मंजात ठाकुर/ नई दिल्ली
देश के अमृत महोत्सव यानी आजादी के 75वीं वर्षगांठ पर हम आजादी के दीवानों को जरूर याद कर रहे हैं, लेकिन कुछ ऐसे अनजान और गुमनाम नायक हमारी आजादी के संग्राम में रहे हैं, जिनको आज की तारीख में याद करना बेहद प्रासंगिक होगा. इनमें से कई आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हैं.
इनमें से एक हैं मौलवी अलाउद्दीन, जिन्होंने उस गदर में अंग्रेजों के खिलाफ हैदराबाद रेजिडेंसी पर हमले की अगुआई की थी. अब वह जगह उस्मानिया यूनिवर्सिटी का वीमन्स कॉलेज है. मौलवी अलाउद्दीन की कहानी विदेशी कब्जे से मातृभूमि को आजाद कराने की अद्भुत दास्तान है. उनकी त्रासद कहानी में एक मोड़ यह भी है कि ब्रिटिश—जिनके खिलाफ मौलवी अलाउद्दीन ने हथियार उठाए थे—बाद में उनके चरित्रबल से प्रभावित भी हुए थे. लेकिन, विडंबना रही कि उनकी अपनी मातृभूमि हैदराबाद रियासत ने उनको कालेपानी की जेल की सजा से वापसी की अनुमति नहीं दी.
ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेजों के विरोधी योद्धा जामेदार चीड़ा खान ने औरंगबाद में फर्स्ट कैवलरी को छोड़ दिया था. जून, 1857 में वह 13 अन्य सिपाहियों के साथ हैदराबाद आए थे लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और ब्रिटिश रेजिडेंट ने मुकदमें के लिए उन्हें जेल भेज दिया. जैसे ही यह खबर फैली, लोगों ने मुखालफत करनी शुरू कर दी और चीड़ा खान और उनके सहयोगियों की आजादी की मांग करने लगे.
हैदराबाद के तब के निजाम, मीर तहनियात अली खान (अफजालुद्दौला) ने इस मामले में दखल देने से इनकार कर दिया.
17 जुलाई को करीब 500 लोग, तुर्राबाज खान और मौलवी अलाउद्दीन की अगुआई में ब्रिटिश रेजिडेंसी की तरफ बढ़े जिनमें से कुछ लोग हथियारबंद थे और कुछ तो निहत्थे ही निकल पड़े थे. रेजिडेंसी पहुंच कर यह प्रदर्शन हिंसक हो उठा और रेजिडेंट के महल पर धावा बोल दिया गया. ब्रिटिश सेना ने गोली चलानी शुरू कर दिया. प्रदर्शनकारियों ने भी जवाबी हमले किए और यह लड़ाई कई घंटो तक चलती रही लेकिन हिंदुस्तानियों को आखिरकार पीछे हटना पड़ा. तुर्राबाज खान को गिरफ्तार कर लिया गया जबकि मौलवी अलाउद्दीन भाग निकलने में कामयाब रहे.
बाद में, मौलवी अलाउद्दीन को मंगलापल्ली गांव से गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाकर उन्हें काला पानी भेज दिया गया. अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्वविद डॉ सैयद दाऊद अशरफ ने राज्य अभिलेखागार (स्टेट आर्काइव्स ऐंड रिसर्च इंस्टीट्यूट) में एक फाइल खोज निकाली, जो मौलवी अलाउद्दीन की जीवन में आए कष्टों पर रोशनी डालती है.
जब तक, यह फाइल खोजी नहीं गई थी तब तक यही माना जाता रहा कि उनका निधन 1884 में हो गया था. लेकिन दस्तावेजों से पता चलता है कि वह 1860 में पोर्ट ब्लेयर पहुंचे थे और वहां 1889 तक जीवित रहे.
इस फाइल में एक खत है जिसे मौलवी अलाउद्दीन ने फारसी में ब्रिटिश सरकार को लिखा था. 1 फरवरी, 1889 को लिखे इस पत्र में मौलवी अलाउद्दीन कहते है कि 20 साल जेल काटने के बाद रिहा किए गए अन्य कैदियों के उलट उन्हें मुक्त नहीं किया गया है जबकि उन्होंने किसी नियम को नहीं तोड़ा है और उनके अच्छे बरताव की लगभग सभी अधिकारियों ने तारीफ की है.
उन्होंने लिखा है भारतीय (ब्रिटिश) सरकार उन्हें रिहा करना चाहती है और इस बारे में हैदराबाद रियासत को चिट्ठी भी लिखी गई है, लेकिन तब के प्रधानमंत्री सालार जंग ने इस सिफारिश को नामंजूर कर दिया. बाद में, 1886 में, गृह सचिव एलेक्जेंडर मेकेंजी ने पोर्ट ब्लेयर की यात्रा के दौरान मौलवी अलाउद्दीन से मुलाकात की और उनका मामला सुना. मौलवी अलाउद्दीन को रिहा करने की सिफारिश को गवर्नर जनरल की मंजूरी मिल गई और इसे हैदराबाद रियासत के पास भेज दिया गया. एक बार फिर, सालारजंग ने इसे खारिज कर दिया.
इसके बाद मौलवी अलाउद्दीन ने एक अन्य अपील ब्रिटिश सरकार के पास किया और तब उन्हें बताया गया कि यह बगैर हैदराबाद रियासत की सहमति के बिना मुमकिन नहीं है.
रेजिडेंसी पर हमले के दौरान गोली लगने से मौलवी अलाउद्दीन का दाहिना हाथ लकवाग्रस्त हो चुका था. उनके कंधे और माथे पर तलवार से लगा जख्म भी था.
कैद के दौरान, उनकी दृष्टि जाती रही और उन्हें अलहदा किस्म की बीमारियों ने घेर लिया था. बाद के वर्षों में, वह बगैर सहारे के चल भी नहीं पाते थे. अपनी शारीरिक दशा की वजह से वह अपना आखिरी समय हैदराबाद में बिताना चाहते थे लेकिन बार-बार के निवेदन के बाद भी पहले सालार जंग और बाद में प्रधानमंत्री बने असमां जाह उनकी रिहाई को टालते रहे.
हैदराबाद रिसायत को भेजे आखिरी आवेदन में आठ मेडिकल सर्टिफिकेट और विभिन्न ब्रिटिश अधिकारियों के 44 अनुज्ञापत्र हैं, जिसमें उन्हें एक ईमानदार, फारसी का शिक्षक, पोर्ट ब्लेटर में खेती की जमीन तैयार करने में मदद करने वाला और आटे की चक्की बनाने वाला और वहां के निवासियों को दूध की आपूर्ति करने वाला बताया गया है.
मौलवी अलाउद्दीन की इच्छा अपने देश के लोगों के साथ अपनी अंतिम सांसे बिताने की थी, फिर भी, निजाम ने यह न होने दिया. भारत के अमृत महोत्सव में हम ऐसे धरती के लालों को याद कर पाएं, जिन्होंने आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी.