महात्मा गांधी की कानपुर से मुलाकातें और जंग-ए-आजादी

Story by  संदेश तिवारी | Published by  [email protected] | Date 01-10-2021
महात्मा गांधी की कानपुर से मुलाकात
महात्मा गांधी की कानपुर से मुलाकात

 

संदेश तिवारी/कानपुर

गांधी के व्यक्तित्व में एक तरफ गजब की सादगी और सहजता रहती थी, जो उनकी सरल भाषा से लेकर सहज वेशभूषा और किसान एवं मजदूर की तरह कताई आदि कार्य करने में दिखाई देती थी. तभी कानपुर की अपनी पहली यात्रा के दौरान गांधी जी को शुरुआत में कोई पहचान नहीं पाया. कोई सौ साल पहले महात्मा गांधी कानपुर आए थे. तब स्वागत जुलूस के दौरान ट्रैफिक में फंसने से अब्दुल हफीज नामक व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी. गांधी जी उसकी मृत्यु से इस कदर व्यथित हुए कि तत्काल स्वागत कार्यक्रम रद्द करवा दिया और पहुंच गए अब्दुल के घर. इस घटना का जिक्र महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है.

इस साल 2 अक्तूबर को हम सभी महात्मा गांधी की 152वीं जयंती मनाने जा रहे है. वास्तव में गांधी के व्यक्तित्व के इतने ज्यादा पहलू हैं कि वे सब गांधी को समझने में किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए भी कठिन पहेली बन जाते हैं. अधिकांश लोग किसी महान व्यक्ति के व्यक्तित्व को किसी खास नजरिए से देखने की कोशिश करते हैं, मसलन कोई उनका आंकलन राजनेता के रूप में करना चाहता है, कोई समाज सुधारक के रूप में, तो कोई आध्यात्मिक सखशियत के रूप में.

मगर गांधी के व्यक्तित्व सादगी के बावजूद असाधरण रहा. क्रांतिकारियों के गढ़ और अक्खड़ मिजाज वाले शहर कानपुर की गली-गली में गांधीवादी विचारधारा समाई हुई है. इंकलाबी तेवरों के साथ-साथ बातचीत से रास्ता निकालने की सूझ-बूझ शहर को गांधी के तौर-तरीकों से मिली है.

कानपुर शहर की माटी एक-दो मर्तबा नहीं, सात बार गांधी के माथे पर तिलक किया है. पहली मर्तबा तिलक के साये में, फिर खुद गांधी के वजूद के रूप में. तारीख की बात करें, तो 16 दिसंबर 1916 की दोपहर. दिग्गज क्रांतिकारी और देश के बहुत बड़े नेता बाल गंगाधर तिलक के साथ ऊंची धोती, काले कोट के साथ गोल गुजराती टोपी लगाए एक नौजवान भी कानपुर के इंकलाबी तेवरों को देखने-समझने आया था. उस वक्त कानपुर का पुराना रेलवे स्टेशन तिलक के जयकारों से गूंज रहा था. लंबी काठी वाले नौजवान को किसी की तवज्जो नहीं मिली. ऐसी नीरस और उदास मुलाकात हुई थी महात्मा गांधी की कानपुर के साथ.

इस हिसाब से गांधी जी बहुत जटिल लगते हैं, जो बाहर से देखने में सतही तौर पर भले ही बहुत साधारण लगते हैं, लेकिन वे बहुत असाधारण प्रभाव पैदा करते हैं. इसका कारण संभवतः गांधी के व्यक्तित्व का बहु आयामी होना है, जो उनके जीवन के विविध अनुभवों के संचय का प्रतिफल था.

गुजरात के एक उच्च मध्यम वर्गीय, सात्विक, शाकाहारी, वैष्णव, शहरी, वणिक परिवार में पले-बढ़े गांधी ने लंदन में बैरिस्टरी की पढ़ाई करते समय पश्चिमी सभ्यता को आत्मसात किया था. उसके बाद दक्षिण अफ्रीका प्रवास में उनके अनुभवों का दायरा भारतीय समुदाय के लिए संघर्ष करते समय और व्यापक हो गया था.

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/163307978711_Mahatma_Gandhi's_meeting_with_Kanpur_and_Jung-e-Azadi_2.jpg

महात्मा गांधी  


भारत की आजादी की लड़ाई में नेतृत्व के दौरान गांधी ने भारत की ग्रामीण संस्कृति पर भी अच्छी खासी पकड़ बना ली थी. इस तरह गुजरात, लंदन, दक्षिण अफ्रीका और अविभाजित सम्पूर्ण भारत की लंबी यात्रा करते हुए गांधी सही अर्थों में वैश्विक व्यक्तित्व बन गए थे.  अब वे जैसे निजी जीवन में थे, वैसे ही सार्वजनिक जीवन में हो गए थे. उन्होंने राजनीति और धर्म एवं आध्यात्मिकता को भी संयुक्त कर दिया था. उनके आजादी के आंदोलन में सत्य और अहिंसा के साथ-साथ रचनात्मक कार्यों पर भी बराबर जोर रहता था.

वहीं दूसरी बार जब गांधी कानपुर आए, तो वक्त बदल चुका था. अब बापू के स्वागत में स्टेशन पर 25 हजार लोगों की भीड़ थी. कानपुर की इंकलाबी माटी ने एक साधारण नौजवान को देश की आजादी की उम्मीद के रूप में महात्मा गांधी बनने की यात्रा को बेहद करीब से देखा है. 16 दिसंबर, 1916 की तारीख से लेकर 22 जुलाई 1934 के दरम्यान महात्मा गांधी सात मर्तबा कानपुर आए. पहली बार अनजान चेहरे के रूप में, लेकिन प्रत्येक अगली यात्रा में प्रशंसकों का कारवां बढ़ता गया.

आज जिस स्थान पर कानपुर रेलवे का अभियांत्रिकी विभाग है, कभी वहां कानपुर स्टेशन होता था. वर्ष 1859से लेकर 1930तक कानपुर सेंट्रल स्टेशन का वजूद नहीं था. पुराने कानपुर स्टेशन पर बाल गंगाधर तिलक के साथ आए मोहनदास करमचंद गांधी को सिर्फ कानपुर के महान क्रांतिकारी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने पहचाना था. शहर से अनजान गांधी को लेकर विद्यार्थी जी अपने साथ प्रताप प्रेस लेकर पहुंचे और रात्रि विश्राम किया.

यूं बढ़ा कारवां

चार साल बाद ही इलाहाबाद से लौटते महात्मा गांधी कुछ वक्त के लिए कानपुर में ठहरे. इसी दौरान मेस्टन रोड पर स्वदेशी भंडार का उद्घाटन किया. कुछ महीने बाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़कर लोगों को जोडने के लिए गांधी फिर कानपुर आए. तब बापू के स्वागत में पुराना कानपुर स्टेशन पर 25 हजार लोग एकत्र थे. अपने भाषण से उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता और असहयोग आंदोलन को स्वदेशी की भावना से जोड़ा. ब्रिटिश व्यवस्था में पदों पर बैठे लोगों से पद छोड़ने का आग्रह किया. बापू के आग्रह पर मुन्नीलाल अवस्थी ने केके कॉलेज के प्राचार्य और डॉ. मुरारीलाल रोहतगी ने कानपुर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट का पद छोड़ दिया था. एक बरस के अंदर ही 8 अगस्त 1921 को खादी को आजादी के आंदोलन से जोडने की मंशा लेकर महात्मा गांधी फिर कानपुर की इंकलाबी माटी से मिलने आए. अगले दिन यानी नौ अगस्त को मारवाड़ी विद्यालय में कपड़ा व्यापारियों ने उनका स्वागत किया. उन्होंने कहा था कि खादी आजादी के साथ ही आर्थिक लाभ भी दिलाएगी. इस यात्रा में बापू ने महिलाओं की एक सभा को भी संबोधित किया था.

इसके बाद 23 दिसंबर 1925 को गांधी जी ने कानपुर में कांग्रेस के 40वें अधिवेशन में कांग्रेसियों को आजादी के आंदोलन की रूपरेखा समझाई. साथ ही सरोजनी नायडू को कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा. इसके बाद कानपुर को बापू के दीदार के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा. चार साल बाद 22 सितंबर 1929 को महात्मा गांधी शहर आए, तो छात्रों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने की उम्मीद के साथ. यहां थोड़े से आराम, चिंतन-मनन, ठंडे दिमाग और तटस्थ भाव से कांग्रेस और देश भर में चल रही अच्छी-बुरी गतिविधियों पर विचार किया. इससे पहले वे मित्रों के साथ बातचीत, चिट्ठी-पत्री और लेखों के माध्यम से कानपुर की जनता की नब्ज टटोल रहे थे. कांग्रेस के दो खेमों में बंटने और आंदोलन बन्द होने से उन युवाओं का मोह भंग होने लगा था. हिन्द- मुस्लिम एकता बिखरने लगी थी, छुआछूत आंदोलन धीमा हो गया था और खादी आदि के बाकी रचनात्मक कार्य भी काफी शिथिल पड़ गए थे.

कांग्रेस के काफी कार्यकर्ता कांग्रेस की पुनरू सक्रियता के लिए गांधी की पुनर्वापसी का इंतजार कर रहे थे. डीएवी कॉलेज और क्राइस्ट चर्च कालेज में सभा का आयोजन किया और छात्रों को आत्मसंयम के साथ राष्ट्रीय आंदोलन से जुडने के लिए कहा. यहीं पहली बार गांधी जी ने हरिजन उत्थान का एजेंडा रखा. शहर की बापू से आखिरी मुलाकात की तारीख थी 22 जुलाई 1934. इस यात्रा में महात्मा गांधी 26जुलाई तक शहर में रहे और कांग्रेस के स्थानीय कार्यालय यानी तिलक हाल का उद्घाटन किया. इसी दौरान 30हरिजन बस्तियों में लोगों से मिलने भी गए. एक बात और, बापू की शहर से जुड़ी स्मृतियां तो चप्पे-चप्पे पर हैं, लेकिन पहली बार प्रताप प्रेस में रात्रि विश्राम करने के बाद बापू जब भी शहर आए, तो डॉ. जेएन रोहतगी के बंगले में ही ठहरे. बंगले का एक कमरा आज भी बापू की स्मृतियों को सहेजे हुए है.

जिस तरह गांधी अपने समय में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कानपुर के जनमानस को प्रभावित करते रहे, वही स्थिति कमोबेश आज भी है. चाहे हमारा वर्तमान राष्ट्रीय सफाई अभियान हो या विश्व अहिंसा की परिकल्पना गांधी विचार और जीवन दर्शन इन सबमें कानपुर आज भी सबसे आगे रहता है.