शहीद मौलवी मोहम्मद बाकिर देहलवीः मौत उसकी कि जमाना करे जिस पर अफसोस!

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 19-09-2021
शहीद मौलवी मोहम्मद बाकिर देहलवी
शहीद मौलवी मोहम्मद बाकिर देहलवी

 

आवाज विशेष । शहीद मौलवी मोहम्मद बाकिर देहलवी

जोहरा सिद्दीकी

16 सितंबर को उर्दू पत्रिकारिता के पहले जांबाज सिपाही और शहीद-ए-कलम मौलवी मुहम्मद बाकिर को 1857 में इस लिए सजा-ए-मौत दी गई, क्यूंकि स्वतंत्रा संग्राम में अंग्ररेज उनके ‘दिल्ली उर्दू अखबार‘ की क्रांतिकारी भूमिका और उसके महत्व का अंदाजा लगा चुके थे. भारत की आजादी में मौलवी मोहम्मद बाकिर के बलिदानों को इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा. जब भी उर्दू पत्रकारिता की आजादी की लड़ाई का जिक्र होता है, ‘दिल्ली उर्दू अखबार‘ के संस्थापक मौलवी बाकिर का नाम हमारी जेहन में जरूर आता है. सच यह है कि उनके उल्लेख के बिना भारतीय उर्दू पत्रकारिता का इतिहास पूरा नहीं होता.

मौलवी मोहम्मद बाकिर का जन्म 1780 में दिल्ली के एक विद्वान परिवार में हुआ था. उनके पूर्वज नादिर शाह के शासनकाल में ईरान से भारत आए थे. उनका वंश पैगंबर हजरत मुहम्मद  (स.) के फारसी साहबी हजरत सलमान फारसी से मिलता है. उनके पिता मौलाना अखुंद मुहम्मद अकबर दिल्ली के जाने-माने इस्लामी विद्वान और दार्शनिक थे. वह अपने इकलौते बेटे को भी अपनी तरह ही एक स्कॉलर बनाना चाहते थे. लेकिन मौलवी मोहम्मद बाकिर का मिजाज बचपन से ही कुछ अलग था. उन्हें केवल विद्वान नहीं बल्कि एक विद्वान-योद्धा  बनना  पसंद था. इसलिए उन्होंने उर्दू साहित्य की दुनिया में भी एक क्रांतिकारी रास्ता अपनाया जो बाद में देश की खिदमत के काम आया. आज उन्हें भारत का पहला शहीद पत्रकार कहा जाता है. जब उन्होंने अंतिम सांस ली तो महमूद रामपुरी के बकौल, हाल यह थाः

मौत उसकी कि जमाना करे जिस पर अफसोस

यूँ तो दुन्या में सभी आये हैं मरने के लिए!

1857 में भारतीयों ने अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ जो विद्रोह किया, अंग्रेजों ने उसकी जिम्मेदारी उस उक्त के उर्दू अखबारों पर ही डाली और इसके आरोप में ‘दिल्ली उर्दू अखबार‘ के संस्थापक मौलवी मोहम्मद बाकिर को सूली पर चढ़ा दिया। मौलवी बाकर (1780-1857) एक शिया विद्वान और आजादी के लिए शहीद होने वाले पहले पत्रकार थे जिनके बेटे मोहम्मद हुसैन आजाद के नाम भी अंग्रेजों ने गिरफ्तारी का वारंट जारी किया था.

ब्रिटिश सरकार का विरोध करने और देश की स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए किसी भी अन्य भाषा के पत्रकार को मौलवी मोहम्मद बाकिर से पहले तोप से नहीं उड़ाया गया. यह बाकिर थे जिनको अंग्रेजों ने न सिर्फ यह कि सजाए मौत दी थी बल्कि उन्हें दर्दनाक मौत देने के बाद भी अंग्रेज चुप नहीं रहे. वह उनके बेटे मौलाना मोहम्मद हुसैन आजाद को ढूंढ कर मारने के फिराक में लग गए, जो अखबार के प्रकाशक थे. उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया. आखिरकार वह जान बचाने के लिए पैदल ही लखनऊ से निकल गए.

उर्दू पत्रिकारिता के इस रोल से घबरा कर अंग्रेज शासकों ने भारतीय प्रेस का गला घोंटने के लिए कार्यवाही तेज कर दी, जिसके परिणाम में उर्दू अखबारों की संख्या घटते घटते केवल 21 रह गई. उसके बाद आगरा से मकनदलाल के संपादन में मासिक उर्दू पत्रिका ‘‘तारिख-ए-बगावत-ए-हिन्द (भारतीय विद्रोह का इतिहास), अजमेर से अयोध्या प्रसाद के संपादन में साप्ताहिक पत्रिका ‘‘खैर ख्वाह-ए-खल्क” शुभचिंतक सृष्टि,, अलीगढ़ से सर सैय्यद अहमद खान के संपादन में साइंटिफिक सोसायटी (वैज्ञानिक समाज), लखनऊ से “अवध अखबार” और ’अवध पंच ’ जारी किए गए. इन सभी उर्दू अखबारों ने भारतीय जनता में सार्वजनिक रुचि और राजनीतिक जागरूकता पैदा की.

1860 में दिल्ली के विभिन्न नवाब जादों और हाकिमों की सरपरसती में छह अखबार प्रकाशित हो रहे थे, उनमें सबसे लोकप्रिय अखबार ‘अकमल अखबार’ था, जिसे हकीम अब्दुल हमीद ने प्रकाशित किया. 1877 में तीन और नए अखबारों का शुभारंभ हुआ. इन समाचार पत्रों के नाम यह थेः अखबार “नुसरतुल अकबर”, “नुसरतुल इस्लाम” और “महर-ए-दरखशां”, जिनका उद्देश्य मौजूदा स्थिति पर नजर रखना और जनता को आजादी हासिल करने के लिए जागरूक करना था. 1880 के दौरान बारह नए अखबार सामने आए, तब तक मेरठ, आगरा, लखनऊ, अलीगढ़ और लाहौर में कई उर्दू अखबार अपना प्रभाव स्थापित कर चुके थे तथा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने में व्यस्त थे. आजादी से पहले की 77 वर्षीय पत्रकारिता पर गहरी नजर डालने से यह सच्चाई सामने आती है कि इस समय प्रकाशित होने वाले 25 प्रतिशत उर्दू अखबारों के मालिक हिंदू थे और बकौल यमुना दास अख्तर, अधिकांश पाठक हिंदू वर्ग से संबंधित थे.

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ होते ही जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने नई करवट ली, तो मौलाना हसरत मोहानी और जफर अली खां ने अपने अखबार “उर्दू-ए-मुअल्ला” और “जमींदार” के पृष्ठों पर लेख और शेर (कविता) के जरिये देश की जनता को स्वतंत्रता की जरूरत समझाने की भरपूर कोशिश की. वहीं दूसरी ओर बंगाल से मौलाना अबुल कलाम आजाद की पत्रिका “अल-हिलाल” और फिर उसकी जब्ती के बाद “अल-बलाग”, दिल्ली से मौलाना मोहम्मद अली जौहर का अखबार “हमदर्द”, लखनऊ से जवाहरलाल नेहरू का अखबार “कौमी आवाज”, पंजाब से लाला लाजपत राय का ‘वंदे मातरम, बिजनौर से साप्ताहिक ‘मदीना’, लाहौर से “मिलाप”, “प्रताप”, “पयाम”, “इंकलाब” और दिल्ली से “रियासत”कृइन सब अखबारों ने स्वतंत्रता के विषय पर मुख्य आलेख, संदेश, भाषणों और योजनाओं को प्रकाशित करके राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक क्रांतिकारी भूमिका निभाई.

संक्षेप में, उर्दू पत्रकारिता न केवल भारत की आजादी में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाया, बल्कि वह आज भी उसी रूह के साथ जिंदा है और खूब परवान चढ़ रही है. राष्ट्रीय अखंडता, सांप्रदायिक एकता और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने में उर्दू पत्रकारिता की भूमिका आज भी उतनी ही अहम है जितनी कि आजादी से पहले. उर्दू पत्रकारिता ने न केवल जंग-ए-आजादी में हिस्सा लिया और और अपने पाठकों को जागरूक किया, बल्कि सांप्रदायिक एकता और सामाजिक सद्भाव में भी उर्दू अखबारों की अह्म भूमिका रही. स्वाधीनता संग्राम के दौरान इस भारतीय भाषा ने उन लोगों में आशा जगाई जो, हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव और अंतर्धार्मिक सद्भाव पर आधारित समाज की स्थापना के पक्षधर थे और मानते थे कि इसी से हमारा देश और समाज प्रगतिशील होगा.

आज शहीद मौलवी मुहम्मद बाकिर देहलवी को करते हुए उनके राष्ट्रीय बलिदान और साहित्यिक सेवाओं से जो कि अविस्मरणीय हैं, हमें सिखने की जरूरत है. स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अद्वितीय भूमिका और उनके ‘‘दिल्ली उर्दू अखबार‘‘ के महत्व को कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन अफसोस की बात है कि इतिहास की उर्दू किताबों में भी उनके व्यक्तित्व, कुर्बानिओं और देश के प्रति उनके सेवा भाव और सेवाओं के बारे में उनके शान के मुताबिक कोई खास चर्चा मौजूद नहीं है.