मौलाना आजाद ने राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता प्रचार के लिए किया मस्जिदों का इस्तेमाल

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 31-08-2022
मौलाना अबुल कलाम आजाद
मौलाना अबुल कलाम आजाद

 

साकिब सलीम

दुनिया भर के मुसलमान जुमे की नमाज को अत्यधिक महत्व देते हैं. यह एक उपदेश से पहले होती है, जो वास्तव में इमाम (नमाज का अगुवा) द्वारा की गई नमाज का एक हिस्सा है. भारत में धर्मोपदेश को अक्सर अरबी में लिखे गए धर्मोपदेशों की एक पुस्तक से पढ़ा जाता है. कोई आश्चर्य नहीं, प्रार्थना करने वालों में से लगभग कोई भी इस विदेशी भाषा में दिए गए इन उपदेशों को नहीं समझता है.

मौलाना अबुल कलाम आजाद समझते थे कि भारतीय मुसलमानों में प्रचलित कट्टरता, उग्रवाद, अज्ञानता और सामाजिक बुराइयाँ इसलिए थीं, क्योंकि वे उन्हें अरबी में सिखाए गए धर्म को नहीं समझते थे, जरे एक ऐसी भाषा है, जिसे वे समझ नहीं सकते थे. 1916 में, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, उन्हें सिल्क लेटर कॉन्सपिरेसी में उनकी भूमिका और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में मुसलमानों और हिंदुओं को एकजुट करने के प्रयासों के लिए रांची में नजरबंद किया गया था. अपने अखबार अल-हिलाल में, उन्होंने मुसलमानों को इस तरह प्रोत्साहित किया कि ‘‘निस्संदेह एक अध्याय होगा, जो यह कहेगा कि भारत ने स्वतंत्रता और प्रगति के लक्ष्य की ओर अग्रसर किया और हिंदुओं ने इसके लिए अपने जीवन का त्याग किया. लेकिन जब युद्ध के मैदान में बिगुल बजाया गया, तो मुसलमान जाकर गुफाओं में छिप गए थे. जब हिंदुओं ने उन्हें बुलाया, तो मुसलमानों ने अपने होठों को सील कर दिया. जब देश अन्यायपूर्ण कानूनों के तहत होशियार हो रहा था, यह धर्मयुद्ध करने वाले हिंदू थे और बहादुर मुसलमान न केवल मैदान में कूदने से बचते थे, बल्कि पागलों की तरह चिल्लाते थे कि जो लोग संघर्ष में शामिल हुए थे,वे विद्रोही थे. दुनिया याद रखेगी कि जो कुछ भी हुआ उसका श्रेय मुस्लिमों को छोड़कर किसी भी समुदाय को जाता है.’’

कोई आश्चर्य नहीं कि मुसलमानों के लिए एक सशस्त्र संघर्ष में हिंदुओं में शामिल होने का ऐसा खुला आह्वान ब्रिटिश साम्राज्य के लिए ‘देशद्रोही’ था और मौलाना आजाद को रांची भेजा गया था. 1916 में, रांची एक बड़ा शहर नहीं था और अधिकारियों का मानना था कि उनकी ‘ब्रिटिश-विरोधी’ गतिविधियाँ रुक जाएँगी. 60,000 से अधिक हस्ताक्षरों के साथ उनके शुभचिंतकों के एक आवेदन ने उन्हें एक स्थानीय मस्जिद में जुमे की नमाज अदा करने की अनुमति दी. मौलाना जब पहली बार मस्जिद गए, तो लोगों ने उनसे नमाज अदा करने को कहा और जब उन्होंने उर्दू में उपदेश देना शुरू किया, तो सभी हैरान रह गए. वे उस भाषा में जुमे के उपदेश की कल्पना नहीं कर सकते थे, जिसे वे समझते थे. आज भी ज्यादातर भारतीय मुसलमान इस बात पर यकीन नहीं करेंगे. सामग्री धार्मिक से अधिक थी. मौलाना आजाद ने धर्मोपदेश के दौरान सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मामलों पर बात की. बाद में उन्होंने याद किया, ‘‘मुझे धर्मोपदेश देने के लिए मजबूर किया गया था. इन लोगों ने कभी भी वास्तविक जुमा का उपदेश नहीं सुना था. उन्होंने सोचा कि एक उपदेश का मतलब केवल कुछ अरबी प्रार्थनाओं का पाठ है. दुनिया ने देखा है कि जब मैं स्वतंत्र और मुक्त था, तो मैं किस तरह का काम कर सकता था. देखना यह है कि नजरबंदी और कारावास के दौरान मैं क्या हासिल कर सकता हूं, क्योंकि असली चुनौती और असली परीक्षा यहीं और अभी है.’’

मौलाना ने ली चुनौती

उन्होंने स्थानीय आबादी के बीच सामाजिक जागृति और राष्ट्रवाद का प्रचार करने के लिए जुमे की नमाज को एक मंच के रूप में इस्तेमाल किया. जल्द ही, शहर की हिंदू आबादी ने पूछा कि क्या वे भी अपने नेता और उनके संदेश को सुन सकते हैं. आम मुस्लिम जनता भ्रमित थी, क्योंकि उनका मानना था कि गैर-मुसलमानों को मस्जिद में प्रवेश नहीं करना चाहिए. मौलाना आजाद ने स्पष्ट किया कि ऐसा नहीं है और हिंदू भी जुमे के इन उपदेशों में शामिल होने लगे, जिसके लिए व्यवस्था की गई थी. मौलाना आजाद ने दिखाया कि मस्जिदों और नमाजों का असली उद्देश्य सामाजिक जागृति लाना और सभी धर्मों के लोगों के बीच भाईचारा पैदा करना था.

जनवरी 1920 में मौलाना आजाद की नजरबंदी वापस ले ली गई. लेकिन, तब तक उन्होंने दुनिया को जुमे के प्रवचन का वास्तविक अर्थ दिखा दिया था. यही कारण है कि, जब 1937 के बाद मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी मांग के लिए दबाव डाला, तो पहला जन आंदोलन मौलाना अबुल कलाम आजाद से इमाम (प्रार्थना नेता) का पद छीनना था. दरअसल, 1938 में मुस्लिम लीग के नेताओं ने मौलाना अबुल कलाम आजाद की इमाम के रूप में स्थिति को अवैध ठहराने के लिए एक अलग ईद प्रार्थना का आयोजन किया था. मौलाना आजाद दूरदर्शी थे और एकता में विश्वास रखते थे. उन्होंने खुद कहा था कि अगर लोग उनके पीछे एकजुट नहीं हुए, तो वह नमाज का नेतृत्व नहीं करेंगे. उनकी अनुपस्थिति में काहिरा के अजहर विश्वविद्यालय के मौलाना सूफी मोहम्मद शाह ने एक नमाज का नेतृत्व किया, जबकि मुस्लिम लीग समर्थकों की एक अन्य प्रार्थना का नेतृत्व कानपुर के एक मौलाना ने किया.

इस घटना का महत्व इससे है कि मौलाना आजाद को नमाज पढ़ने से रोका गया था, जो पाकिस्तान के इतिहास लेखन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. पाकिस्तान के संस्थापकों का मानना था कि मौलाना को नमाज की अगुवाई करने से रोककर उन्होंने एक महत्वपूर्ण जीत हासिल की. जिन्ना के करीबी रगीब अहसान ने जिन्ना को लिखा, ‘कांग्रेस के मुस्लिम शो-बॉय’ के खिलाफ आपके मास्टर स्ट्रोक पर हजारों और लाखों बधाई. कलकत्ता मैदान के इमामेट से उन्हें अपदस्थ करके कलकत्ता के मुसलमानों ने बहुत पहले इस तथ्य का प्रदर्शन किया कि अबुल कलाम आजाद मुस्लिम समाज में एक बहिष्कृत हैं. आजाद अपने जीवन की पीड़ा का अनुभव कर रहे होंगे.’’

अफसोस की बात है कि मौलाना आजाद के संदेश ने मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति और कुछ उलेमाओं के मशीनीकरण में कहीं न कहीं अपनी प्रासंगिकता खो दी है, जो लोगों को इस्लाम के वास्तविक संदेश से अनजान रखना चाहते थे. आजाद के विचारों पर फिर से विचार करना और रचनात्मक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कार्यों के लिए हमारी मस्जिदों और नमाजों का उपयोग शुरू करना महत्वपूर्ण होगा.