स्मृति दिवसः रामपुर में बचपन बिताने वाले सोहराब मोदी की जानदार संवाद अदायगी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 28-01-2024
 स्मृति दिवसः रामपुर में बचपन बिताने वाले सोहराब मोदी की जानदार थी संवाद अदायगी
स्मृति दिवसः रामपुर में बचपन बिताने वाले सोहराब मोदी की जानदार थी संवाद अदायगी

 

ज़ाहिद ख़ान

भारतीय सिनेमा में सोहराब मोदी उस हस्ती का नाम है, जिन्होंने अपने करियर का आग़ाज़ पारसी थियेटर से किया. देश भर के शहर—शहर, कस्बे—कस्बे थियेटर कर लोगों का मनोरंजन किया. जब फ़िल्मों का दौर आया, तो टूरिंग टाकीज से जुड़ गए.

तंबू लगाकर फ़िल्में दिखाईं. मनोरंजन की दुनिया से जुड़ा उनका यह सुहाना सफ़र सिनेमा तक जा पहुंचा. सोहराब मोदी फ़िल्मों के मैदान में आ गए. उन्होंने मूक फ़िल्में कीं. 'आलमआरा' के साथ सवाक फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ.
 
अपनी शानदार शख़्सियत और जानदार डायलॉग डिलेवरी की वजह से उन्होंने यहां भी बहुत ज़ल्दी अपनी जगह बना ली.  पारसी घराने में पैदा होने के बावजूद सोहराब मोदी का हिन्दी, उर्दू ज़बान पर जिस तरह से कमांड था, वह लोगों को तअज्जुब में डाल देता था.
 
उनका बेदाग़ तलफ़्फ़ुज और आवाज़ भी बेहद रौबदार एवं ग़रज़दार थी. जब वे रंगमंच या फ़िल्मों में एक-एक लफ़्ज़ पर ज़ोर देकर डायलॉग बोलते, तो दर्शकों पर काफ़ी असर पड़ता. 
 
वे रोमांचित हो उठते. उनके डायलॉग पर जनता तालियां और सीटी बजाकर,अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करती. फ़िल्मों के जानिब देशवासियों में आज जो हमें दीवानगी दिखाई देती है, उसमें सोहराब मोदी का भी अहम रोल है.
 
अपनी ऐतिहासिक, पौराणिक और सामाजिक फ़िल्मों से उनकी रुचि को परिष्कृत किया. फ़िल्म देखने के संस्कार पैदा किए. एक लिहाज़ से कहें, तो वे भारतीय सिनेमा के नक्षत्र हैं. जिसकी रौशनी कभी कम नहीं होगी. वह हमेशा चमकता रहेगा.
 
2 नवंबर, 1897 को मुंबई में पैदा हुए सोहराब मोदी का बचपन उत्तर प्रदेश के रामपुर में बीता. उन्हें बचपन से ही अदाकारी का शौक़ था. यह शौक़ इस क़दर परवान चढ़ा कि उन्होंने इसे ही अपना करियर बना लिया.
 
अपनी पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद सोहराब मोदी अपने भाई केके मोदी के साथ ट्रैवलिंग एग्जिबिटर का काम करने लगे. यह वह ज़माना था, जब शहर-दर-शहर, क़स्बा-दर-क़स्बा तंबू लगाकर फ़िल्में चलाने का रिवाज था.
 
 लोग इनका बड़ा लुत्फ़ लेते थे. देश के कुछ महानगरों में थियेटर हॉल तो थे, मगर   टाकीज नहीं थीं. टूरिंग टाकीज लोगों का मनोरंजन करती थीं. सोहराब मोदी के भाई  ने 'आर्य सुबोध थिएटर कंपनी' की क़ायमगी की और उसके ज़रिए पहले नाटकों का मंचन और फिर उसके बाद फिल्मों का प्रदर्शन किया. 
 
साल 1924 से लेकर 1935 तक लगातार सोहराब मोदी अपनी थिएटर कंपनी के साथ घूमते रहे. इस दौरान उन्होंने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सभी इलाक़ों तक फ़िल्मों को पहुंचाया.
 
लोगों का मनोरंजन किया. लोगों की जिस तरह की दिलचस्पी होती, वो उसी तरह अपने नाटकों को डिजायन करते। यही वजह है कि ये नाटक दर्शकों को बेहद पसंद आते.
 
इसी दौरान सोहराब और उनके भाई ने 'वेस्टर्न इंडिया थिएटर कंपनी' को भी खरीद लिया. ये ग्रुप ग़ुलाम भारत में टूरिंग टाकीज और परमानेंट थिएटर समूहों को प्रमोट करता था.
 
बहरहाल, देश भर में थियेटर करने के बाद, सोहराब मोदी आख़िर में मुंबई पहुंचे, तो फ़िल्मों की जानिब मुड़ गए. साल 1935 में सोहराब मोदी ने अपनी ख़ुद की 'स्टेज़ फ़िल्म कंपनी' बनाई.
 
इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर पर उन्होंने पहली फ़िल्म 'ख़ून का ख़ून' बनाई. जो शेक्सपियर के मशहूर ड्रामे 'हैमलेट' पर केन्द्रित थी. फ़िल्म कोई ख़ास कामयाब नहीं रही. 
 
उनकी दूसरी फ़िल्म ‘सैद–ए-हवस’(1936) भी शेक्सपियर के नाटक ‘किंग जान’ पर आधारित थी. चूंकि सोहराब मोदी अपने मन माफ़िक फ़िल्में बनाना चाहते थे, लिहाजा उन्होंने साल 1936 में फ़िल्म कंपनी 'मिनर्वा मूवीटोन' की स्थापना की.
 
इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले उन्होंने कई बेहतरीन फ़िल्में बनाईं.  'मिनर्वा मूवीटोन' के बैनर पर उनकी इब्तिदाई फ़िल्में वतनपरस्ती के जज़्बे से भरपूर हैं. यह वह दौर था, जब मुल्क ग़ुलाम था.
 
अंग्रेज़ हुकूमत सत्ता में थी. पत्र—पत्रिकाओं से लेकर फ़िल्मों तक पर ब्रिटिश सेंसर बोर्ड की निगाहें लगी रहती थीं. ऐसे माहौल में अवाम को आज़ादी के लिए बेदार करना आसान काम नहीं था.
 
सोहराब मोदी ने इसके लिए इतिहास का सहारा लिया. हिंदोस्तानी इतिहास से अपनी फ़िल्मों के लिए उन्होंने वो मौज़ूअ इंतिख़ाब किये, जो अवाम को वतनपरस्ती का पाठ पढ़ाएं.
 
उनमें देशभक्ति का जज़्बा जगाएं. साल 1939 में आई फ़िल्म ‘पुकार’, ‘सिकंदर’ (साल-1941) और ‘पृथ्वीवल्लभ’ (साल-1943) वे फ़िल्में हैं, जिसमें अपने इस मक़सद में वो पूरी तरह से कामयाब हुए. उन्होंने बड़ी ही ख़ूबसूरती से देश के गौरवशाली इतिहास को पर्दे तक पहुंचाया.
 
मुग़ल बादशाह जहॉंगीर के इंसाफ़ को मरकज़ में रखकर बनाई गई उनकी फ़िल्म 'पुकार', दर्शकों को ख़ूब पसंद आई. सोहराब मोदी का डायरेक्शन और अदाकार चंद्रमोहन की बेहतरीन अदाकारी, इस फ़िल्म में उभरकर आई.
 
इस फ़िल्म ने चंद्रमोहन को रातों-रात स्टार बना दिया. साल 1941 में आई फ़िल्म 'सिकंदर' ने 'पुकार' की कामयाबी को दोहराया. सिकंदर के रोल में पृथ्वीराज कपूर ने लाजबाव अदाकारी की. पर्दे पर इस किरदार को ज़िंदा कर दिया. पोरस का किरदार ख़ुद सोहराब मोदी ने किया. 
 
सोहराब मोदी से जुड़ी कुछ यादगार तिथियां

-2 नवंबर 1897 को मुंबई में पैदा हुए, बचपन यूपी के रामपुर में बीता

-सोहराब मोदी 1924 से 1935 तक लगातार अपनी थिएटर कंपनी के साथ घूमते रहे

-1935 में अपनी ख़ुद की स्टेज फ़िल्म कंपनी बनाई

-1936 में फ़िल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना की

-1939 में पुकार, 1941 में सिकंदर और 1943 में पृथ्वीवल्लभ की

-1941 में आई फ़िल्म सिकंदर सुपर हिट रही

- 28 जनवरी 1984 को 86 साल की उम्र में सोहराब मोदी का निधन हो गया

फ़िल्म सुपर हिट रही. पृथ्वीराज कपूर को स्टार का मर्तबा मिल गया. आगे चलकर, इसी मौज़ूअ पर एक बार फिर 'सिकंदर—ए—आज़म' बनी. जिसमें सिकंदर का रोल दारा सिंह और पोरस की भूमिका पृथ्वीराज कपूर ने निभाई.
 
यह फ़िल्म भी कामयाब रही. सोहराब मोदी ने ऐतिहासिक फ़िल्मों के अलावा सोशल फ़िल्में ‘भरोसा’, ‘जेलर’, 'मीठा ज़हर', 'परख', 'तलाक़', 'भरोसा', 'शमा', 'दौलत', 'शीशमहल' और 'कुंदन' भी बख़ूबी बनाईं.
 
दर्शकों ने बेहद पसंद किया. साल 1953 में आई उनकी ‘झॉंसी की रानी’ एक बड़े बजट की फ़िल्म थी, जिसे उन्होंने उस ज़माने में टेक्नीकलर बनाया था, जब लोग ऐसा सोच भी नहीं सकते थे.
 
भारत में बनी यह पहली टेक्नीकलर फ़िल्म थी. मगर अफ़सोस ! बड़े बजट की यह आलीशान फ़िल्म बॉक्सआफ़िस पर नाकामयाब रही. इस नाकामयाबी से उबर कर, उन्होंने शायर-ए-आज़म मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िंदगी पर मब्नी फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ बनाने का ज़िम्मा लिया.
 
‘मिर्ज़ा ग़ालिब’, एक शाहकार फ़िल्म है। जिसे अखिल भारतीय सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक और हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रपति का रजत पदक दोनों हासिल हुए.
 
एक विशेष स्क्रीनिंग में, तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को देखकर, फ़िल्म और उसकी नायिका सुरैया के रोल की ख़ूब तारीफ़ की और इसे बेहद सराहा.
 
अपने पांच दशक के फ़िल्मी करियर में सोहराब मोदी ने तीन दर्जन से ज़्यादा फ़िल्मों का निर्माण, दो दर्जन फ़िल्मों का निर्देशन और अनेक फ़िल्मों में अदाकारी की.
 
उन्होंने हर एक तरह के किरदार को बड़े पर्दे पर बेहद संजीदगी से जिया. उनकी कोई सी भी फ़िल्म देख लीजिए, उनकी डायलॉग डिलेवरी उरूज पर नज़र आती है.
 
लोग उनके डायलॉग सुनने थियेटर तक आते थे। फ़िल्म 'शीश महल', 'नौशेरवां—ए—आदिल' से लेकर 'यहूदी' और उनकी आख़िरी फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' में उनके डायलॉग बोलने का अंदाज़ लोगों को ख़ूब पसंद आता है.
 
आग़ा हश्र काश्मीरी के ड्रामे 'यहूदी की लड़की' पर केन्द्रित बिमल रॉय की फ़िल्म 'यहूदी' में उनका यह डायलॉग ''तुम्हारा ख़ून, ख़ून और मेरा ख़ून पानी.''आज भी दर्शकों की ज़बान पर रहता है.
 
भारतीय सिनेमा में सोहराब मोदी के उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए, भारत सरकार ने साल 1980 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा, तो भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर उनकी याद में एक डाक टिकट भी जारी किया.
 
28 जनवरी, 1984 को 86 साल की उम्र में सोहराब मोदी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. भारतीय रंगमंच, पारसी थियेटर और हिन्दी फ़िल्मों का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, उसमें सोहराब मोदी का नाम अव्वल नंबर पर रहेगा. उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता.