशबाजी का काम

मुगलों के तोपखाने के लिए जो कारीगर गोला-बारूद बनाते हैं उनके वंशज आज भी आतिशबाजी के काम में लगे हैं. आगरा 20 किमी दूर एत्मादपुर के धौर्रा गांव में घर-घर पटाखे बनते हैं. नगला खरगा में भी मुस्लिम कारीगर पटाखे बनाते हैं. महिलाएं भी आतिशबाजी बनाने का काम करती हैं. वहीं थाना डोकी के पैंतीखेड़ा में भी लोग पटाखा बनाने का काम किया जाता है. अगर पूरे आगरा जिले की बात करें, तो तीन हजार से अधिक कारीगर हैं, जो इन पटाखों को बनाते हैं.

आगरा में भी लुप्पी वाले आइटम

चमन मंसूरी कहते हैं कि आगरा में एक से बढ़कर एक आइटम बनते हैं. आगरा वाले वो चीजें बना सकते हैं, जो शिवाकाशी वाले कभी नहीं बना सकते. हमारे पास मुगलों के दौर की कला है, जो तोपखाने में इस्तेमाल होती थी.

शिवाकाशी में स्काई शॉट, मल्टी कलर बॉक्स, बुलेट बम, अनार, लड़ी फुलझड़ी, रॉकेट आदि बनते हैं, जबकि आगरा में इन आइटमों के अलावा लुप्पी वाले आइटम बहुत बनते हैं, जो और कहीं नहीं बनते. इन आइटम से आसमान पर किसी की भी आकृति को बनाया जा सकता है.

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चमन मंसूरी 


मुगल फायर वर्क्स के संचालक चमन मंसूरी कहते हैं कि ये आतिशबाजी का काम हमें हमारे पूर्वजों से मिला है. इसको करते हुए हमारी नौवीं पीढ़ी है. हमारे बुजुर्ग पहले मुगलों के तोपखाने में तैनात थे. बादशाह अकबर की ओर से हमें ताजगंज में मकान भी मिला था, जो आज भी हमारे पास है. पहले गोदाम यमुना किनारे होते थे और यहां से बनकर दूसरे शहरों में जाते थे.

आतिशबाज शाहिद मंसूरी ने कहा कि मुगल दौर में आगरा में बहुत बड़ा तोपखाना होता था. मुगलों ने ही आतिशबाजी की शुरूआत की थी. हमारे बुजुर्गों ने भी मुगलों के तोपखानों में काम किया. तो हम भी सीख गए. अगर सरकार इस को बढ़ावा दे तो आगरा के कारीगर पटाखों के हब कहे जाने वाले शिवा काशी को भी पीछे छोड़ देंगे. हमारे पास वो कला है, जो मुगल के तोपखाने में चला करती थी.

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शाहिद मंसूरी


इतिहासकार डॉ मोहम्मद जमाल ने बताया कि 1526 में बाबर के दिल्ली के सुल्तान पर हमले से पहले भारत में तोपखाने या आतिशबाजी नहीं थी. अगर होती, तो बाबर की तोपों का जवाब भी तोपों से दिया जाता और बाबर इतनी जल्दी दिल्ली को फतह नहीं कर पाता.

मुगल बादशाह बाबर के आने के साथ ही देश में पटाखों और आतिशबाजी का इस्तेमाल खूब होने लगा था. हालांकि उस समय में आतिशबाजी का रिवाज आमतौर पर नहीं था, लेकिन 17वीं और 18वीं शताब्दी में दिल्ली और आगरा में आतिशबाजी की परंपरा बहुत बढ़ गई.

उस वक्त आतिशबाजी बादशाह, राजा-महाराजाओं की शान की पहचान होने लगी थी. त्योहारों, शादियों और जश्न के समय खूब आतिशबाजी होती थी. मगर, अब ये आतिशबाजी सामान्य हो गई है.