मुगल शहंशाह की मोहब्बत का पहला 'ताजमहल' अब खंडहर बन गया है !

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 22-02-2023
मुगल शहंशाह की मोहब्बत का पहला 'ताजमहल' अब खंडहर बन गया है !
मुगल शहंशाह की मोहब्बत का पहला 'ताजमहल' अब खंडहर बन गया है !

 

अमरीक                                       

शायद ही कोई इस बात से नावाकिफ हो कि दुनिया के मशहूर अजूबों में से एक ताजमहल मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज की मोहब्बत में बनवाया था लेकिन इस तथ्य से बहुतेरे लोग सिरे से अनजान है कि शाहजहां से पहले उसके पिता जहांगीर ने भी अपनी बेगम नूरजहां उर्फ मेहरून्निसा के लिए एक बेहद खूबसूरत महल बनवाया था. इस महल का नाम रखा गया था

नूरमहल! यह नाम पढ़ते ही आपके दिमाग में जालंधर और लुधियाना के बीच जीटी रोड पर स्थित कस्बे नूरमहल का नाम गूंजा होगा क्योंकि नूरमहल का जिक्र इन दिनों भी अक्सर आशुतोष महाराज (जिनके बारे में कहा जाता है कि वह लंबी समाधि में लीन हो गए हैं और अदालत तक में यह मामला गया कि वह शारीरिक रूप से मर चुके हैं) के डेरे दिव्य जागृति संस्थान के संदर्भ में कई बार आया है!

आशुतोष बाबा का डेरा दिव्य जागृति संस्थान उसी नूरमहल में स्थित है, जहां मुगल शहंशाह जहांगीर ने नूरजहां की मुहब्बत की निशानी के तौर पर कभी आलीशान महल बनवाया था और उसको नूरमहल का नाम दिया था!.

बेमिसाल और विभिन्न ऐतिहासिक वजहों से बेमिसाल ताजमहल आज भी जस का तस है और एक तरह से विश्वस्तरीय हिंदुस्तानी धरोहर! ताजमहल का पहला अध्याय खुलते ही सामने यह आता है कि यह मुगल बादशाह और जहांगीर के फरजंद शाहजहां ने बेगम मुमताज की बेपनाह मुहब्बत में जो महल 'ताज' बनवाया था वही ताजमहल कहलाया और किवदंती बन गया.

शाहजहां के वालिद ने जो पैगाम-ए-मोहब्बत की निशानी पंजाब में जो महल 'नूर' बनवाया था, दुनिया के नक्शे में तथा मुगल इतिहास में वह कहां खड़ा है? सिवा इसके कि उस कस्बे का नाम जरूर 'नूरमहल' हो गया! महल आज भी है और उसे देखने भी लोग-  बाग दूर-दूर से आते हैं. खास तौर पर वे लोग जिनकी दिलचस्पी मुगल इतिहास और मुगलिया वास्तुकला में है.            

नूरमहल कस्बे का जिला मुख्यालय जालंधर है जो कस्बे से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है. जालंधर से लुधियाना के बीच. जीटी रोड के एक तरफ दो सदियों से ज्यादा अरसा पहले मंदिरों में सुबह-शाम गाई जाने वाली आरती "ओम् जै...." लिखने वाले श्रद्धाराम फिल्लौरी का कस्बा फिल्लौर है तो दूसरी तरफ नूरमहल.

फिल्लौर जिला लुधियाना का उपमंडल है तो नूरमहल जालंधर की तहसील. दोनों के जिला मुख्यालय अलग-अलग हैं जबकि दोनों कस्बे आमने-सामने बसे हुए हैं. दोनों ऐतिहासिक महत्व रखने वाले कस्बे हैं लेकिन दोनों ही घोर उपेक्षित भी हैं! अपनी अहम खसूसियतों के बावजूद.  

 नूरजहां उर्फ मेहरून्निसा का जन्म नूरमहल में हुआ था. मुगल काल में यह स्थान लाहौर से दिल्ली जाते वक्त रास्ते में पड़ता था.

नूरजहां के वालिद का नाम मिर्जा मोहम्मद बेग था. इतिहास में उनकी बाबत कोई खास जानकारी नहीं मिलती. वह ईरान से दिल्ली जा रहे थे. उनके विशाल काफिले ने यहां विराम लिया और उनकी गर्भवती बेगम को प्रसव पीड़ा होने लगी. जो शिशु पैदा हुआ उसका नाम नूरजहां रखा गया था.

मौखिक इतिहास है कि नूरजहां को अपनी जन्मभूमि से बेपनाह लगाव था. बेशक चलते पड़ाव के बीच के एक विराम में उनका जन्म अनजान-सी एक जगह पर हुआ था. जिसका पुश्तैनी तौर पर उनके पिता मिर्जा मोहम्मद बेग से कुछ लेना-देना नहीं था. यह तो आगे जाकर उसे मालूम हुआ कि उसका जन्म हिंदुस्तान के किस हिस्से में हुआ था.

 नूरजहां बेपनाह खूबसूरती की मल्लिका थी. मुगल शहंशाह जहांगीर से पहले उसका निकाह शेर अफगान अली कुली के साथ हुआ था.

दोनों उत्तरी बंगाल में रहते थे. ज्ञात इतिहास में यह भी विश्वसनीय तौर पर कहीं दर्ज नहीं है कि शहंशाह जहांगीर ने पहले-पहल नूरजहां उर्फ मेहरून्निसा को कहां देखा था कि उस पर इस कदर फिदा हो गया.

वह चाहता था कि नूरजहां शेर अफगान अली कुली को तलाक देकर उसके साथ निकाह कर ले. इस तरह के कई पैगाम और मुहब्बत का इजहार करते पत्र नूरजहां को मुतवातर भिजवाए जाते रहे लेकिन जवाब में जहांगीर को इनकार ही मिलता था.

लोककथाओं में प्रचलित है कि जैसे ही जहांगीर ने बतौर शहंशाह मुगल साम्राज्य की गद्दी संभाली तो अकूत ताकत के बूते उसने अली कुली का कत्ल करवा दिया. हालांकि ज्यादा इतिहासकार इससे सहमति नहीं रखते. लेकिन शेर अफगान अली कुली की बाबत कहीं कोई पुख्ता जानकारी भी इतिहासकार नहीं दे पाए.

इसलिए लोक कथाओं को ही इतिहास मान लिया जाना चाहिए जो पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाया-बताया जाता है. मौखिक इतिहास की परंपरा समूची दुनिया में है और उस पर यकीन करने वालों की भी कोई कमी नहीं. कोई ना कोई स्रोत जरूर होता है जो इतिहास की सच्चाई के समीप ले जाता है.

बताते हैं कि खुद शहंशाह जहांगीर ने कई बार नूरजहां के आगे अपनी बेपनाह मुहब्बत का शिद्दती इजहार करने के लिए उसके दरवाजे पर दस्तक दी.

लंबी कवायद के बाद शाहजहां को अपनी मुहब्बत मिली और बड़ी मान-मनोव्वल के बाद किसी तरह नूरजहां शहंशाह जहांगीर से निकाह को राजी हुई. दीगर है कि बाद में नूरजहां उर्फ मेहरून्निसा शहंशाह जहांगीर से दिली मुहब्बत करने लगी.

मुगल शहंशाह जहांगीर का समर्पण उसे निरंतर उसके करीब लाता गया. शहंशाह जहांगीर अपनी बेगम नूरजहां की हर ख्वाहिश पूरी करने को तत्पर रहता था. नूरजहां की ख्वाहिश थी कि उसकी जन्मस्थली पर उसकी कोई यादगार शहंशाह जहांगीर बनाकर उसे तोहफे में दे. सो आलीशान महल के लिए उसी जगह का चयन किया गया जहां नूरजहां का जन्म हुआ था.

बरसों युद्ध स्तर पर निर्माण कार्य चलता रहा और विशाल महल 1613 में पूरी तरह मुकम्मल हुआ तथा इस तरह यह तोहफा शाहजहां ने अपनी बेगम नूरजहां को अर्पित किया. बताते हैं कि प्रवास के लिए बेगम यहां अक्सर आकर ठहरा करती थी.

मुगल बादशाह शाहजहां के पास सैकड़ों आलीशान महल थे लेकिन नूरजहां को यही महल पसंद था जो उसकी मुहब्बत की निशानी के तौर पर बनाया गया था. बाद में इस रियासतनुमा इलाके का नाम ही 'नूरमहल'हो गया. अंग्रेज हुक्मरानों के गजट में भी इस बाबत इससे ज्यादा ब्यौरा नहीं मिलता.

कयास हैं कि शहंशाह शाहजहां के वारिस नूरजहां को नापसंद करते थे और उनकी दूसरी बेगमें भी. दरबारियों और शहंशाह के अधिकारियों को भी वह ज्यादा पसंद नहीं थी. चूंकि शहंशाह जहांगीर की सबसे बड़ी मुहब्बत थी इसलिए सब उसका ऐहतराम और अतिरिक्त लिहाज करते थे.

नूरजहां की जादुई मोहब्बत में लगभग पागल जहांगीर ने ऊपर से लेकर नीचे तक सबको हुकुम दिया हुआ था कि नूरजहां कि किसी भी बात को आदेश की तरह लिया जाए और माना जाए कि यह शहंशाह का हुक्म है! दोनों जब दुनिया से रुखसत हो गए तो नूरजहां से संबंधित यादगारों का जो हश्र हुआ, उसकी एक बड़ी मिसाल सबके सामने है.

  जो महल नूरजहां को सबसे ज्यादा पसंद था और जिसके नाम पर पूरे एक कस्बे का नाम नूरमहल रखा गया, वह आज खस्ताहाल है. ताजमहल से उसकी बस इतनी ही तुलना की जा सकती है कि एक उगता सूरज है और दूसरा ढलती शाम.

उगता सूरज तो संसार भर में रोशनी फैलाता है लेकिन ढलती शाम बेनूर है! जबकि नूरमहल को भी मुहब्बत की बेपनाह निशानी के तौर पर एक मुगल शहंशाह ने ही बनवाया था और ताजमहल को भी इसी भावना के साथ बनवाया गया था.

नियति का खेल है कि दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है. यहां यह कहावत बखूबी लागू होती है कि अक्सर शहंशाह, शहंशाह से उसका सिहासन लेता है और विरासत खुद की नए सिरे से तैयार करता है.

खैर, रखरखाव और बाद में बेदिली से घोर उपेक्षित किए गए शहंशाह शाहजहां के वारिसों ने कभी उसकी सुध नहीं ली और इस बात का ख्याल नहीं रखा की नूरमहल भी मुगल साम्राज्य की एक अहम यादगार जगह रही है.

मुगल साम्राज्य खत्म हो गया और नए हुकमरान नए मिजाज तथा कायदे-कानूनों के साथ नमूदार हुए लेकिन उन्होंने भी इस ओर किसी किस्म की कोई तवज्जोह नहीं दी. जबकि वास्तुकला के लिहाज से यह बेहद संग्रहनीय है. 1947 के बंटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान का वजूद अलहदा-अलहदा सामने आया.

जो हिस्सा पाकिस्तान बना वहां से (भी) बड़ी तादाद में हिजरत करके हिंदू और सिख भारतीय पंजाब आए. बंटवारा लहू पीने वाली सियासत की बुनियाद पर हुआ था. भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब मानों खून की नदियों में कई दिन तक नहाते रहे.

पाकिस्तान से हिजरत करके आए लोग प्रतिशोध की भावना में नूरमहल के मुसलमानों पर टूट पड़े. आहत और बेबस मुसलमानों ने अपनी जान और खातूनों की इज्जत बचाने के लिए बेगम नूरजहां उर्फ मेहरून्निसा के विशालकाय महल में पनाह ली.

दंगाइयों को खबर लगी तो उसे भी तहस-नहस करने की कोशिश की गई लेकिन ज्यादा कामयाबी इसलिए नहीं मिली कि महल का एक-एक दरवाजा, एक-एक दीवार और एक-एक ईंट बेजोड़ और बेतोड़ थी. जिन्होंने 1947 में उस महल में पनाह ली, बाद में अधिकांश यहीं बस गए.

नूरमहल कस्बे का नाम भी तब ज्यादा प्रचलित हुआ. आज भी इस कस्बे के इर्द-गिर्द नैसर्गिक हरियाली के नजारे देखने को मिलते हैं.  रही बात महल 'नूर' की तो वह अब उजड़ कर रफ्ता-रफ्ता खंडहर में तब्दील जा रहा है.

सूरत-ए-हाल यह है कि अब देखने पर आपको विश्वास नहीं होगा कि खस्ताहाल यह महल कभी शहंशाह शाहजहां की बेगम नूरजहां को मिला एक नायाब तोहफा था जो अब धूल का फूल है! (आज के वक्त के हिसाब से अंदाजा लगाएं तो करोड़ों रुपए उस पर खर्च हुए थे).   

 

पंजाब सरकार और राज्य तथा राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग ने भी, लगता है इस महल की ओर पीठ की हुई है. किसी ने कायदे से कभी इसकी सुध नहीं ली. अलबत्ता मुगल शहंशाह शाहजहां और बेगम नूरजहां की प्यार की अनमोल निशानी, जिसे महल कम-किला कहा जाता था,

में आज पुलिस थाना बना हुआ है और एक तरफ बच्चों के लिए सरकारी स्कूल चल रहा है. जबकि कभी इसके भीतर मस्जिद, रंग महल और डाक बंगला होते थे. सुनी-सुनाई है कि बेगम नूरजहां को परिंदों से बेहद लगाव था और उनकी करवल चौतरफा महल में चहचाहती रहती थी.

नूरमहल के मुख्य दरवाजे पर दो हाथी बने हुए हैं और उनकी सूंड मुगल साम्राज्य की मानिंद ऊपर को उठी हुई है. बस वही आगुंतकों का स्वागत करते मिलते हैं.

सन 47 में इनकी तोड़फोड़ की भी कोशिश की गई थी लेकिन जिस मिट्टी से ये बने हैं, उस मिट्टी ने इन्हें तहस-नहस नहीं होने दिया और कायम रखा.  नतीजतन आजतलक कायम हैं. नूरमहल को 'नूरसराय' भी कहा जाता है. इसमें 48 कोष्ठ और दो बुर्ज हैं.

इस पत्रकार ने नूरमहल की बाबत आंखों देखी और कानों सुनी बयान की है. लिखित इतिहास प्रमाणिक तौर पर मिल नहीं पाया. इतना और बता दें कि नूरमहल से वाबस्ता कई लोकगीत हैं : "दो तारा वदजा वे नूरमहल दे मोरी".

कोई जमाना था जब यहां विशाल मेला भी लगता था और उसमें गायक इस लोकगीत को भारी फरमाइश पर बार-बार गाते थे. प्रसंगवश, कई फिल्मों के शूटिंग नूरमहल में हो चुकी है. आमिर खान और शाहिद कपूर जैसे सितारे और संजय लीला भंसाली तथा यश चोपड़ा एवं उनके परिवार के लोग भी इसे देखने आ चुके हैं.