भारत में जब भी ऐतिहासिक,सुंदर वास्तुकला से सुसज्जित और प्राचीन मस्जिदों का जिक्र होता है, घूम-फिर कर बात दिल्ली की जामा मस्जिद, कोलकाता की नाखुदा और हैदराबाद की मक्का मस्जिद पर आकर सिमट जाती है, जबकि ऐसा है नहीं. देश में अनेक सुंदर, ऐतिहासिक और प्राचीन मस्जिदें हैं, जिनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. इनके बारे में बहुत कम लिखा-पढ़ा गया है. ऐसी ही कुछ मस्जिदों से पाठकों को रू-ब-रू कराने के लिए आवाज द वॉयस के मलिक असगर हाशमी ने एक सिलसिला शुरू किया है. इसकी पांच वीं कड़ी के रूप में आप से मदुरै की गोरिपलायम मस्जिद से परिचय कराया जा रहा है. यह मस्जिद द्रविड़ और इस्लामी वास्तुकला का एक अच्छा संगम है.इसे हिंदू स्थापत्य शैली में बनाया गया है.
मदुरै और गोरीपलयम
तमिलनाडु के मंदिरों के शहर मदुरै से करीब 70 किलोमीटर दूर काजीमार रोड पर स्थित है गोरीपलयम. यहां गोरीपलयम मस्जिद और दरगाह है. फारसी में ‘गोर’ कब्र को कहते हैं, इसलिए इस इलाके का नाम गोरिपलायम पड़ा.
गोरीपलयम मस्जिद मदुरै की सबसे बड़ी मस्जिदों मंे है, जो वैगई नदी के तट के उत्तरी किनारे पर स्थित है. इसके परिसर में तीन मकबरे हैं, जहां रोजाना दूर-दराज के लोग मन्नतें मांगने और पूरा होने पर चादर और फूल चढ़ाने आते हैं.
इसे धार्मिक सद्भाव का बेहतर प्रतीक माना जाता है. यहां आने वालों में कोई भेदभाव नहीं होता. यह कहना है तमिलनाडु के कला एवं संस्कृति विभाग के क्षेत्रीय सहायक निदेशक पद से सेवानिवृत्त एन सुलेमान का.
गोरीपलयम मस्जिद
गोरीपलयम मस्जिद परिसर में मदुरै के दो प्रसिद्ध सम्राट और एक संत की कब्रें हैं.मस्जिद का गुंबद लगभग 20 फीट ऊंचा और 70 फीट व्यास का है. इसका निर्माण पत्थर के एक ही खंड से किया गया है.
बताते हैं यह पत्थर अजगा पहाड़ियों से आयात किया गया था. परिसर के बाहरी हिस्से में तमिल में प्राचीन शिलालेख है. यह शिलालेख 13 वीं शताब्दी से मस्जिद-दरगाह की मौजूदगी की पुष्टि करता है.इसका निर्माण तिरुमला नायक द्वारा किया गया था.
गोरीपलयम दरगाह
गोरीपलयम दरगाह 13 वीं सदी की बनी हुई है. मस्जिद और दरगाह एक विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं. यहां यमन के दो सुल्तानों ख्वाजा सैयद सुल्तान अलाउद्दीन बदूशा और ख्वाजा सैयद सुल्तान शम्सुद्दीन और संत हजरत ख्वाजा सैयद सुल्तान हबीबुद्दीन की मजार है.
हबीबुद्दीन को गैबी सुल्तान के नाम से भी जाना जाता है, जो इस्लाम के प्रसार के लिए यमन से भारत आए थे.गोरीपलयम मस्जिद-दरगाह में इस्लामिक महीने रबी-अल-अव्वल की 15 वीं की रात को उस्र का आयोजित होता है.
चमकीले सफेद और ऊंचे मीनारों, विशाल गुंबद के साथ रंग-बिरंगे आलों से सुशोभित, गोरिपलायम दरगाह पड़ोस में जर्जर पुरानी इमारतों के बीच खड़ी है. इसके पीछे सीमेंट के फर्श के साथ टिन की छत वाली खोलियों में कुछ लोग रहते हैं, जिनका पूरा दिन दरगाह में बीतता है.
यहां हरे रंग के कपड़े पहने एक दाढ़ी वाले बाबा अगरबत्ती और मोर पंख लिए परिसर में घूमते दिख जाएंगे. वह लोगों को दुआएं देते हैं. काले धागे और ताबीज खंभों के चारों ओर बंधते हैं.
इसके अलावा यहां दिनभर कबूतरों के झुंड मीनारों पर फड़फड़ाते देखने को मिलेंगे.कबूतरों का बसेरा मस्जिद-मजार के मेहराब में है. दरगाह में उंगलियों के बीच तस्बीह फंसा कर फेरते खादिम भी मिल जाएंगे.
उनके होंठ हर दम दुआ के लिए हिलते रहते हैं. जबकि काजी साहब समय-समय पर अरबी में कुरान की आयतों का उच्चारण करते दिखते हैं.मस्जिद-दरगाह के बीच एक आंगन है, जिसमें सजावटी पत्थर के खंभे और लकड़ी की खिड़कियां लगी हुई हैं.
यहां दोनों सुल्तान एक दूसरे के बगल में अलग-अलग कब्रों में लेटे हैं. एन सुलेमान बताते हैं, दरगाह द्रविड़ और इस्लामी वास्तुकला का अच्छा संगम है. मल्टीफॉइल मेहराब इस्लामी इमारतों के विशिष्ट हैं, जबकि स्तंभ पांड्या काल के मंदिरों जैसे हैं.
गोरीपलयम का इतिहास
इतिहास के अनुसार, पंड्या देश पर दो भाइयों सैयद सुल्तान अलाउद्दीन बदुशा और सुल्तान शम्सुद्दीन बदूशा का शासन था. मदुरै के इन सुल्तानों की इतिहास यात्रा मध्यकालीन पंड्या राजा कूनपांडियन के साथ उनकी दोस्ती तक फैली है.
मस्जिद-दरगाह आने वाले लोग उनकी सेवाएं और शासक बनने के इतिहास से शिलालेखों के माध्यम से रूबरू होते हैं. यहां लगे शिलालेख राजा कूनपांडियन और दोनों भाइयों के बीच हस्ताक्षरित संधि को भी दर्शाते हैं. कहा जाता है कि कूनपांडियन एक ऐसी बीमारी से पीड़ित थे, जिसे सुल्तानों ने ठीक किया था.
इससे वे बहुत प्रभावित हुए और राजा ने उन्हें 14,000 सोने के सिक्कों के बदले वैगई के उत्तरी किनारे पर एक मस्जिद और छह गांव स्थापित करने के लिए जगह दे दी.
बाद में 16 वीं शताब्दी के नायक शासन के दौरान जब ग्रामीणों और इन भाइयों के बीच विवाद पैदा हो गया, तो कहा जाता है कि राजा वीरप्पा नायक ने हस्तक्षेप किया और एक आदेश जारी किया, जो आज भी यहां बतौर शिलालेख मौजूद है.
बाद में भाइयों ने दिल्ली सल्तनत की मदद से मदुरै शहर पर कब्जा कर लिया और स्वतंत्र सुल्तान बन गए. कहा जाता है कि प्रसिद्ध यात्री इब्न बतूता भी मदुरै सुल्तानों के दरबार में आ चुके हैं.
रखरखाव
काजीमार बड़ी मस्जिद के संस्थापक और काजीमार स्ट्रीट में रहने वाले काजी सैयद ताजुद्दीन रदियाल्लाह, सुल्तानों के सरकारी काजी (इस्लामी कानूनी सलाहकार और जूरी) थे.
काजी सैयद ताजुद्दीन के वंशज अभी भी काजीमार स्ट्रीट में रहते रहे हैं और काजीमार बड़ी मस्जिद का रखरखाव उनके द्वारा किया जा रहा है. सुल्तानों के समय से मदुरै शहर में काजी सैयद ताजुद्दीन के वंशजों से काजी नियुक्त किए जाते रहे हैं.
इस परंपरा का पालन पांडिया शासकों, नायक शासकों, नवाब शासकों और ब्रिटिश शासकों द्वारा किया जाता रहा है. आज भी तमिलनाडु सरकार काजी सैयद ताजुद्दीन के वंशजों में से एक को काजी मदुरै नियुक्त करती है. दरगाह परिसर के मकबरा के बाहरी परिसर में प्राचीन तमिल शिलालेख है.
यहां कैसे पहुंचे
मदुरै का अपना हवाई अड्डा है. यह शहर से 12 किमी दूर है. निकटतम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा चेन्नई है जो भारत के लगभग सभी शहरों से जुड़ा हुआ है.