क्रांतिकारी अशफ़ाकउल्ला खां शहादत दिवस : वतन हमेशा रहे शाद—काम और आज़ाद

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 19-12-2022
क्रांतिकारी अशफ़ाकउल्ला खां शहादत दिवस : वतन हमेशा रहे शाद—काम और आज़ाद
क्रांतिकारी अशफ़ाकउल्ला खां शहादत दिवस : वतन हमेशा रहे शाद—काम और आज़ाद

 

ज़ाहिद ख़ान 
 
19 दिसम्बर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और अशफ़ाकउल्लाह ख़ां जैसे वतनपरस्त इंक़लाबियों का शहादत दिवस है. मुल्क की आज़ादी के लिए जिन्होंने अपनी जान कुर्बान कर दी. इन तीनों क्रांतिकारियों का क्रांतिकारी जीवन का आग़ाज़ भले ही अलग-अलग हुआ हो, मगर अपने मादरे वतन पर कु़र्बान एक साथ हुए. उन जैसे सैकड़ों क्रांतिकारियों की कु़र्बानियों का ही नतीजा है कि हम आज आज़ाद हैं. खुली फ़िज़ा में सांस ले रहे हैं. उत्तर प्रदेश के जिला शाहजहानपुर में एक मज़हबी और परंपरावादी परिवार में 22 अक्टूबर, 1900 को पैदा हुए अशफ़ाकउल्लाह ख़ां को बचपन से ही अलग-अलग हुनर हासिल करने और पढ़ने का बहुत शौक था.

जब वो स्कूल में ही थे, तो बंगाल के इंक़लाबियों की सरगर्मियों की ख़बरें अख़बारों में पढ़ते और सुनते रहते थे.
 
मैनपुरी साजिश के सिलसिले में उनके स्कूल और शहर में हुई गिरफ़्तारियां, खु़दीराम बोस और कन्हैया लाल दत्त की कुर्बानियों के नुक़ूश उनके मासूम जे़हन पर अपना असर छोड़ रहे थे। वे इन वाक़यात से इतना मुतास्सिर हुए कि खु़द भी इंक़लाबी बनने का ख़्वाब देखने लगे.
 
अपने वतन के लिए कुछ करने का यही जज़्बा था कि जब क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल मैनपुरी मामले के बाद शाहजहानपुर में अंडरग्राउंड थे, तो अशफ़ाक़उल्ला ख़ां न सिर्फ़ उनसे मिले, बल्कि इंक़लाबी तहरीक में शामिल होने की अपनी मंशा का इज़हार भी किया. बिस्मिल ने शुरू में अशफ़ाक़उल्ला की इस पेशकश को ठुकरा दिया, लेकिन जब उन्होंने इस बात का लगातार इसरार किया, तो उन्हें अपने क्रांतिकारी दल में शामिल कर लिया.
 
आगे चलकर अशफ़ाक़उल्ला ख़ां मुल्क की इंक़लाबी तहरीक के एक जांबाज़ इंक़लाबी साबित हुए.यहां तक कि ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ मामले में अदालत के अंदर जब सुनवाई शुरू हुई, तो मजिस्ट्रेट ने अशफ़ाक़उल्ला ख़ां को रामप्रसाद बिस्मिल का लेफ़्टिनेंट क़रार दिया.
 
साल 1924 में क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने कुछ साथियों के साथ ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना की. सचिन्द्र नाथ सान्याल संगठन के अहम कर्ता-धर्ता थे, तो वहीं रामप्रसाद बिस्मिल को सैनिक शाखा का प्रभारी बनाया गया. इस संगठन के माध्यम से क्रांतिकारियों ने पूरे देश में आज़ादी के आंदोलन को एक नई रफ़्तार दी.
 
संगठन की तमाम बैठकों में सिर्फ़ एक ही नुक़ते, देश की आज़ादी पर बात होती। यही नहीं अंग्रेज़ हुकूमत से किस तरह से निपटा जाए, क्रांतिकारी इसके लिए नई-नई योजनाएं बनाते। क्रांति के लिए हथियारों की ज़रूरत थी और ये हथियार बिना पैसों के हासिल नहीं हो सकते थे. रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी दल ने एक और बड़ी योजना बनाई. यह योजना थी, सरकारी ख़ज़ाने को लूटना। 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन को काकोरी स्टेशन पर लूट लिया गया. इस सनसनीखेज़ वाक़ये को राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ बख्शी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती और अशफ़ाकउल्लाह ख़ां समेत दस क्रांतिकारियों ने अंज़ाम दिया.
 
क्रांतिकारी, ट्रेन में रखे ख़ज़ाने को लूटकर रफ़ूचक्कर हो गए. क्रांतिकारियों का यह वाक़ई दुःसाहसिक कारनामा था। इस वाक़यात से पूरे देश में हंगामा हो गया. अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ गई। काकोरी ट्रेन एक्शन के बाद बौखलाए अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के 40 क्रांतिकारियों पर डकैती और हत्या का मामला दर्ज़ किया. 
काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी एक के बाद एक गिरफ़्तार कर लिए गए, मगर अशफ़ाकउल्लाह ख़ां पूरे सवा साल तक अंग्रेज़ हुकूमत की गिरफ़्त में नहीं आए. आखि़रकार 8 दिसम्बर, 1926 को उन्हें दिल्ली में गिरफ़्तार कर जे़ल भेज दिया गया. जे़ल में रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों को पुलिस द्वारा कई प्रलोभन दिए गए कि वे सरकार से माफ़ी मांग लें, उन्हें रिहा कर दिया जाएगा.
 
अशफ़ाकउल्लाह ख़ां को भी मशवरा दिया गया कि वो अपना जुर्म कबूल कर लें, तो फ़ांसी की सज़ा से बच सकते हैं। मगर वे इन प्रलोभनों में नहीं आए. काकोरी ट्रेन डकैती मामला, अदालत में तक़रीबन डेढ़ साल चला। इस दरमियान अंग्रेज़ सरकार की ओर से तीन सौ गवाह पेश किए गए, लेकिन वे यह साबित नहीं कर पाए कि इस वारदात को क्रांतिकारियों ने अंज़ाम दिया है। बहरहाल, अदालत की यह कार्यवाही तो महज़ एक दिखावा भर थी.
 
इस मामले में फै़सला पहले ही लिख दिया गया था. क्रांतिकारियों को भी यह सब मालूम था, लेकिन वे ज़रा सा भी नहीं घबराए. अदालत के सामने बेख़ौफ़ बने रहे. आख़िरकार, अदालत ने बिना किसी ठोस सबूत के रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों को काकोरी कांड का गुनहगार ठहराते हुए, फ़ांसी की सजा सुना दी. इस एक तरफ़ा फै़सले के बाद भी आज़ादी के मतवाले जरा सा भी नहीं घबराए और उन्होंने पुर—ज़ोर आवाज़ में अपनी मनपसंद ग़ज़ल के अशआर अदालत में दोहराए, ‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है.’’ यह अशआर अदालत में नारे की तरह गूंजा, जिसमें अदालती कार्यवाही देख रही अवाम ने भी अपनी आवाज़ मिलाई.
 
फ़ांसी की सजा भी अशफ़ाक़उल्ला ख़ां को तोड़ नहीं पाई. वे बेख़ौफ़ ही बने रहे. अपने मादरे वतन की आज़ादी  के लिए कु़र्बान होने का जज़्बा उनके दिल में बना रहा. 8 अक्टूबर, 1927 को जे़ल से अपने परिवार को लिखे ख़त में उन्होंने बड़े ही फ़ख्र से लिखा था,‘‘मैं तख़्तये मौत पर खड़ा हुआ ये ख़त लिख रहा हूं, मगर मुतमईन व खुश हूं कि मालिक की मर्ज़ी इसी में थी.
 
बड़ा खु़शक़िस्मत है वो इंसान जो कु़र्बानगाहे वतन पर कु़र्बान हो जाए.’’ फांसी से दो दिन पहले जब उनके वकील अशफ़ाक़ के भाईयों और भतीजों के साथ उनसे जे़ल में मिलने आए, तो रुख़सत के वक़्त वकील ने उनसे दरयाफ़्त किया, ‘‘अशफ़ाक़उल्ला कोई और आख़िरी ख़्वाहिश का इज़हार करना चाहते हो ?’’ इस पर उन्होंने हँस कर जवाब दिया, ‘‘हां, एक ख़्वाहिश है, अगर आप पूरा कर सकें। परसों सुबह मैं फांसी के तख़्ते पर चढ़ूंगा.
 
देखते जाइए कि मैं किस शौक से फांसी पर चढ़ता हूं.’’ फांसी से चंद दिन पहले अशफ़ाक़उल्ला ख़ां ने देशवासियों के नाम एक लंबा पैगाम भी भेजा था, जिसमें देशवासियों से सभी मतभेदों को भुलाकर मुल्क पर मर मिटने की अपील की गई थी. उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों से एकता और भाईचारा क़ायम करने की आरजू़ का इज़हार करते हुए लिखा, ‘‘हिंदुस्तानी भाईयो, आप कोई भी हों, लेकिन आप मुल्क के कामों को मुत्तहिद होकर अंजाम दीजिए, रास्ता चाहे मुख़्तलिफ़ हो, लेकिन सब की मंजिल एक ही है.’’
 
अशफ़ाक़उल्ला ख़ां और उनके इंक़लाबी साथियों का मक़सद सिर्फ़ आज़ादी हासिल करने तक ही महदूद नहीं था, बल्कि वे किस तरह की आज़ादी चाहते हैं और देश की भावी तस्वीर किस तरह की होगी ?, इसके बारे में भी उनके ख़यालात साफ थे. उनके जे़हन में आज़ादी का क्या तसव्वुर था और किसानों, मज़दूरों के बारे में उनकी क्या राय थी ?, इसका भी खु़लासा अशफ़ाक़उल्ला ख़ां ने अपने इस पैग़ाम में यूं किया है, ‘‘मेरा दिल गरीब किसानों और दुखी मज़दूरों के लिए हमेशा फ़िक्रमंद रहा है.
 
मेरा बस हो तो दुनिया की हर मुमकिन चीज़ उनके लिए समर्पित कर दूं. हमारे शहरों की रौनकें उनके दम से हैं. हमारे कारख़ाने उन की वजह से आबाद और काम कर रहे हैं......मैं हिंदुस्तान की ऐसी आज़ादी का ख़्वाहिशमंद था, जिसमें गरीब खु़श और आराम से रहते और सब बराबर होते। खु़दा मेरे बाद ज़ल्द वो दिल लाए.’’ 19 दिसंबर, 1927 को अशफाकउल्ला ख़ां को फैज़ाबाद की ज़ेल में फ़ांसी दे दी गई.
 
अशफ़ाकउल्लाह ख़ां ने लखनऊ और फै़ज़ाबाद की जे़ल में अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो मुकम्मिल तो नहीं हो पाई, लेकिन जितनी भी है, उसमें उनके खानदान, शुरुआती संघर्ष और उनकी ज़िंदगी से जुड़ी तमाम अहमतरीन बातों का पता चलता है. अशफ़ाकउल्लाह ख़ां ने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है, ‘‘मोहब्बत का माद्दा जिसके दिल में होगा, वही देश के लिए सब कुछ कर गुज़रेगा.’’ अशफ़ाक़उल्ला ख़ां को शायरी का भी शौक था. कमउम्री में ही वे शे’र कहने लगे थे.
 
खुदीराम बोस और कन्हाई लाल दत्त की शहादत के बाद उन्होंने यह अशआर लिखे थे, ‘‘ऐ क़ायदीन-ए-मिल्लत, ये खूब याद रखो/हैं बोस और कन्हाई अब भी बहुत वतन में/सय्याद जुल्म पेश आया है जब से ‘हसरत’/हैं बुलबुलें कफ़स में, ज़ाग़-ओ-ज़ग़न चमन में’’ उनका तख़ल्लुस ‘हसरत’ था। वे अपना पूरा नाम अशफ़ाक़उल्ला ख़ां ‘हसरत’ वारसी लिखते थे. अशफ़ाक के कलाम पर यदि नज़र डालें, तो उनकी पूरी शायरी वतनपरस्ती और आज़ादी की जद्दोजहद में डूबी हुई है.
 
शायरी के मार्फ़त भी उन्होंने अपने इंक़लाबी जज़्बात बयां किए हैं. सच बात तो ये है कि वे इंक़लाबी शायर थे. अशफ़ाकउल्लाह ख़ां जब फांसी पर चढ़े, तो उनकी उम्र महज़ सत्ताईस साल थी. इतनी कम उम्र में अपने वतन के लिए अशफ़ाकउल्लाह ख़ां जो कर गुज़रे, वह आज भी एक बड़ी मिसाल है. वतन के लिए उनके दिल में क्या दीवानगी और जज़्बा था, ये उनके इस शे’र में बयां होता है, ‘‘वतन हमेशा रहे शाद—काम और आज़ाद/हमारा क्या है,अगर हम रहे,रहे न रहे.’’