जम्मू कश्मीर की संस्कृति में धार्मिक समावेश की झलक

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 07-08-2023
जम्मू कश्मीर की संस्कृति में धार्मिक समावेश की झलक
जम्मू कश्मीर की संस्कृति में धार्मिक समावेश की झलक

 

-फ़िरदौस ख़ान

जम्मू कश्मीर दुनियाभर में अपनी ख़ूबसूरती के लिए जाना जाता है. यह हिन्दुस्तान के सर का ताज है. क़ुदरत ने कश्मीर को बेपनाह ख़ूबसूरती से नवाज़ा है. यहां सफ़ेद बर्फ़ से ढके पहाड़, कल-कल करती नदियां, झर-झर झरते झरने, हरे भरे फल व मेवों के बाग़, ज़ाफ़रान के खेत और सब्ज़ घास के दूर तलक फैले मैदान हैं. चिनार के दरख़्त इसकी ख़ूबसूरती में और इज़ाफ़ा करते हैं.

पतझड़ के मौसम में जब चिनार से झरते पत्ते ज़मीं पर बिछ जाते हैं, तो इसकी ख़ूबसूरती बेनज़ीर होती है. इसलिए इसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है. मुग़ल बादशाह जहांगीर ने क्या ख़ूब कहा था-

गर फ़िरदौस बर रूये ज़मी अस्त

हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त

यानी अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है.

ख़ूबसूरत बाग़ 

कश्मीर की ख़ूबसूरती को चार चाँद लगाने में मुग़ल बादशाहों ने भी अहम किरदार अदा किया है. गर्मियों में कश्मीर की राजधानी श्रीनगर का शालीमार बाग़ अपनी बेमिसाल ख़ूबसूरती के लिए मशहूर है. यह श्रीनगर रूपी ताज में कोहेनूर की मानिन्द है.

इसे मुग़ल बादशाह जहांगीर ने अपनी प्रिय बेगम मेहरुन्निसा यानी नूरजहां के लिए 1619में डल झील के क़रीब बनवाया था. इसे फ़ैज़ बख़्श, फ़राह बख़्श और चार मीनार बाग़ के नाम से भी जाना जाता है. चिनार के दरख़्तों से घिरे इस बाग़ को तीन सीढ़ीदार हिस्सों में तक़सीम किया गया था.

इसका बाहरी हिस्सा दीवाने-आम और बीच का हिस्सा दीवाने ख़ास था, जबकि इसका ऊपरी हिस्सा शाही ख़ानदान की औरतों के लिए मख़सूस था. इस बाग़ के बीचो-बीच एक नहर बहती है. इसमें झरने भी हैं.    

श्रीनगर में डल झील के पूर्वी हिस्से में निशात बाग़ है. निशात का मतलब है ख़ुशी. इसलिए इसे ख़ुशियों का बाग़ कहना क़तई ग़लत नहीं होगा. इस सीढ़ीनुमा बाग़ को देखकर दिलो-दिमाग़ तरोताज़ा हो जाते हैं. इस बाग़ को मुमताज़ महल के पिता और नूरजहां के भाई हसन आसफ़ ख़ान ने 1633 में बनवाया था. इन बाग़ों में मुख़्तलिफ़ क़िस्म के रंग-बिरंगे फूल और फुव्वारे हैं. इन्हें देखकर दिल बाग़-बाग़ हो जाता है. 

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कश्मीरी तहज़ीब 

जम्मू कश्मीर की संस्कृति बहुत ही गौरवशाली है. कश्मीर में इस्लाम का काफ़ी असर देखने को मिलता है. यहां कश्मीरी, डोगरी, गोजरी, पहाड़ी, बलती, हिन्दी व पंजाबी के अलावा उर्दू और फ़ारसी भाषाएं भी ख़ूब बोली जाती हैं.

यहां का उर्दू और फ़ारसी साहित्य विश्व प्रसिद्ध है. यहां सूफ़ियाना संगीत का चलन है. यहां का संगीत ईरान से बहुत मुतासिर है. इसकी वजह यह है कि कश्मीर में इस्तेमाल होने वाले कई वाद्य यंत्रों का ईजाद ईरान में हुआ था.

मिसाल के तौर पर सन्तूर को ही लें. सौ तारों वाला सन्तूर मूल रूप से कश्मीर का वाद्य यंत्र है. इसे सूफ़ी संगीत में इस्तेमाल किया जाता है. कहा जाता है कि यह वाद्य यंत्र ईरान में ईजाद हुआ था. यह एशिया के कई देशों में बजाया जाता है. पद्म विभूषण से अलंकृत जम्मू के पंडित शिवकुमार शर्मा प्रख्यात सन्तूर वादक हैं.

तुम्बकनार भी एक प्राचीन कश्मीरी वाद्य यंत्र है. इसे शादी-ब्याह जैसे ख़ुशी के मौक़ों पर बजाया जाता है. माना जाता है कि यह वाद्य यंत्र भी ईरान और मध्य एशिया में कहीं ईजाद हुआ था. यह वाद्य यंत्र मुग़लों के साथ हिन्दुस्तान आया. ईरान का मूल वाद्य यंत्र लकड़ी से बना हुआ होता है, जबकि कश्मीर में इसे कुम्हार मिट्टी से बनाते हैं. यह तबले की श्रेणी का वाद्य यंत्र है.   

रबाब भी कश्मीर का पारम्परिक वाद्य यंत्र है. यह मूल रूप से पड़ौसी देश अफ़ग़ानिस्तान का वाद्य यंत्र है. यह वाद्य यंत्र ईरान सहित एशिया के कई देशों के लोक संगीत में ख़ूब इस्तेमाल किया जाता है. अन्य वाद्य यंत्रों में सितार, डुकरा और नागर शामिल हैं.  

कश्मीर के लोकसंगीत में रबाब, ग़ज़ल और सूफ़ी संगीत शामिल है, जबकि लोक नृत्यों में राउफ़ या रूफ़ या दुमहल, भांड जश्न, कुद, हिकत, हफ़िज़ा, लादीशाह, बच्चा नग़मा, वुएगी नचुन आदि नृत्य आदि शामिल हैं.

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धार्मिक स्थल

कश्मीर में कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थल हैं, जिनमें अमरनाथ गुफ़ा, कटरा का वैष्णो देवी मन्दिर, श्रीनगर का छठी पातशाही गुरुद्वारा, हज़रत बल दरगाह और चरार शरीफ़ आदि शामिल है. श्रीनगर में डल झील के किनारे स्थित इस दरगाह को हज़रत बल मस्जिद, अस्सार-ए-शरीफ़ और मादिनात-ऊस-सेनी आदि नामों से जाना जाता है.

माना जाता है कि अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दाढ़ी का एक बाल यहां रखा हुआ है. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के वंशज सैयद अब्दुल्लाह यह बाल लेकर हिन्दुस्तान आए थे. ज़ायरीनों को कुछ ख़ास मौक़ों पर इसकी ज़ियारत करवाई जाती है.

सफ़ेद संगमरमर से बनी यह मस्जिद इतनी ख़ूबसूरत है कि इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं. यह मुग़ल और कश्मीरी वास्तुकला का ख़ूबसूरत दस्तावेज़ है. इस मस्जिद के क़रीब ही एक बेहद ख़ूबसूरत बग़ीचा और इशरत महल है, जिसे मुग़ल बादशाह शाहजहां के सूबेदार सादिक़ ख़ान ने 1623 में बनवाया था.

जम्मू कश्मीर के बडगाम ज़िले के चरारी इलाक़े में सूफ़ी नूरुद्दीन नूरानी की दरगाह है. इसे चरार शरीफ़ के नाम से भी जाना जाता है. सूफ़ी नूरुद्दीन नूरानी को नंद ऋषि भी कहा जाता है. यह दरगाह तक़रीबन 600साल पुरानी है. यहां दूर-दूर से ज़ायरीन आते हैं.

तीज-त्यौहार और खेल

कश्मीर में अमूमन सभी मज़हबों के लोग रहते हैं. इसलिए यहां सभी तीज-त्यौहार बड़े हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं. इसके अलावा शिकारा महोत्सव, केसर महोत्सव और ट्यूलिप महोत्सव आदि आयोजन भी धूमधाम से मनाए जाते हैं. सभी आयोजनों में कश्मीरी संस्कृति की झलक दिखाई देती है. ये महोत्सव कश्मीरी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के संवाहक भी हैं.

जम्मू कश्मीर में सर्दियो के मौसम में शीतकालीन खेलों का आयोजन किया जाता है, जिनमें स्नो शू रेस, आइस स्केटिंग, आइस हॉकी, स्कीइंग और स्नो बोर्डिंग आदि शामिल हैं.

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पहनावा

कश्मीर का पहनावा भी बहुत ही आकर्षक है. यहां बंद गले का टख़नों तक लम्बा ढीला लिबास पहना जाता है, जिसे फ़ेरन कहा जाता है. अब लोग घुटनों से कुछ नीचे तक का फ़ेरन भी पहनने लगे हैं. इसके नीचे एक ढीला ढाला पायजामा पहना जाता है.

सर पर तरंगा पहना जाता है. यह एक चमकीले रंग का दुपट्टा होता है, जो एक टोपी से सिला हुआ होता है. यहां सोने के मुक़ाबले में चांदी के ज़ेवरात ज़्यादा पहने जाते हैं. ख़ासकर मुस्लिम औरतें पारम्परिक ज़ेवरात से सजी-धजी रहती हैं.

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वाज़वान  

जम्मू और कश्मीर के बाशिन्दों का मुख्य भोजन चावल हैं. यहां के लोग गोश्त के साथ साग-सब्ज़ियों का ख़ूब इस्तेमाल करते हैं. उन्हें खाने में साग ज़रूर चाहिए. यहां कई तरह का साग मिलता है. कश्मीर का वाज़वान बहुत मशहूर है.

वाज़वान दावत के उस खाने को कहा जाता है, जिसमें कई व्यंजन शामिल होते हैं. इसमें कम से कम सात पकवान होते हैं. ज़्यादा की बात करें, तो इसमें तक़रीबन 36व्यंजन होते हैं. कश्मीर के ज़्यादातर खाने धीमी आंच पर पकाये जाते हैं. वाज़वान में नॉनवेज और वेज दोनों ही तरह के व्यंजन होते हैं.

कहा जाता है कि कश्मीर में वाज़वान की शुरुआत तक़रीबन 800 साल पहले हुई थी. रेशम मार्ग से आने वाले मुस्लिम व्यापारी और ख़ानसामा अपने साथ मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लज़ीज़ पकवान लेकर आए थे. यह भी कहा जाता है कि वाज़वान तैमूर लंग के साथ भारत आया.

तैमूर लंग के साथ आए ख़ानसामा यहां भी फ़ौज के लिए अपने ही मुल्क का खाना पकाते थे. उस वक़्त से ही कश्मीर में वाज़वान को अपना लिया गया और आज यह कश्मीर की पहचान बन गया. कश्मीरी क़हवा भी बहुत मशहूर है.

हिन्दू और मुसलमानों के खाने में बहुत फ़र्क़ है. हिन्दू गोश्त तो खाते हैं, लेकिन उसमें लहसुन और प्याज़ नहीं डालते. वे अमूमन सभी व्यंजनों में हींग डालते हैं. मुसलमान अपने खानों में लहसुन और प्याज़ ख़ूब डालते हैं, लेकिन वे हींग का इस्तेमाल न के बराबर ही करते हैं. जम्मू में राजमा चावल बहुत पसंद किए जाते हैं. इसके अलावा छोले चावल और कढ़ी चावल भी यहां के लोगों का मुख्य भोजन है. 

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कारोबार

कश्मीर का मुख्य व्यवसाय खेतीबाड़ी और बाग़वानी है. इसके अलावा यहां की पश्मीना शॉल, क़ालीन और ग़लीचे भी बहुत ही मशहूर हैं. हस्तशिल्प की कलाकृतियां भी यहां की संस्कृति को अपने में समेटे हुए हैं. यहां के प्रमुख हस्तहशिल्पै उत्पाीदों में काग़ज़ की लुगदी से बनी चीज़ें, लकड़ी पर नक़्क़ाशी, कशीदाकारी की चीज़ें और खेल का सामान जैसे क्रिकेट के बल्ले आदि शामिल हैं.

यहां के धातु के नक़्क़ाशी वाले बर्तन भी बहुत मशहूर हैं. कश्मीर की बोरसी भी प्रसिद्ध है. यह मिट्टी का एक अंगीठीनुमा छोटा बर्तन होता है, जिसमें आग जलाते हैं.पर्यटन भी यहां एक बड़ा कारोबार है, जिससे हज़ारों लोग जुड़े हुए हैं. यहां का नैसर्गिक सौन्दर्य पर्यटन के लिए वरदान है.

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शादी-ब्याह

कश्मीर में शादी-ब्याह में यहां की लोक संस्कृति की झलक साफ़ दिखाई देती है. यहां बारात में जितने लोगों को बुलाना तय होता है, सिर्फ़ उतने ही लोग आते हैं. अगर बारात में 11लोगों को बुलाना तय हुआ है, तो 11ही लोग आएंगे, 12 नहीं होंगे.

लड़की का निकाह घर या मस्जिद में ही होता है, भले ही बाक़ी आयोजन शादी के सभागारों में हों. शादी में मेहमानों को तोहफ़े दिए जाते हैं, जिनमें अन्य चीज़ों के साथ खाने-पीने का सामान भी होता है. यह सामान जूट और रेशमी कपड़े के थैलों में होता है. इन थैलों पर रंग-बिरंगे रेशम की कढ़ाई होती है.दुल्हन की तरफ़ की लड़कियां लोकगीत गाकर बारातियों का स्वागत करती हैं. कई शादियों में कश्मीरी वाद्य यंत्र भी बजाए जाते हैं.

भोजन भी पारम्परिक तरीक़े से किया जाता है यानी एक बड़ी तश्तरी में खाना परोसा जाता है, जिसमें एक साथ चार लोग खाते हैं. एक शख़्स उन्हें खाना परोसता है. अगर किसी का मन खाने का नहीं है, तो वह खाना पैक करवाकर अपने साथ लेकर जा सकता है.कश्मीर के बाशिन्दों के दिल भी बहुत ख़ूबसूरत हैं. वे बहुत ही मिलनसार और मेहमाननवाज़ हैं. किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है- 

संतूर, फ़ेरन, क़हवा, चिनार और शिकारा

उन लफ़्ज़ों से उभरा है सदा ज़ेहन में कश्मीर

(लेखिका शायरा, कहानीकार और पत्रकार हैं)