जिनकी नज़्म को गाकर बंगाल अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया गया

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 22-10-2021
शायर वामिक जौनपुरी
शायर वामिक जौनपुरी

 

संदर्भ : 23अक्टूबर, शायर वामिक जौनपुरी की यौम-ए-पैदाइश

 

ज़ाहिद ख़ान

वामिक जौनपुरी का शुमार उन शायरों में होता है, जिनकी वाबस्तगी तरक़्क़ीपसंद तहरीक से रही.जिन्होंने अपने कलाम से सरमायेदारी और साम्राज्यवाद दोनों पर एक साथ हमला किया.समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों के हक़ में अपनी आवाज़ बुलंद की.अपनी शायरी में भाईचारे, समानता और इंसानियत की आला क़द्रों को हमेशा तरजीह दी.‘भूका है बंगाल’ नज़्म उनकी शायरी की मेराज है.

वामिक जौनपुरी की इस शाहकार नज़्म की तारीफ करते हुए, अपनी किताब ‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’ में सज्जाद ज़हीर ने लिखा है,‘‘तरक़्क़ीपसंद अदब की तारीख में वामिक का यह तराना सही मायने में सोने के हरूफ़ से लिखे जाने लायक है.वह वक्त की आवाज़ थी.

वह हमारी इंसान दोस्ती के जज़्बात को सीधे-सीधे उभारता था.उसकी ज़बान और छब आम जन जीवन से संबंधित थी.देहात और शहर में हर तबके के लोग उसे समझ सकते थे.उसकी वेदना और संगीतिकता लोकधुन के साथ मिलकर दिल में पवित्रता और कर्म की भावना को जगाती थी.इसी वजह से यह तराना न सिर्फ हिंदुस्तानी बोलने वाले इलाकों में मक़बूल हुआ, बल्कि मुल्क के उन इलाकों में भी जिनकी ज़बान हिंदुस्तानी नहीं थी.’’

‘वामिक’ जौनपुरी का असल नाम सैयद अहमद मुज़्तबा था और उनकी पैदाइश 23अक्टूबर, 1909को जौनपुर (उत्तर प्रदेश) के नजदीक मौजा कजगांव में हुई.उनके वालिद खान बहादुर सैयद मोहम्मद मुस्तफ़ा, ब्रिटिश हुकूमत में एक आला अफ़सर थे.

वामिक जौनपुरी की शुरुआती तालीम सूबे के सुल्तानपुर, बाराबंकी और फै़ज़ाबाद जिले में हुई.बचपन में ही तकनीक और विज्ञान के जानिब उनकी दिलचस्पी देखी, तो वालिद ने फै़सला किया कि उन्हें इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाएंगे.

 लिहाजा लखनऊ यूनिवर्सिटी में उनका बीएससी में दाखि़ला करा दिया गया.लेकिन उनकी किस्मत को इंजीनियर बनना मंजूर नहीं था.बीएससी में फेल होने के बाद, उन्होंने जैसे तैसे बीए की डिग्री हासिल की.स्कूली तालीम में भले ही वामिक जौनपुरी अच्छे स्टूडेंट नहीं रहे, लेकिन अदब से उनकी मोहब्बत शुरू से ही थी.

 वामिक के नाना उन्हें बचपन में ‘तिलस्मे होशरुबा’, ‘किस्स-ए-चहारदरवेश’, ‘दास्ताने अमीर हमज़ा’ और ‘अलिफ़-लैला’ जैसी क़दीम दास्तानें सुनाया करते थे, जिसका असर यह हुआ कि अदब में उनकी दिलचस्पी बढ़ती चली गई.बचपन से होश संभालने तक वे मोहम्मद हसन आज़ाद, शिब्ली, हाली, सैयद हैदर यलदरम और नियाज़ फ़तेहपुरी यानी उर्दू अदब के नामी अदीबों से लेकर दुनिया भर के तमाम अदीबों की क़िताबें पढ़ चुके थे.

वामिक जौनपुरी की नौजवानी का दौर, मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था.हर आम-ओ-ख़ास इस आंदोलन से प्रभावित था.यह कैसे मुमकिन था कि आज़ादी के आंदोलन का उन पर कोई असर नहीं पड़ता.कॉलेज में तालीम के दौरान प्रोफेसर डी.पी. मुखर्जी वे शख्स थे, जिन्होंने वामिक जौनपुरी की जिं़दगी को एक नई राह दिखलाई.

साल 1936में लखनऊ के रिफ़ाहे-आम क्लब में जब प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, तो वामिक जौनपुरी भी अपने उस्ताद डी.पी. मुखर्जी के साथ इस ऐतिहासिक सम्मेलन में शामिल हुए.अधिवेशन ने जैसे उनके मुस्तकबिल की राह तय कर दी.जे़हनी तौर पर इतनी वैचारिक उथल-पुथल होने के बाद भी वामिक जौनपुरी का रुख़ अभी लेखन की तरफ नहीं हुआ था.

पढ़ाई पूरी हुई, तो रोजगार की तलाश शुरू हुई.जो वकालत पर जाकर ख़त्म हुई। वामिक जौनपुरी ने कुछ दिन फै़ज़ाबाद में वकालत की। शायरी की इब्तिदा यहीं से हुई। जिस मकान में वे किराये से रहते थे, उसी मकान के एक हिस्से में मकान मालिक हकीम मुइज़्ज़ दरियाबादी का भी निवास था.हकीम साहब शेरो-शायरी के ख़ासे शौक़ीन थे.

लिहाज़ा आये दिन उनके यहां शेरो-शायरी की महफ़िलें जमती रहती थीं.शेर-ओ-अदब की इन महफ़िलों में खु़मार बाराबंकवी, मजरूह सुल्तानपुरी और सलाम मछलीशहरी जैसे नामवर शायर भी शिरकत करते थे.इस संगत का असर यह हुआ कि वामिक जौनपुरी भी शे’र कहने लगे.उनके अंदर ख़यालों का जो सैलाब अभी तक एक जगह इकट्ठा था, वह तेजी से बह निकला.बाक़ायदगी से शायरी करने का नतीजा यह निकला कि चंद अरसे के बाद ही उनकी पहचान एक शायर की हो गई.वे मुशायरों में अपना कलाम पढ़ने जाने लगे.

 नौचंदी के मेले की एक मज़हबी मज़लिस में उन्होंने एक ऐसी नज़्म पढ़ी, जो हफ़्तावार अख़बार ‘अख़्तर’ में भी छपी.नज़्म के बाग़ियाना तेवर अंग्रेजी हुकूमत को रास नहीं आए और डी.एम. ने उन्हें अपने दफ़्तर में तलब कर लिया.

 चूंकि डी.एम. उनके वालिद का दोस्त था, लिहाजा उन्हें कोई सज़ा तो नहीं मिली, लेकिन उनसे जिले को फौरन छोड़ देने को कहा गया.इस तरह वामिक जौनपुरी की वकालत छूटी और फै़ज़ाबाद जिला भी.

 ग़म-ए-रोज़गार की जुस्तजू में वे कई शहर मसलन लख़नऊ, दिल्ली और अलीगढ़ में रहे.पर जहां भी रहे, शायरी का साथ नहीं छूटा.आखि़रकार, कुछ साल भटकने के बाद एरिया राशनिंग ऑफिसर के ओहदे पर उनकी नौकरी लगी.बनारस, इलाहाबाद और जौनपुर में उन्होंने यह शुरुआती नौकरी की कहीं भी रहे, पढ़ना-लिखना जारी रहा.मुशायरों में हिस्सा लेते रहे.

‘‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’’ वह नज़्म है, जिससे वामिक जौनपुरी की शोहरत पूरे मुल्क में फैली.साल 1944में लिखी गई इस नज़्म ने उन्हें एक नई पहचान दी.इस नज़्म का पसमंज़र साल 1943में बंगाल में पड़ा भयंकर अकाल है.इस अकाल में उस वक्त एक आंकड़े के मुताबिक करीब तीस लाख लोग भूख से मारे गए थे.

 वह तब, जब मुल्क में अनाज की कोई कमी नहीं थी.गोदाम भरे पड़े हुए थे.बावजूद इसके लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था.एक तरफ लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार के कान पर जूं तक नही रेंग रही थी.

 बंगाल के ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात की तर्जुमानी ‘भूका है बंगाल’ नज़्म में है.आम ज़बान में लिखी गई यह नज़्म हर एक के ज़ेहन में उतरती चली ग.यह नज़्म, बंगाल के अकाल पीड़ितों की आवाज़ बन गई.आईये इस नज़्म पर एक नज़र डालें, ‘‘पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला दुख का जाल/दुख की अगनी कौन बुझाये सूख गए सब ताल/जिन हाथों ने मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी/आज वही कंगाल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल.’’

वामिक जौनपुरी ने इस नज़्म में न सिर्फ अकाल से पैदा हुए दर्दनाक हालात का पूरा मंज़र बयां किया है, बल्कि नज़्म के आख़िर में वे बंगालवासियों से अपनी एकजुटता दर्शाते हुए कहते हैं,‘‘प्यारी माता चिंता जिन कर हम हैं आने वाले/कुंदन रस खेतों से तेरी गोद बसाने वाले/खून पसीना हल हंसिया से दूर करेंगे काल रे साथी/दूर करेंगे काल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल.’’ एक नई उम्मीद, नया हौसला बंधाने के साथ इस नज़्म का इख़्तिताम होता है.

इप्टा के ‘बंगाल स्कवॉड’ और सेंट्रल स्कवॉड ने ‘भूका है बंगाल’ नज़्म की धुन बनाई और चंद महीनों के अंदर यह तराना मुल्क के कोने-कोने में फैल गया.इस नज़्म ने लाखों लोगों के अंदर वतनपरस्ती और एकता, भाईचारे के जज़्बात जगाए.

इप्टा के कलाकारों ने नज़्म को गा-गाकर बंगाल रिलीफ फंड के लिए हजारों रुपए और अनाज बंगाल के लिए इकट्ठा किया.जिससे लाखों हमवतनों की जान बची.नज़्म की मक़बूलियत को देखते हुए, इसका मुल्क की दीगर ज़बानों में भी तर्जुमा हुआ.वामिक जौनपुरी के सारे कलाम में सामाजिक चेतना साफ तौर पर दिखलाई देती है.उन्होंने सियासी और समाजी मसलों को हमेशा अपनी नज़्म का मौजू़ बनाया.

अपनी नज़्मों-ग़ज़लों में उन्होंने तरक़्क़ीपसंद रुझान से कभी किनारा नहीं किया.मिसाल के तौर पर वे अपनी एक ग़ज़ल में वे कहते हैं,‘‘सुर्ख दामन में शफक के कोई तारा तो नहीं/हमको मुस्तकबिले-ज़र्रीं ने पुकारा तो नहीं.’’ हमारे मुल्क को आज़ादी बंटवारे के तौर पर मिली.

पूरा मुल्क दंगों की आग में झुलस उठा.खास तौर पर पंजाब इससे सबसे ज्यादा मुतासिर रहा.पंजाब की तक़्सीम पर वामिक जौनपुरी ने अपनी नज़्म ‘तक़सीमे-पंजाब’ के हवाले से लिखा,‘‘जैसे अब खुश्क हैं पंजाब के सारे दरिया/सोने की बालियां जिन खेतों में लहराती थीं/अब उन्हीं खेतों में उड़ते हैं हया सोज शरार/और लहू से उन्हें सैराब किया जाता है.’’

वामिक जौनपुरी के कलाम में जहां इंक़लाब का जबर्दस्त आग्रह है, तो वहीं अपनी नज़्मों में उन्होंने हमेशा वैज्ञानिक नज़रिए को अहमियत दी.ऐसी ही उनकी कुछ नज़्में हैं ‘माइटी एटम’, ‘वक्त’, ‘आफ़रीनश’, ‘ज़मीं’, ‘एक दो तीन’ आदि.

साल 1948में वामिक जौनपुरी का पहला शे’री मज़मुआ ‘चीखें’ छपा.इस मजमुए में शामिल उनकी ज्यादातर ग़ज़लें, नज़्में साल 1939से लेकर 1948तक के दौर की हैं.यह वह दौर था, जब मुल्क में आज़ादी का आंदोलन अपने चरम पर था.पूरे मुल्क में सियासी उथल-पुथल मची हुई थी.ज़ाहिर है इस मजमुए की ग़ज़लों, नज़्मों में भी उस हंगामाखे़ज दौर की अक़्क़ासी है.

वामिक जौनपुरी की दूसरी क़िताब ‘जरस’ साल 1950में आई। ‘जरस’ की भूमिका मशहूर तंकीद निगार एहतेशाम हुसैन ने लिखी थी.अपनी भूमिका में एहतेशाम हुसैन, वामिक जौनपुरी की शायरी की तारीफ़ करते हुए लिखते हैं,‘‘वामिक के अंदर गैरमामूली शायराना सलाहियते हैं.’’

उनके अंदर यह गैरमामूली शायराना सलाहियतें ही थीं कि ‘मीना बाज़ार’, ‘भूका बंगाल’, ‘ज़मीं’, ‘तक़सीमे-पंजाब’, ‘सफ़रे नातमाम’, ‘नीला परचम’ और ‘मीरे कारवां’ जैसी बेहतरीन नज़्में उन्होंने अपने चाहने वालों को दीं.यह सभी नज़्में ‘जरस’ में शामिल हैं.

बहरहाल ‘जरस’ के प्रकाशन और इसकी कामयाबी ने वामिक जौनपुरी को तरक़्क़ीपसंद शायरों की पहली सफ़ में खड़ा कर दिया.‘नीला परचम’, ‘फन’ और ‘ज़मीं’ वामिक जौनपुरी की वे नज़्में हैं, जिन्हें ‘भूका बंगाल’ की तरह मक़बूलियत हासिल हुई.‘

नीला परचम’ नज़्म में वे जंग के खि़लाफ़ अमन की बात करते हैं.क्यांकि जंग से पूरी इंसानियत को ख़तरा है जंग में कोई नहीं जीतता.जंग में जो जीतता है, वह भी अंततः हारता ही है.‘‘हम इसलिए अमन चाहते हैं/कि एशिया से सफेद कौमें उठा लें अपना सियाह डेरा/रहेंगे कब तक नजस फ़जाएं/हम आज मिलकर कसम ये खायें/कि हिंद को हम न बनने देंगे इस जंग का अखाड़ा.’’

वामिक जौनपुरी साल 1961 से लेकर 1969 तक कश्मीर भी रहे.यहां उन्होंने अदबी काम कम ही किया.अलबत्ता हब्बा खातून पर एक ऑपेरा, शायर मख़दूम मोहिउद्दीन पर रेडियो वार्ता और ‘उरूसे एशिया’ और ‘डल की एक शाम’ नज़्म कश्मीर में ही लिखी गई थीं.‘शबे-चिराग’ (साल 1978) और ‘सफ़र-नातमाम’ उनके कलाम के दीगर मजमुए हैं.

 वामिक जौनपुरी ने अपनी आत्मकथा भी लिखी.‘गुफ़्तनी-नागुफ़्तनी’ टाइटल से यह आत्मकथा, खुदाबख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी ने प्रकाशित की है.उन्होंने बच्चों के लिए काफी सारे गीत लिखे, जो ‘खि़लौना’ रिसाले में छपे.इलाहाबाद में कयाम के दौरान कुछ दिन ‘इंतख़ाब’ पत्रिका, तो दिल्ली में ‘शाहराह’ का संपादन किया.

 वामिक जौनपुरी को अदब की खि़दमत के लिए कई अवार्डों से नवाजा गया.उन्हें मिले कुछ अहम अवार्ड हैं ‘इम्तियाज़े-मीर’ (साल 1979), ‘सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड’ (साल 1980), ‘उत्तर प्रदेश अकादमी सम्मान’ (साल 1991) और ग़ालिब अकादमी का ‘कविता सम्मान’ (साल 1998) एक लंबी बामक़सद ज़िंदगी जीने के बाद 21 नवम्बर, 1998 को वामिक जौनपुरी ने इस जहाने फ़ानी से अपनी रुख़सती ली.