ज़कात, फ़ितरा व सदक़ा किसे दें

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 06-04-2023
ज़कात, फ़ितरा व सदक़ा किसे दें
ज़कात, फ़ितरा व सदक़ा किसे दें

 

फ़िरदौस ख़ान

अल्लाह ने इंसान को बेपनाह नेअमतें अता की हैं. उसे हर वह चीज़ दी है, जो ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए काफ़ी है. इनमें बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनके पास हर चीज़ बेहिसाब है. मगर दुनियाभर में बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें दो वक़्त का पेट भर खाना भी नहीं मिल पाता. ये लोग अभाव में ज़िन्दगी बसर करते हैं. इस्लाम में ऐसे ही लोगों को ज़कात, फ़ितरा और सदक़ा देने का हुक्म दिया गया है.  

क़ुरआन करीम में बार-बार ज़कात का ज़िक्र आता है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “नेकी सिर्फ़ यही नहीं है कि तुम अपना रुख़ मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर लो, बल्कि असल नेकी तो ये है कि कोई शख़्स अल्लाह और क़यामत के दिन और फ़रिश्तों और अल्लाह की किताब और नबियों पर ईमान लाए.अल्लाह की मुहब्बत में अपना माल क़राबतदारों यानी रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और मुसाफ़िरों और साइलों यानी मांगने वालों पर और ग़ुलामों को आज़ाद कराने में ख़र्च करे और पाबंदी से नमाज़ पढ़े और ज़कात देता रहे और जब कोई वादा करे, तो उसे पूरा करे और तंगी और मुसीबत और जंग की सख़्ती के वक़्त सब्र करने वाला हो. यही लोग सच्चे हैं और यही लोग परहेज़गार हैं.(क़ुरआन 2:117)

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ज़कात, फ़ितरा और सदक़ा किसे कहते हैं ?

अल्लाह ने हमारे माल व दौलत में ज़रूरतमंद लोगों के लिए जो हिस्सा मुक़र्रर किया है, उसे ज़कात कहते हैं.ये पूरे साल की आमदनी में से बचत का 2.5फ़ीसद हिस्सा होता है. दरअसल हमारे माल व दौलत पर सिर्फ़ हमारा ही हक़ नहीं है, बल्कि इसमें उन सबका हक़ है, जिन्हें इसकी ज़रूरत है.

इनमें हमारे क़रीबी रिश्तेदार, यतीम, मिस्कीन, पड़ौसी, मुसाफ़िर और साइल यानी मांगने वाले भी शामिल हैं.क़ाबिले-ग़ौर है कि सदक़ा तीन तरह का होता है.

पहला फ़र्ज़ सदक़ा है, जिसे ज़कात कहा जाता है. ये इस्लाम का तीसरा रुकन है. ये पूरे साल की कमाई की रक़म का एक हिस्सा होता है, जो रमज़ान के महीने में ज़रूरतमंदों को  दिया जाता है.

दूसरा वाजिब सदक़ा है. ये सदक़ा ईदुल फ़ित्र और ईदुल अज़हा के दिन ज़रूरतमंदों को दिया जाता है.तीसरा नफ़िल सदक़ा है, जो कभी भी किसी को भी दिया जा सकता है यानी इस सदक़े की रक़म मस्जिद और मदरसों में भी दी जा सकती है. 

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सदक़े की फ़ज़ीलत 

सदक़ा या ज़कात देने की बड़ी फ़ज़ीलत है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “जो लोग अपना माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल उस दाने की मानिन्द है जिससे सात बालियां निकलें और हर बाली में सौ दाने हों. और अल्लाह जिसके लिए चाहता है, इज़ाफ़ा कर देता है. और अल्लाह बड़ा वुसअत वाला बड़ा साहिबे इल्म है.(क़ुरआन 2: 261)

ज़कात देना हर उस मुसलमान पर फ़र्ज़ है, जो इसे देने की शर्तों को पूरा करता है. ज़कात देने वालों के लिए बड़ा सवाब है. ऐसे लोग हर ख़ौफ़ और ग़म से बचे रहेंगे.

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक जो लोग ईमान लाए और नेक अमल करते रहे और पाबंदी से नमाज़ पढ़ते रहे और ज़कात अदा करते रहे, तो उनके लिए उनके परवरदिगार के पास उनका अज्र है. और क़यामत के दिन उन्हें न कोई ख़ौफ़ होगा और न वे ग़मगीन होंगे.(क़ुरआन 2:277)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! लेकिन उन लोगों में से पुख़्ता इल्म वाले और मोमिन उस वही पर जो तुम पर नाज़िल की गई है और उस वही पर जो तुमसे पहले नाज़िल की गई, दोनों पर ईमान लाते हैं और वे पाबंदी से नमाज़ पढ़ने वाले और ज़कात देने वाले हैं और अल्लाह और क़यामत के दिन पर ईमान रखने वाले हैं. ऐसे ही लोगों को हम अनक़रीब बड़ा अज्र देंगे.(क़ुरआन 4:162)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ ईमान वालो ! बेशक तुम्हारा कारसाज़ तो अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही हैं और वे मोमिन भी हैं, जो पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात अदा करते हैं और वे अल्लाह की बारगाह में रुजू करने वाले हैं.”(क़ुरआन 5:55)

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क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक दूसरे के रफ़ीक़ हैं और वे भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं और पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात अदा करते हैं और अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इताअत करते हैं. यही वे लोग हैं, जिन पर अल्लाह रहम करेगा. बेशक अल्लाह बड़ा ग़ालिब बड़ा हिकमत वाला है.”(क़ुरआन 9:71)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और तुम पाबंदी से नमाज़ पढ़ा करो और ज़कात देते रहो और अल्लाह के अहकाम को मज़बूती से थामे रहो. और अल्लाह ही तुम्हारा मौला है और वही बेहतरीन मौला और वही बेहतरीन मददगार है.(क़ुरआन 22:78)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “अल्लाह के इस नूर के हामिल वे लोग हैं, जिन्हें तिजारत और ख़रीद- फ़रोख़्त न अल्लाह के ज़िक्र से ग़ाफ़िल करती है और न नमाज़ पढ़ने से और न ज़कात अदा करने से, बल्कि वे लोग उस दिन से ख़ौफ़ रखते हैं, जिसमें दहशत से दिल और आंखें सब उलट पलट हो जाएंगे.”(क़ुरआन 24:37)

लोग समझते हैं कि ब्याज़ पर पैसा देने से उनका माल बढ़ जाएगा, लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं होता. भले ही दुनिया में ब्याज़ के ज़रिये उनका माल बढ़ जाए, लेकिन अल्लाह के यहां इसकी कोई अहमियत नहीं है.असल माल तो सदक़ा देने से ही बढ़ता है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और तुम जो माल ब्याज़ पर देते हो, ताकि वह लोगों के माल में मिलकर बढ़ता रहे, तो वह अल्लाह के नज़दीक नहीं बढ़ेगा. और तुम जो माल अल्लाह की ख़ुशनूदी की चाह में ज़कात व ख़ैरात के तौर पर देते हो, तो वही लोग अपना माल बढ़ाने वाले हैं.”(क़ुरआन 30:39)

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क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “जो लोग पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात देते हैं और जो आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं. यही लोग अपने परवरदिगार की तरफ़ से हिदायत पर हैं और यही लोग कामयाबी पाने वाले हैं.”(क़ुरआन 31:4-5)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और नमाज़ पाबंदी से पढ़ो और ज़कात देते रहो. और अल्लाह को क़र्ज़े हसना दिया करो यानी अल्लाह की राह में ख़र्च किया करो और उसकी मख़लूक़ से हुस्ने सुलूक करो. और तुम जो नेक आमाल आगे भेजोगे, तो अल्लाह के हुज़ूर में उसका बड़ा अज्र पाओगे.”(क़ुरआन 73:20)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और उन लोगों को सिर्फ़ यही हुक्म दिया गया था कि वे अल्लाह ही की इबादत करें. हर बातिल से जुदा होकर अपनी इबादत को ख़ालिस रखें और पाबंदी से नमाज़ पढ़ें और ज़कात देते रहें.” और यही सच्चा और मुस्तहकम दीन है.(क़ुरआन 98:5)

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है- “सदक़ा परवरदिगार के गु़स्से को बुझा देता है और बुरी मौत से बचाता है.” आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है- “ख़ैरात मत रोको, वरना तुम्हारा रिज़्क़ भी रोक लिया जाएगा.”

एक हदीस के मुताबिक़ सदक़ा करके अपने और अपने परवरदिगार के दरम्यान ताल्लुक़ पैदा करो. तुम्हें रिज़्क़ दिया जाएगा, तुम्हारी मदद भी की जाएगी और तुम्हारे नुक़सान की भरपाई भी की जाएगी.

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सबसे अफ़ज़ल सदक़ा

अबु हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से किसी ने पूछा कि सबसे अफ़ज़ल सदक़ा कौन सा है ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि कम माल वाले को सदक़ा देने की बहुत ज़्यादा कोशिश करना सबसे अफ़ज़ल सदक़ा है और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाया कि उसे दो जिसकी ज़रूरियात तुम पर वाजिब है.

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “मिस्कीन को सदक़ा देना तो एक सदक़े का सवाब है, लेकिन किसी रिश्तेदार को सदक़ा देना दोहरा सवाब है. एक तो सदक़े का और दूसरा सिल-ए-रहमी का.

अमूमन रमज़ान में ख़ैरात मांगने वालों की बाढ़ आ जाती है. जहां भी देखो ख़ैरात मांगने वाले दिखाई देते हैं. इनमें औरतें और मर्द दोनों ही शामिल हैं. ये पेशेवर होते हैं, जिनका काम ही मांगना है.

मस्जिदों के दरवाज़ों पर इन्हें देखा जा सकता है. इसके अलावा ये लोग गली मुहल्लों में घर-घर जाकर ख़ैरात मांगते हैं. ऐसे पेशेवर लोगों को ख़ैरात देना मुनासिब नहीं है.

वैसे भी इस्लाम में भीख मांगने को बहुत बुरा माना जाता है. एक हदीस के मुताबिक़ जो शख़्स मेहनत करने के क़ाबिल होने के बावजूद भीख मांगे, तो रोज़े मेहशर उसकी पेशानी पर काला दाग़ होगा.

इसीलिए इस बात का ख़ास ख़्याल रखा जाए कि ज़कात उन लोगों तक पहुंचानी चाहिए, जो इसके असल हक़दार हैं. यानी ऐसे ज़रूरतमंद लोग जो भूखे सो जाते हैं, लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते.इसलिए ज़कात की रक़म उन रिश्तेदारों को देनी चाहिए, जो बहुत ज़्यादा ज़रूरतमंद हैं.

यतीम और मिस्कीन लोग भी इसके हक़दार हैं. रिश्तेदारी या पड़ौस में कुछ ऐसे घर भी होते हैं, जिनमें सिर्फ़ बूढ़ी या बेवा औरतें और छोटे बच्चे होते हैं और उनके घर कोई कमाने वाला भी नहीं होता या औरतें कुछ काम भी करती हैं, तो इतना नहीं कमा पातीं कि उनका सही से गुज़ारा हो सके.

ऐसे में ज़कात के सबसे ज़्यादा हक़दार यही लोग हैं. इसलिए बेहतर यही है कि ज़कात अपने ज़रूरतमंद क़रीबी रिश्तेदारों और पड़ौसियों को दी जाए. साथ ही इस बात का भी ख़्याल रखा जाए कि ज़कात की रक़म कई लोगों में थोड़ी-थोड़ी तक़सीम करने की बजाय किसी एक को ही दे दी जाए, ताकि उसका काम सही से चल सके. ज़कात की रक़म से किसी का क़र्ज़ भी उतारा जा सकता है या किसी बीमार को इलाज के लिए भी ये रक़म दी जा सकती है.

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याद रखें कि ज़कात ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने के लिए ही मुक़र्रर की गई है, इसलिए इसे सही जगह पहुंचाएं. इस बात का भी ख़्याल रखें, जिन्हें ये रक़म दी जा रही है, उन्हें शर्मिंदगी का अहसास न हो.

उन्हें मदद के तौर पर ये रक़म दें. उन्हें महसूस हो कि ये रक़म देकर उन पर कोई अहसान नहीं किया जा रहा है, बल्कि इस पर उनका हक़ है.

(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)

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