मुस्कान, मेहनत और मिशन: जहांग़ीर मलिक की कहानी जो दिलों को जोड़ती है

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 05-09-2025
Jahangir Malik: The story of humanity embedded in the threads of saris
Jahangir Malik: The story of humanity embedded in the threads of saris

 

श्चिम बंगाल के नदिया ज़िले के शांतिपुर कस्बे में जहांग़ीर मलिक की कहानी उतनी ही प्रेरक है जितनी मानवीय. यह वह जगह है जिसे सदियों से संतों, कवियों और दार्शनिकों की भूमि कहा जाता है. अद्वैताचार्य और श्री चैतन्यदेव की स्मृतियों से लेकर श्यामचंद मंदिर और सैकड़ों साल पुरानी टॉपखाना मस्जिद तक यहां आस्था, परंपरा और इतिहास साथ–साथ चलते हैं. यह प्रस्तुति कुतुब अहमद ने लिखी है, जो आवाज द वॉयस के संपादक हैं. 

यही शहर भारत और विदेश में मशहूर शांतिपुरी तांत साड़ियों का जन्मस्थान भी है. इन साड़ियों की महीन बुनाई केवल कपड़े की नहीं बल्कि हिंदू–मुस्लिम एकता की भी है. इसी विरासत के बीच ‘जे.एम. बाज़ार’ का नाम आज चर्चा में है. एक ऐसा केंद्र जहां देश–विदेश से लोग खरीदारी करने आते हैं. इस सफलता के केंद्र में हैं जहांग़ीर मलिक, जिनकी उदारता और दृष्टि ने न सिर्फ़ उनका जीवन बदला बल्कि हज़ारों लोगों को रोज़गार और सम्मान दिया. 
 
छोटे से स्टॉल से बड़ा ब्रांड तक 

बर्दवान ज़िले के बुलबुलिटाला में जन्मे जहांग़ीर ने सिमलोन हाई स्कूल से पढ़ाई की और हाटगोविंदपुर कॉलेज से वाणिज्य की पढ़ाई की. कपड़ा उद्योग में रुचि होने के कारण उन्होंने रनाघाट में एक सरकारी कोर्स किया। इसी दौरान उन्होंने शांतिपुर की सैकड़ों साल पुरानी हथकरघा परंपरा को समझा और इसे ही अपने करियर का केंद्र चुना.
 
साल 2006 में महज़ बीसियों की उम्र में उन्होंने घोष मार्केट में एक छोटा–सा साड़ी का स्टॉल शुरू किया. मेहनत, ईमानदारी और लगातार ऊर्जा के दम पर उन्होंने 2019 तक ‘जे.एम. बाज़ार’ की स्थापना कर ली, जो अब घोष मार्केट की दूसरी मंज़िल पर दो बड़े काउंटरों में फैला है.
 
ग्राहकों से बढ़कर मज़दूरों तक

जहांग़ीर की सादगी भरी मुस्कान और शिष्टाचार ग्राहक को सहज बनाता है, लेकिन काउंटर के पीछे एक बड़ी सच्चाई है. वह पूरे बाज़ार की आर्थिक नसों को मज़बूत करने वाले इंसान बन चुके हैं, हर मार्केट डे पर लगभग हज़ार ई-रिक्शा चालक स्टेशन से ग्राहकों को घोष मार्केट तक लाते हैं. इन सभी की सवारी का किराया जहांग़ीर खुद चुकाते हैं ताकि ग्राहकों को मुफ्त यात्रा मिले और चालकों को पक्की आमदनी, छोटे–शहर की अनिश्चित अर्थव्यवस्था में यह पहल दूरदर्शिता और करुणा का प्रमाण है,
 
 
परंपरा को पुनर्जीवित करने का संकल्प

जहांग़ीर का स्टोर आज सिल्क साड़ियों का खज़ाना है. खुद की उत्पादन इकाइयाँ चलाने के कारण वह गुणवत्ता के साथ क़ीमत को भी काबू में रखते हैं, जिससे थोक और खुदरा दोनों ग्राहक संतुष्ट रहते हैं. सिर्फ़ रेशम ही नहीं, जब हथकरघा सूती साड़ियों की मांग घट रही थी तब जहांग़ीर ने बुनकरों को सहारा देकर उत्पादन और मांग दोनों को फिर से जीवित किया. हज़ारों परिवारों की रोज़ी–रोटी और सम्मान लौट आया. जहांग़ीर के लिए यह सिर्फ़ व्यापार नहीं, एक मिशन है. वह अक्सर कहते हैं, “बंगाल की संस्कृति तांत साड़ी के बिना अधूरी है. चाहे दुर्गापूजा हो, ईद हो या कोई भी पर्व.
 
 
इंसानियत की दावत

हर साल वह घोष मार्केट परिवार—कर्मचारियों, मददगारों और रिक्शा चालकों, हिंदू–मुस्लिम सभी के लिए भव्य सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं. यह सिर्फ़ दान नहीं बल्कि शांतिपुर की एकता की भावना को मज़बूती देने का प्रतीक है. उनकी लगभग पच्चीस लोगों की टीम भी विभिन्न धर्मों के परिवारों से आती है और एक साथ काम करती है.
 
 
परिवार और भविष्य

जहांग़ीर के छोटे भाई बुलबुलिटाला में एक बड़ा वस्त्र प्रसंस्करण कारख़ाना चलाते हैं, जहां टी-शर्ट और लेगिंग्स जैसी सूती फैब्रिक बनती है. इस तरह दोनों भाई मिलकर बंगाल की टेक्सटाइल अर्थव्यवस्था से मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के नये उद्यमियों की मिसाल बन रहे हैं, जो महत्वाकांक्षा और सामाजिक ज़िम्मेदारी को साथ लेकर चलते हैं.
 
 
धागों में गुंथी दृष्टि

जहांग़ीर मलिक की कहानी केवल सफलता की नहीं बल्कि अपने से आगे देखने की है. वह चाहते हैं कि शांतिपुर की हथकरघा साड़ियाँ दुनिया के हर कोने में पहुंचें और बंगाल के साथ–साथ बुनकरों की रोज़ी–रोटी भी वहां तक पहुंचे. अपने शांत, सादे अंदाज़ में उन्होंने साबित किया है कि महानता संपत्ति जमा करने से नहीं, बल्कि रास्ते में लोगों को ऊपर उठाने से मापी जाती है.