मिसाल है क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खान और रामप्रसाद बिस्मिल की दोस्ती

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 25-08-2022
राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खान
राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खान

 

डॉ. अभिषेक कुमार सिंह/ पटना

ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश अधिकारियों की दमनकारी नीतियां जहां एक तरफ अपनी पराकाष्ठा पर थीं, वहीं हिंदुस्तान के सभी स्वतंत्रता सेनानी इस जद्दोजहद में थे कि काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार किये गये क्रांतिकारियों को आखिर कैसे अंग्रेजों के चंगुल से बचाया जाये.

काकोरी कांड से ब्रिटिश सकते में आ गए थे और काकोरी कांड ने ब्रिटिश भारत की नींव हिला दी थी.

उस वक्त दिल्ली के तत्कालीन एसपी तस्द्दुक हुसैन हुआ करते थे और ऐसे में उन्होंने काकोरी का सच उगलवाने के लिए एक मुस्लिम क्रांतिकारी को चुना और उससे कहा कि बिस्मिल इस देश में सिर्फ हिन्दुओं के लिए काम कर रहा है, जिससे उस क्रान्तिकारी का इस्तेमाल राम प्रसाद बिस्मिल के ख़िलाफ़ एसपी तस्द्दुक हुसैन कर सके. लेकिन एसपी हुसैन को उस मुस्लिम क्रांतिकारी का जो जवाब मिला उससे वह दंग रह गए, उसने कहा- वह भारत को हिंदूवादी ही बनाएगा.

“खान साहिब, बिस्मिल को मैं आपसे ज़्यादा अच्छे तरीके से जानता हूं, जैसा आप कह रहे हैं, वो बिल्कुल भी वैसे नहीं हैं और दूसरी बात यह कि मुझे यकीन है, हिन्दूवादी भारत ब्रिटिश भारत से बहुत बढ़िया होगा.”

अपनी ही कौम के एक ब्रिटिश अधिकारी को यह खरा जवाब देने वाले और कोई नहीं बल्कि महान क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खान थे.

अशफाक का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को ब्रिटिश भारत के उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिला में हुआ था. अपने चार भाइयों में सबसे छोटे अशफ़ाक थे और किशोरावस्था से ही उन्हें उनकी शायरी के लिए लोग पहचानने लगे थे. वे ‘हसरत’ उपनाम के साथ अपनी शायरी लिखते थे.

बिस्मिल की कविताओं और उनकी बहादुरी के किस्से सुन-सुनकर अशफाक उनसे प्रेरित होने लगे. अशफाक ने मन ही मन ये बात ठान लिया कि उन्हें रामप्रसाद से मिलना है.हिंदुस्तान में गांधी जी का शुरू किया हुआ असहयोग आंदोलन उसी समय अपने चरम पर था. रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहांपुर में एक मीटिंग में भाषण देने आए हुए थे. जब यह बात अशफाक को पता चली तो वो भी वहां पहु्ंच गए. मीटिंग खत्म होते ही बिस्मिल से उनकी मुलाकात हुई.

अशफाक पांच वक़्त नमाज़ी थे और रामप्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के प्रवक्ता. दोनों के अलग कौम होने के बावजूद देश-प्रेम की डोर ने उन्हें एक कर रखा था. उन्होंने हर जात-पात और धर्म की रेखा को पार कर सद्भावना और भाईचारे की नींव रखी ताकि वो अपने देश को आज़ाद देख सकें.

1922 में जब चौरीचौरा कांड हुआ और इसके बाद गांधी जी का असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला कई युवाओं को नागवार साबित हुई. उन युवाओं में रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक भी थे. तब उन्होंने फैसला किया कि वे अब ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियार के जरिये ही हम आज़ाद हिंदुस्तान का सपना देख सकते हैं. 

और परिणामस्वरूप मशहूर काकोरी लूट की योजना बनाई गयी. 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया. काकोरी कांड अशफाक और बिस्मिल के द्वारा निर्देशित था. क्रांतिकारियों के इस बहादुरी भरे कदम से ब्रिटिश सरकार चौंक गयी और उन्होंने चोरी की इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने वाले चोरों को पकड़ने की ठान ली.

26 सितंबर 1925 को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को गिरफ्तार कर लिया गया और सारे लोग भी शाहजहांपुर में ही पकड़े गए. लेकिन अशफाक भाग निकले. बाद में, अशफाक दिल्ली गये, जहाँ से वे विदेश जाकर लाला हरदयाल सिंह से मिलकर भारत के लिए मदद चाहते थे. लेकिन उन्हें यहाँ उनके पठान दोस्त ने धोखा दिया और उन्हें ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर दिया.

काकोरी षड्यंत्र के सूत्रधार चार लोगों- अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रौशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई. और दूसरे 16 लोगों को चार साल कैद से लेकर उम्रकैद तक की सजा हुई. अशफाक रोज जेल में भी पांचों वक्त की नमाज पढ़ा करते थे और खाली वक्त में डायरी लिखा करते थे.

अशफाक की डायरी में से उनकी लिखी जो नज्में और शायरियां मिली हैं, उनमें से एक है,

“किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाये,

ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना

मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,

जबां तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना!”

19 दिसम्बर, 1927, जिस दिन अशफाक को फांसी होनी थी, अश्फाक ने सबसे पहले फांसी का फंदा चूमा और बोले,

“मेरे हाथ किसी इन्सान के खून से नहीं रंगे हैं और मेरे ख़िलाफ़ जो भी आरोप लगाए गए हैं, झूठे हैं. अल्लाह ही अब मेरा फैसला करेगा.”

फिर उन्होंने वह फांसी का फंदा अपने गले में डाल लिया. वे पहले मुसलमान क्रांतिकारी थे, जिन्हें फांसी की सजा मिली. उन्होंने अपने आखिरी सन्देश में लिखा कि उन्हें गर्व है और ख़ुशी है कि वो पहले मुसलमान हैं, जो अपने देश के लिए कुर्बान हो रहे हैं.

जेल में अपने अंतिम दिनों में बिस्मिल ने भी अपनी आत्म-कथा लिखी और चुपके से इसे जेल के बाहर पहुंचाया. उन्होंने भी अपनी आत्म-कथा में अशफाक और अपनी दोस्ती के बारे में बहुत ही प्यारे और मार्मिक ढंग से लिखा है. उन्होंने लिखा,

“हिन्दू और मुसलमान में चाहे कितने भी मुद्दे रहे, पर फिर भी तुम मेरे पास आर्य-समाज के हॉस्टल में आते रहते. तुम्हारे अपने लोग तुम्हें काफिर कहते पर तुम्हें सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम एकता की फ़िक्र थी. मैं जब भी हिंदी में लिखता, तो तुम कहते कि मैं उर्दू में भी लिखूं ताकि मुसलमान भाई भी मेरे विचारों को पढ़कर प्रभावित हों. तुम एक सच्चे मुसलमान और देश-भक्त हो.”

अशफाक और बिस्मिल ने जिंदगी भर दोस्ती निभाई , पर दोनों को अलग-अलग जगह पर फांसी दी गई. फैजाबाद में अशफाक को और बिस्मिल को गोरखपुर में. लेकिन दोनों ने एक साथ ही इस दुनिया से अलविदा कहा.