मंजीत ठाकुर
भारत एक गणतंत्र के रूप में अगर सुरक्षित है तो इसके पीछे देश के सैनिकों का सर्वोच्च बलिदान भी है. जिस वक्त हम अपने घरों में रजाइयों में दुबके रहते हैं, त्योहार और खुशियां मनाते हैं. उसी समय हमारे सैनिक सरहद पर अत्यंत विषम और दुर्गम परिस्थितियों में दुश्मनों की निगहबानी कर रहे होते हैं.
देश में ऐसे सैनिकों के लिए बहुत सारे शौर्य अलंकरण हैं लेकिन उनमें सर्वोच्च है परमवीर चक्र.
परमवीर चक्र दुश्मनों के बीच उच्च कोटि की शूरवीरता और बलिदान के लिए प्रदान किया जाता है. इस पुरस्कार की शुरुआत 26 जनवरी, 1950 को की गयी थी जब भारत गणराज्य घोषित हुआ था.
भारतीय सेना के किसी भी अंग के अधिकारी या कर्मचारी इस पुरस्कार के पात्र होते हैं एवं इसे देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न के बाद सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार समझा जाता है. इससे पहले जब भारतीय सेना ब्रिटिश सेना के तहत कार्य करती थी तो सेना का सर्वोच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस हुआ करता था.
लेफ्टिनेंट या उससे कमतर पदों के सैन्य कर्मचारी को यह पुरस्कार मिलने पर उन्हें (या उनके आश्रितों को) नकद राशि या पेंशन देने का भी प्रावधान है.
अभी तक कुल 21 योद्धाओं को परमवीर चक्र दिया जा चुका है. लेकिन हमारे देश की खासियत देखिए कि देश के लिए अद्भुत जांबाजी दिखाने वाले शूरवीरों में सभी धर्मों के लोग शामिल हैं. हिंदुस्तान की खासियत है कि हर धर्म के सैनिक ने अपनी मिट्टी के लिए दुश्मनों के दांत खट्टे किए हैं.
हालांकि, सैनिकों के धर्म की बात करना उनके शौर्य को अनदेखा करने जैसा होगा. लेकिन ऐसे वक्त में, जब कुछ लोग धर्म के आधार पर देशभक्ति की पैमाइश करते हैं. यह सबको याद दिलाना बेहद आवश्यक है कि, सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में.
आवाज- द वॉयस की तरफ से सभी 21 परमवीर सेनानियों को नमन है, लेकिन आप ध्यान दें कि पहले परमवीर चक्र सोमनाथ शर्मा हिंदू थे, तो जोगिंदर सिंह और बाना सिंह सिख, कंपनी क्वॉर्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद मुस्लिम समुदाय के थे तो एल्बर्ट एक्का ईसाई और आर्देशिर तारापोर पारसी.
मेजर सोमनाथ शर्मा
देश को आजाद हुए बमुश्किल चार महीने हुए थे कि 3 नवंबर 1947 को पाकिस्तान ने कबीलाई घुसपैठियों के साथ कश्मीर पर हमला बोल दिया था. पाकिस्तान का मकसद था श्रीनगर एयरबेस को अपने कब्जे में करना. पाकिस्तानी फौज समेत उन कबीलाई घुसपैठियों की संख्या 700 से अधिक थी. मेजर सोमनाथ शर्मा की अगुआई में बडगाम के पास महज 50 फौजी थे. लेकिन मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपने जवानों के साथ न सिर्फ छह घंटे तक आगे बढ़ने से रोके रखा. बल्कि 200 घुसपैठियों को नर्क पहुंचा दिया. इस दौरान हमारे 22 जवान शहीद हो गए.
मेजर सोमनाथ शर्मा और उनकी कंपनी के उस दिलेरी भरे युद्ध ने श्रीनगर हवाई अड्डे को कबायलियों के हाथों जाने से बचा लिया था और भारतीय सेना को इतना वक्त दे दिया था कि और अधिक टुकड़ियां वहां पहुंच सकें. मेजर सोमनाथ शर्मा को उनके सर्वोच्च बलिदान के लिए मरणोपरांत सबसे बड़े वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
बाना सिंह
'सियाचिन हीरो' के नाम से मशहूर बाना सिंह ने जून 1987 में 21,000 फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म चौकी पर हमले का नेतृत्व किया था. इस हमले में छह पाकिस्तानी जवान मारे गए थे और इस रणनैतिक पोस्ट पर भारत का नियंत्रण हो गया था.
इस पोस्ट का नाम बाद में बदलकर 'बाना पोस्ट' कर दिया गया था और सिंह को सन् 1988 में देश का सर्वोच्च वीरता सम्मान यानी परमवीर चक्र से नवाज़ा गया. पाकिस्तानी रक्षा से जुड़े कुछ दस्तावेज़ों में भी इस मिशन का ज़िक्र मिलता है. वहां भी बाना सिंह की बहादुरी को 'अद्वितीय बहादुरी'के रूप में दर्ज किया गया है.
अब्दुल हमीद
अब्दुल हमीद को 1965 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई में खेमकरन सेक्टर में पाकिस्तान के कई पैटन टैंक नष्ट करने के लिए परमवीर चक्र मिला था.
1965 युद्ध के शुरुआती दिन थे. पाकिस्तानी सेना की 1 आर्मर्ड डिवीजन ने जीटी रोड पर राया और बेअस कस्बे पर कब्जा करने की नीयत से हमला बोल दिया. मकसद था व्यास नदी पर बने पुल पर कब्जा करना ताकि पंजाब का बड़ा हिस्सा बाकी भारत से अलग हो जाए. शुरुआत में पाकिस्तानी फौज को कामयाबी भी मिली, मगर फिर भारतीय सेना ने ऐसा जवाब दिया कि दुश्मन के पैटन टैंकों को छिपने की जगह नहीं मिली.
अब्दुल हमीद के परमवीर चक्र साइटेशन में चार टैंक तोड़ने का उल्लेख किया गया है लेकिन हमीद ने वास्तव में सात टैंक तोड़े थे. परमवीर चक्र के लिए उनकी सिफ़ारिश 9 सितंबर को ही चली गई थी, इसलिए उसमें 10 सितंबर को तोड़े गए तीन और टैंकों का ज़िक्र नहीं है.
एल्बर्ट एक्का
2 और 3 दिसंबर 1971को रात के बचे 14 गार्ड की अल्फा और ब्रावे कंपनियों ने मार्च करना शुरू किया जहां वे आमने सामने की लड़ाई में उलझ गए थे. एक्का ने देखा कि विदेशी लाइड मशीन गन उनका साथियों को बहुत नुकसान पहुंचा रही थी. उन्होंने अपनी सुरक्षा की परवाह ना करते हुए वे दुश्मन सेना की के बंकर की ओर बढ़ गए जहां से मशीन गन ताबड़तोड़ गोलियां बरसा रही थी. इस कोशिश में एक्का घायल भी हो गए लेकिन दो सैनिकों को मारने में सफल हुए और मशीन गन को नाकाम किया. वे बंकर को हैंड ग्रेनेड से उड़ाने के बाद वहीं नहीं रुके और एक और मीडियम मशीन गन को खामोश करने का काम किया. एक्का की बहादुरी कोई दुस्साहस की तरह नहीं थी बल्कि उन्होंने बहुत होशियारी से अपने लक्ष्य को अंजाम दिया.
आर्देशिर तारोपोर
1965 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को शिकस्त दी थी. इस जीत के कई हीरो थे. उनमें से एक थे लेफ्टिनेंट कर्नल एबी तारापोर। जिन्होंने अपनी बहादुरी से पाकिस्तानी सेना के हर मंसूबों पर पानी फेर दिया था.
दुश्मन सेना के साथ भारतीय सेना का सियालकोट सेक्टर में घमासान जारी थी. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को इस युद्ध में कमांडिंग आफिसर बनाकर भारतीय फौज की अगुवाई करने के लिए भेजा गया था.
रणनीति के तहत, भारतीय सेना का अपना अगला लक्ष्य कलोई-फिल्लौरा एक्सिस था. 11 सितंबर 1965 को लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की अगुवाई में 17 हार्स को फिल्लौरा में कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. लक्ष्य हासिल करने का मजबूत इरादा लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने अपने टैंकों के साथ फिल्लौरा की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था. जल्द ही सियालकोट सेक्टर का फिल्लौरा इस युद्ध की सबसे बड़ी टैंकों की लड़ाई का साक्षी बनने वाला था. रणनीति के तहत, लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने दुश्मनों के लिए ऐसा चक्रव्यूह तैयार किया, जिससे दुश्मनों का बचकर निकलना संभव नहीं था.
लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर के युद्ध कौशल और साहस के सामने दुश्मन सेना ज्यादा देर तक टिक नहीं पाई. उन्होंने, दुश्मन सेना के इस हमले को पूरी तरह से विफल कर दिया था. वाजिराली में दुश्मन सेना को पटखनी देने के बाद लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने इंफैंट्री बटालियन के साथ फिल्लौरा की तरफ आगे बढ़ गए.
इस गोलाबारी में लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर घायल जरूर हुए लेकिन दुश्मन सेना उनके हौसले को तोड़ने में नाकामयाब रही. दुश्मन सेना की गोलाबारी में घायल होने के चलते लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को इलाज के लिए वापस आने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने रण छोड़कर वापस आने से इंकार कर दिया. अपने जख्मों की परवाह किए बगैर लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर 14सितंबर 1965को अपनी रेजीमेंट के साथ वाजिराली पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ चुके थे. दुश्मन सेना की तमाम मजबूत कोशिशों के बावजूद वे 16सितंबर 1965को जसोरन और बटूर-डोग्रांडी पर कब्जा करने में कामयाब रहे
इस युद्ध में भारतीय सेना ने दुश्मन सेना के 60 टैंकों को ध्वस्त कर दिया. इसी युद्ध के दौरान, अचालक टैंक में आग लगने के चलते लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर वीरगति को प्राप्त हो गए.
लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जारजी तारापुर को फिल्लौर की लड़ाई में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए 1965 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
कौन हैं देश के 21 परमवीर