सिनेमाः यूक्रेन-रूस युद्ध की वास्तविकता और फिल्म डोनबास की पटकथा

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 04-03-2022
फिल्म डोनबास का एक दृश्य
फिल्म डोनबास का एक दृश्य

 

आवाज विशेष । यूक्रेन संकट और सिनेमा

अजित राय

जिस देश (रूस) में कभी सर्जेई आइजेंस्टाइन और आंद्रे तारकोव्स्की जैसे विश्व सिनेमा का खुदा माने गए महान फिल्मकार पैदा हुए हों,वहां आज का सिनेमा राजनीति, षड्यंत्र और दिशाहीनता का शिकार हो चुका है. रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन इन दिनो अक्सर यह कहते पाए जाते है कि अमेरिकी-यूरोपीय देशों के पैसों से कई निर्वासित रूसी फिल्मकार रूस की छवि बिगाड़ने के लिए फिल्में बना रहे हैं. दुनिया के बड़े फिल्मोत्सवों में इधर ऐसी फिल्मों की बड़ी चर्चा भी रही है.

फ्रांस की अपील को ठुकराते हुए दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म महोत्सव कान फिल्म समारोह मे जाने से रूस ने अपने फिल्मकारों को प्रतिबंधित कर दिया था.

विश्वप्रसिद्ध रूसी फिल्मकार किरील सेरेब्रेनिकोव की फिल्म ‘लेटो’(समर) 2018 के कान फिल्म समारोह के प्रतियोगिता खंड में चुनी गई थी. कान फिल्म समारोह के निर्देशक थेरी फ्रेमो ने तब प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि फ्रांस की सरकार रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन से बात कर रही है कि रूसी फिल्मकारों को कान फिल्म समारोह मे भाग लेने की इजाजत दी जाए.

किरील सेरेब्रेनिकोव पर आरोप है कि उन्होने अपनी संस्था सेवेंथ स्टूडियो के माध्यम से सरकारी अनुदान में गबन किया है. 2017 में 23 मई को रूसी अधिकारियों ने उनके दफ्तर पर छापा मारा था और उनके खिलाफ धोखघड़ी और सरकारी अनुदान में भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया था. तभी से वे अपने घर में नजरबंद हैं. माना जाता है कि उन्हें पुतिन सरकार की तीखी आलोचना करने का खामियाजा भुगतना पड़ा. कान फिल्म समारोह में उनकी फिल्म "लेटो" (समर) के कलाकारों ने रेड कारपेट पर तख्तियाँ लेकर और नारे लगाकर उनकी रिहाई की मांग की.

सर्जेई लोजनित्स की नई  फिल्म ‘डोनबास’(2018) की दुनिया भर में काफी चर्चा हुई. यह फिल्म 2014 से जारी यूक्रेन युद्ध की दिल दहलाने वाली छवियाँ दिखाती है. सर्जेई लोजनित्स ने अपनी पिछली फिल्मों (इन द फॉग और अ जेंटिल क्रिएचर) की शैली तो ली है पर कहानी हटा दी है. लैंडस्केप, साउंड स्कोर, जबरदस्त वातावरण और एक के बाद एक जीवन की नारकीय स्थितियों के दृश्यों में कहानी के बदले रिपोर्टिंग को तरजीह दी है.

रूस से लगी यूक्रेन की पूर्वी सीमा का लोकेल है. डोनबास उस इलाके को कहा जा रहा है जहां रूस के समर्थन से अलगाववादी समूहों ने डोनेत्क्स और लुहांस्क शहरों में पीपुल्स रिपब्लिक घोषित कर दिया है. पुतिन और रूसी सेना के सहयोग से कई अलगाववादी समूह यूक्रेन की सेना से और अक्सर आपस में ही लड़ रहे हैं. जबकि यूक्रेन की सेना को यूरोप और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का समर्थन हासिल है.

मीडिया की खबरें अक्सर भ्रमित करनेवाली हैं. मसलन एक दृश्य में विशाल टैंक पर बैठे रूसी सैनिकों का समूह एक जर्मन पत्रकार को गर्व से बताता है कि वे अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं जबकि यूक्रेन उनकी मातृभूमि है ही नहीं. वे रूसी भाषा में बोल रहे हैं. वे रूस से आए सैनिक हैं.

एक दूसरा समूह उस पत्रकार को पकड़कर जलील करता है कि वह हिटलर की नाजायज औलाद है कि वह फॉसिस्ट है. एक दृश्य में बंकर में रह रहे नागरिकों को दिखाया गया है जहां सचमुच मौत से भी बदतर जिंदगी है. चारों तरफ लूट मची हुई है. सेना के जवान कभी भी किसी को उठा लाते हैं, उनसे जबरन लिखवाकर उनकी कार और दूसरे सामान हड़प लेते हैं. यूक्रेन में ही डोनबास इलाके से बाहर आते-जाते नागरिकों की तलाशी लेते सैनिक कई बार अमानवीय हो जाते हैं.सर्जेई लोजनित्स, जो कि बेलारूस में जन्मे, कीव में बड़े हुए और रूस में फिल्म बनाना सीखा,अपनी तरफ से कोई जजमेंटल टिप्पणी नहीं करते.

जब युद्ध को ही शांति मान लिया जाता है, प्रोपेगैंडा को सत्य कहा जाने लगता है और घृणा को प्रेम घोषित कर दिया जाए तो इसका मतलब है कि जिंदगी मौत से भी बदतर हो चुकी है. ऐसी ही स्थितियों मे डोनबास फिल्म जिंदगी के नरक को समझने की प्रैक्टिकल गाइड बन जाती है.

फिल्म में यूक्रेन की सेना के जवान कम दिखाई देते है सिवाय एक दृश्य में जब वे एक निरीह इंसान को हाथ बाँधकर भीड़ के हवाले कर देते है जिसके पेट पर लिखा है कि वह यूक्रेन एक्सक्यूसन स्कवाड का सदस्य है. भीड़ उसे मार डालती है.

फिल्म की शुरुआत में हम देखते हैं कि एक फिल्म की शूटिंग के लिए वैनिटी वैन मे कलाकारों का मेकअप हो रहा है. अचानक निर्देशक की सहायक एक लड़की आती है और सबको जल्दी से सुरक्षित जगह पर ले जाती है और तभी बम फटता है. अंतिम दृश्य में भी इसी वैन में मेकअप चल रहा है कि कुछ लोग अचानक आकर भीतर घुसते हैं और बारह कलाकारों की हत्या कर देते हैं. मतलब फिल्म जहां से शुरू होती है वहीं पर खत्म भी हो जाती है.

सर्जेई लोजनित्स ने अपनी पिछली फिल्म ‘अ जेंटिल क्रिएचर’में सुपरपॉवर रूस में नागरिकों की बदतर होती जिंदगी को दिखाया था, पर वहां उन्होंने बाजाप्ता एक कहानी कही थी. इस फिल्म को 70वें कान फिल्म समारोह के प्रतियोगिता खंड में दिखाया गया था.

‘डोनबास’में वे यूक्रेन गए हैं पर यहां न तो कोई एक चरित्र है न कोई एक कहानी. हर दृश्य अपने-आप में एक कहानी कहता है. जाहिर है कि फिल्म के निशाने पर रूस और वहाँ के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन हैं, यूरोप और अमेरिका नहीं.

इस राजनीति से परे यह भी सच है कि आज का सिनेमा रूसी समाज का वह सच दिखा रहा है जो आमतौर पर मीडिया में नहीं आ पाता.

(अजित राय भारत के मशहूर फिल्म आलोचक हैं)