अफगानिस्ताननामा : पूरे अफगानिस्तान पर दोस्त मुहम्मद खान का कब्जा

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 08-02-2022
 दोस्त मुहम्मद खान
दोस्त मुहम्मद खान

 

अफगानिस्ताननामा : 44

 

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हालांकि अकबर खान जैसा जांबाज वजीर और बेटा अब उसके साथ नहीं था लेकिन दोस्त मुहम्मद ने अफगानिस्तान के बाकी हिस्सों को जीतने का अपना अभियान जारी रखा.काफी हद तक वे इसमें कामयाब भी रहा.अगले कुछ समय में ही हिंदू कुश के इलाके के साथ ही कंधार और बामियान को अपने राज में मिला लिया.

बैक्ट्रिया के तमाम छोटे बड़े इलाकों पर भी जल्द ही उसका शासन हो गया,लेकिन उसे सबसे ज्यादा मेहनत करनी पड़ी बल्ख को जीतने में जहां उसकी पहली कोशिश बेकार गई और दूसरी कोशिश में उसका बेटा मुहम्मद अकरम खान बल्ख पर कब्जा करने में कामयाब रहा.

इस दौरान कईं जगह बगावते भी हुईं पर दोस्त मुहम्मद उन सब को दबाने में कामयाब रहा.लेकिन बात फंस गई हेरात पर, जहां उस समय अब्दाली वंश के ही एक हिस्से का शासन बरकरार था.


ईरान की तरफ से चलें तो हेरात अफगानिस्तान का द्वार माना जाता है.हेरात के शासकों को लग रहा था कि काबुल की तरफ से वहां कभी भी हमला हो सकता है, इसलिए उन्होंने ईरान से मदद मांगी.ईरान की नजर तो पहले से ही हेरात पर थी.

यह ईरान का डर ही था जो दोस्त मुहम्मद को हेरात पर हमला करने से रोक रहा था.दूसरी तरफ ब्रिटिश अब अफगानिस्तान की आग में अपना हाथ जलाने के पक्ष में नहीं थे, हालांकि उनकी नजर ईरान पर बनी हुई थी.

खतरा जब लगातार बढ़ता गया तो दोस्त मुहम्मद ने खुद आगे आकर ईस्ट इंडिया कंपनी से मदद मांगी. 1855 में कंपनी और दोस्त मुहम्मद के बीच एक संधि हुई जिसमें यह कहा गया था कि विदेशी आंक्रमण की स्थिति में दोनों एक दूसरे के मदद करेंगे। और इसका मौका भी साल भर के अंदर आ गया.

ईरान की फौज हेरात में घुसीं और वहां उसका कब्जा हो गया.दोस्त मुहम्मद ने तुरंत ही कंपनी से मदद मांगी.ईरान पर दबाव बनाने के लिए कंपनी ने ब्रिटिश नौसेना को ईरान की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया.ईरान पर इस दबाव का असर भी हुआ.लेकिन यह सब बहुत जल्द नहीं हुआ इसमें लंबा वक्त लगा.

वक्त इसलिए भी लगा कि भारत में कंपनी के खिलाफ बगावत हो गई.जिसे 1857 की क्रांति या भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है.ब्रिटिश भारत में ही उलझ गए और हेरात का मामला टलता गया.आखिर में मई 1863 में दोस्त मुहम्मद को हेरात पर कब्जा मिला.

यानी वह ऐसा समय था जब आज का पूरा अफगानिस्तान दोस्त मुहम्मद के कब्जे में आ चुका था.लेकिन फिर भी उसकी हैसियत अहमद शाह अब्दाली वाली नहीं बन सकी थी क्योंकि पेशावर अभी भी भारत में था और उसे जीतना अब तक लगभग असंभव हो चुका था.

इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि भारत में तब तक पहला एंग्लो सिख युद्ध अपनी परणति पर पहंुच चुका था.कंपनी किसी तरह इस युद्ध को जीतने में कामयाब हो चुकी थी.जिस राज को कभी महाराज रणजीत सिंह ने काफी मेहनत और संघर्ष से खड़ा किया था अब वह अंग्रेजी शासन का एक प्रांत बन कर रह गया था.यानी जिस पेशावर को दोस्त मुहम्मद जीतना चाहता था वह अब अंग्रेजी शासन का हिस्सा था.

वह ब्रिटिश से उलझने की स्थिति में नहीं था.इस बीच सीमा पर एक और बड़ा बदलाव हो चुका था. ब्रिटिश ने सिंध पर कब्जा हासिल कर लिया था जो उस समय तक एक बलूच अमीर के कब्जे में था.सिंध पर कब्जा करके ब्रिटिश ने अपने इरादे साफ कर दिए थे इसलिए एक समय के बाद दोस्त मुहम्मद ने उसके बारे में सोचना भी बंद कर दिया था.

दोस्त मुहम्मद ने जब हेरात पर कब्जा हासिल किया उसके कुछ ही हफ्ते बाद उसका निधन हो गया.निधन के बाद उसके बेटे शेर अली खान को अफगानिस्तान का अमीर घोषित किया गया.अफगानिस्तान अब अपने इतिहास के नए अध्याय की ओर बढ़ रहा था. 

जारी...