G20 के साथी : भारत और तुर्की में बहुत समानताएं

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 05-09-2023
India and Türkiye have a lot in common
India and Türkiye have a lot in common

 

-फ़िरदौस ख़ान

तुर्की दो महाद्वीपों में बसा एक ऐसा ख़ूबसूरत देश है, जिसका एक हिस्सा एशिया में है तो दूसरा हिस्सा यूरोप में है. इसलिए इसकी संस्कृति पर इन दोनों ही महाद्वीपों का गहरा असर है.हालाकि हाल के दिनों में भारत और तुर्की के रिश्ते बेहतर नहीं रहे, बावजूद इसके हाल के दिनों में जब तुर्की में भयंकर भूकंप आया था तो भारत ने बढ़-चढ़कर मदद पहुंचाया था

यह दुनिया का इकलौता ऐसा मुस्लिम बहुल देश है, जो धर्मनिरपेक्ष है. फ़िलहाल भारत की तरह ही तुर्की भी बदलाव के दौर से गुज़र रहा है. जहां भारत अपनी प्राचीन संस्कृति, अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है, वहीं तुर्की को भी इस्लामिक देश बनाने की क़वायद जारी है.

इसके अलावा कई और मामलों में भी तुर्की और भारत में अनेक समानताएं हैं. जिस तरह भारत में बहुत सी भाषाएं बोली जाती हैं. इसी तरह तुर्की में भी तक़रीबन 30 भाषाएं बोली जाती हैं. यहां की आधिकारिक भाषा तुर्की है. यहां के तक़रीबन 90 फ़ीसद लोग तुर्की बोलते हैं. यहां की अन्य भाषाओं में कुर्द, अरबी और जज़ाकी आदि शामिल हैं.

modi

तुर्की को संवारने में यहां के क्रांतिकारी राजनेता कमाल अतातुर्क उर्फ़ मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने अपनी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी थी. उन्होंने 23 अक्टूबर 1923 को तुर्की गणतंत्र का ऐलान किया. वे आधुनिक तुर्की गणराज्य के निर्माता और पहले राष्ट्रपति थे.

अपनी सैन्य और राजनीतिक उपलब्धियों की वजह से उन्हें बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों में से एक माना जाता है. वे अपने देश को जहालत के अंधेरे से निकाल कर रौशनी में लेकर आए. उन्होंने मानवाधिकार के क्षेत्र में अनेक सराहनीय काम किए.

उन्होंने देश में 3मार्च 1924 को ख़िलाफ़त को ख़त्म कर दिया. उन्होंने 20 अप्रैल 1924 को शरिया हटाकर धर्मनिरपक्ष क़ानून लागू किया. इसमें दुनिया के कई देशों के क़ानूनों की अच्छाइयां शामिल थीं.

उन्होंने बहुपत्नी प्रथा पर पाबंदी लगा दी. इसके साथ ही उन्होंने तीन तलाक़ पर भी रोक लगा दी. अब मुस्लिम पुरुष न तो चार-चार निकाह कर सकते थे और न अपनी बीवियों को एक बार में तीन तलाक़ देकर घर से निकाल सकते थे.

उन्होंने महिलाओं की निस्फ़ गवाही को भी ख़त्म कर दिया. इस तरह औरत की गवाही भी मर्द की गवाही के बराबर मानी जाने लगी. उन्होंने अपने देश के पुरुषों से ऐलानिया कह दिया कि वे अपनी बीवियां के साथ जानवरों जैसा बर्ताव न करें और उन्हें भी इंसान ही मानें, क्योंकि बीवियों की पीटना वे अपना मज़हबी हक़ मानते थे. उन्होंने टोपी और बुर्क़े पर भी पाबंदी लगा दी.

उन्होंने हर नागरिक को मतदान का अधिकार दिया. उन्होंने अरबी की जगह रोमन लिपि लागू की. पहले तुर्की भाषा अरबी लिपि में लिखी जाती थी. उन्होंने ग्रेगोरियन कैलेंडर लागू करवाया. उन्होंने शिक्षा प्रणाली में बदलाव किए और देश में आधुनिक शिक्षा प्रणाली लागू की.

उन्होंने क़ुरआन करीम का तुर्की भाषा में तर्जुमा करवाया. उनका मानना था कि अपनी भाषा में ही क़ुरआन को अच्छे तरीक़े से समझा जा सकता है. ग़ैर अरबी लोग तो अरबी के क़ुरआन को सिर्फ़ रट ही सकते हैं.

india

भले ही अरबी के मूल क़ुरआन की तिलावत करने से सवाब हासिल हो, लेकिन यह ज़्यादा मुफ़ीद नहीं है. इसके लिए सबसे पहले क़ुरआन के पैग़ाम को समझना होगा, जो सिर्फ़ अपनी मातृभाषा में ही समझा जा सकता है. फिर उस पर अमल करना होगा. क़ुरआन अल्लाह तआला ने नसीहत के लिए नाज़िल किया है, न कि सिर्फ़ तिलावत के ज़रिये सवाब हासिल करने के लिए.

इन सुधारों की वजह से उन्हें कट्टरपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने मिशन से पीछे नहीं हटे.भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू मुस्तफ़ा कमाल पाशा की राजनीतिक विचारधारा के क़ायल थे.

दरअसल मुस्तफ़ा कमाल पाशा रौशन ज़ेहन लोगों और महिलाओं के हीरो हैं. तुर्की में महिलाओं का अपना एक सियासी दल है, जिसका नाम नेशनल वुमेन पार्टी ऑफ़ टर्की हैं. उन्होंने साल 1972 में इस्तांबुल में इसकी स्थापना की थी. तुर्की दुनिया का पहला देश है, जिसने संविधान कोर्ट बेंच में महिला जज को अध्यक्ष चुना था. 

तुर्की में शहरीकरण तेज़ी से हुआ है. यहां का 75 फ़ीसद हिस्सा शहरी है. गांव-देहात यहां लगातार कम होते जा रहे हैं. यहां की 99.8 फ़ीसद आबादी मुस्लिम है. बाक़ी 0.2 फ़ीसद आबादी में ईसाई और यहूदी शामिल आदि हैं. यहां मस्जिदें बहुत हैं. इनकी तादाद 89हज़ार से ज़्यादा बताई जाती है.

तुर्की में वक़्त के साथ-साथ ऐतिहासिक इमारतों के वजूद में भी बदलाव होता रहा है. साल 532 में बाइज़ेंटाइन सम्राट जस्टिनियन ने क़ुस्तुनतुनिया में एक ख़ूबसूरत हागिया सोफ़िया चर्च की तामीर शुरू करवाई थी, जो साल 537 में बनकर तैयार हुआ.

उस वक़्त इस्तांबुल को क़ुस्तुनतुनिया कहा जाता था. दुनिया के सबसे बड़े गिरजाघरों में इसका शुमार होता था. फिर साल 1453 में उस्मानिया सल्तनत ने इस शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस चर्च को मस्जिद में तब्दील कर दिया.

turkey

इसके बाद साल 1934 में मुस्तफ़ा कमाल पाशा की हुकूमत में इसे म्यूज़ियम बना दिया गया. इसे लेकर बहुत विवाद रहा है. जहां धर्मनिरपेक्ष नेता इस चर्च को मस्जिद बनाने के ख़िलाफ़ रहे हैं, वहीं कट्टरपंथी इसे म्यूज़ियम की जगह फिर से मस्जिद बनाने के हामी रहे.  

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने जुलाई 2020 में इस म्यूज़ियम को मस्जिद में बदलने का हुक्म दिया. उन्होंने यह हुक्म अदालत का फ़ैसला आने के बाद दिया. तुर्की की अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा था कि हागिया सोफ़िया अब म्यूज़ियम नहीं रहेगा, बल्कि इसे मस्जिद माना जाएगा.

इसके साथ ही अदालत ने साल 1934 के मुस्तफ़ा कमाल पाशा के मंत्रिमंडल के फ़ैसले को भी रद्द कर दिया था. देश के विभाजन के बाद भारत में भी बहुत सी मस्जिदों का वजूद बदल गया. कई मस्जिदों में विद्यालय आदि चल रहे हैं. बाबरी मस्जिद का मामला जगज़ाहिर है. कई और मस्जिदों को लेकर भी विवाद चल रहा है.

तुर्की में अनेक ऐतिहासिक इमारतें हैं, जो अपनी शानदार तहज़ीब की गवाह रही हैं. ओरोंटिस नदी पर बसे अंताक्या का चर्च दुनिया के सबसे पुराने गिरजाघरों में से एक माना जाता है. मान्यता है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के अनुयायियों को सबसे पहले 'ईसाई' यहीं कहा गया था.

तुर्की संत निकोलस यानी सांता क्लॉज़ का देश है. उनका जन्म पटारा में हुआ था. यहां के तक़रीबन उन्नीस प्राकृतिक और ऐतिहासिक स्थल यूनेस्को की  विश्व धरोहर स्थलों की फ़ेहरिस्त में शामिल हैं.

तुर्की कला, संस्कृति, संगीत और साहित्य के लिए विख्यात है. यहां का बेली डांस बहुत मशहूर है. यहां सौ से ज़्यादा विभिन्न प्रकार के पंजीकृत पारम्परिक वाद्ययंत्र हैं. स्कूलों में बच्चों को संगीत की तालीम दी जाती है. यहां पारम्परिक लोकसंगीत के साथ-साथ सूफ़ी संगीत और आकेस्ट्रा भी लोकप्रिय है, जो यहां के नाइट क्लब की जान है.

लोक लोककथाएं, किंवदंतियां और चुटकुले यहां की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा हैं. मुल्ला नसीरुद्दीन से भला कौन वाक़िफ़ नहीं होगा. तुर्की में उन्हें होका नसीरुद्दीन के नाम से जाना जाता है, जो मज़ाक़-मज़ाक़ में बहुत गहरी बात कह दिया करते थे.

turkey

भारत की ही तरह तुर्की में भी रंगमंच बहुत प्रसिद्ध है. करागोज़ और हसीवेट के दो किरदारों पर आधारित छाया रंगमंच भी यहां बहुत लोकप्रिय है. करागोज़ देहाती और हसीवेट शहरी किरदार है.

कहा जाता है कि ये दोनों ही किरदार असल ज़िन्दगी से लिए गए हैं. उन्होंने चौदहवीं सदी की शुरुआत में बर्सा में एक मस्जिद की तामीर में काम किया था. उन्होंने अपना ज़्यादातर वक़्त मज़दूरों का मनोरंजन करने में बिताया था. तुर्की की फ़िल्में और धारावाहिक भारत में ख़ूब पसंद किए जाते हैं.

तुर्की में खेलों को भी पसंद किया जाता है. यहां फ़ुटबॉल सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है. इसके बाद बास्केटबॉल और वॉलीबॉल को पसंद किया जाता है. तुर्की के लोग घूमना भी पसंद करते हैं.

तुर्की एक बेहद ख़ूबसूरत देश है, जहां की फ़िज़ायें, पहाड़, नदियां, सब्ज़ मैदान और वादियां बहुत ही दिलकश हैं. हर साल लाखों पर्यटक यहां आते हैं. यहां की मिट्टी बहुत उपजाऊ है. यहां सबसे ज़्यादा गेहूं, जौ, अंजीर, ख़ुबानी, अंगूर, अख़रोट, सेब, अनार, नाशपाती, खट्टे फलों, चाय, कॉफ़ी, तम्बाक़ू और कपास आदि की खेती होती है. यहां के मुख्य खनिजों में लोहा, तांबा, मैंगनीज़, सीसा, जस्ता, लिग्नाइट, क्रोम, एमरी और कोयला आदि शामिल हैं.  

तुर्की की सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक विरासत की तरह यहां की पारम्परिक हस्तकला और हस्तशिल्प भी बहुत ही समृद्ध है, जिसे यहां के कारीगरों ने ज़िन्दा रखा है. यहां की क़ालीन, ख़ूबसूरत कढ़ाई वाले कपड़े, धातु, कांच और मिट्टी के बर्तन, सोने-चांदी के ज़ेवरात और सुलेख बहुत मशहूर हैं.

तुर्की का खाना बहुत लज़ीज़ होता है. यहां के लोग गोश्त से बने पकवान खाना ज़्यादा पसंद करते हैं. इसके बाद पनीर, दाल और सब्ज़ियों से बने व्यंजनों की बारी आती है. व्यंजन तिल, ज़ैतून, अख़रोट और मूंगफली आदि के तेल में पकाये जाते हैं.

यहां लहसुन, प्याज़, अदरक, हल्दी, धनिया, मिर्च और गर्म मसालों का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है. कई व्यंजन फल व मेवे मिलाकर पकाये जाते हैं. खाने के साथ प्याज़, टमाटर और खीरे की सलाद परोसी जाती है.   

तुर्की एक आधुनिक संस्कृति वाला देश है. यहां के लोगों की जीवन शैली अंग्रेज़ों जैसी है. उनका रहन-सहन और पहनावा आधुनिक है. लेकिन अब तुर्की में भी भारत की तरह कट्टरपंथ तेज़ी से बढ़ रहा है.

यहां औरतें हमेशा रंग-बिरंगे लिबास में ही नज़र आया करती थीं, लेकिन अब यहां काले बुर्क़े का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. अफ़सोस की बात यह है कि सुधारवादी व धर्मनिरपेक्ष राजनेता मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने जिस तुर्की के इन्द्रधनुषी ख़्वाबों में रंग भरे थे, अब वही तुर्की फिर से कट्टरपंथ रूपी अंधेरे की तरफ़ गामज़न है.

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)