इमरान नाहर: लुप्त होती कहावतों और परीकथाओं की आखिरी मशाल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 02-09-2025
Imran Nahar: The last torch of vanishing proverbs and fairy tales
Imran Nahar: The last torch of vanishing proverbs and fairy tales

 

sब मौखिक परंपराएँ धीरे-धीरे समय की रेत में दफन हो रही हों, तब कोई एक व्यक्ति यदि उन्हें सहेजने और अगली पीढ़ियों के लिए संजोने का जिम्मा उठाता है, तो वह केवल लेखक या शोधकर्ता नहीं रहता.वह एक सांस्कृतिक प्रहरी बन जाता है.इमरान नाहर ऐसा ही एक नाम हैं, जिन्होंने बंगाल की मिट्टी से उपजी हज़ारों लोककथाओं, कहावतों और परीकथाओं को लुप्त होने से पहले थाम लिया.आवाज द वाॅयस के सहयोगी देबकिशोर चक्रवर्ती ने कोलकाता से द चेंज मेकर्स के लिए इमरान नाहर पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है.

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के पांडुआ प्रखंड के राणागढ़ गाँव में जन्मी इमरान नाहर एक साधारण मुस्लिम किसान परिवार की गृहिणी हैं, लेकिन उनका कार्य असाधारण है.

उन्होंने न केवल तीन हज़ार से अधिक बंगाली कहावतों को संग्रहित किया है, बल्कि पाँच सौ से ज़्यादा परीकथाओं का दस्तावेजीकरण करके एक विलुप्त होती संस्कृति को नवजीवन प्रदान किया है.इमरान का यह काम साहित्यिक अभिलेखन से कहीं अधिक है.यह एक आंदोलन है, जो स्मृति, विरासत और आत्म-संरक्षण की आवाज़ है.

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बंगाल में कभी संयुक्त परिवारों का चलन था, जहाँ बारह घर होते थे और तेरह आँगन.दादी-नानी की कहानियाँ केवल मनोरंजन नहीं, सामाजिक शिक्षा और नैतिक मूल्यों की पाठशाला भी थीं.

पर 1980 के दशक के बाद संयुक्त परिवारों के विघटन और शहरीकरण ने इस मौखिक परंपरा को लगभग समाप्त कर दिया.आधुनिकता की तेज़ रफ्तार में, किस्सों, कहावतों और पारंपरिक गीतों की ध्वनि धीमी होती चली गई.

इमरान नाहर ने इसी विलुप्त होती ध्वनि को फिर से जीवंत करने का संकल्प लिया.वे बताती हैं कि इस प्रेरणा की जड़ें उनके बचपन में हैं.उनकी मौसी, हमीदा उन्नेसा, जो ब्रिटिश काल में छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाली एक शिक्षित महिला थीं, उन्हें परीकथाएँ सुनाया करती थीं.

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वे कहानियाँ जो एक लाख चौबीस हज़ार पैगम्बरों के जीवन से जुड़ी थींऔर लोककथाओं से भरी थीं.उनकी माँ, अनवरा खातून, एक धार्मिक परंतु साहित्यप्रेमी महिला थीं, जिन्होंने इमरान के भीतर की रचनात्मकता को गहराई दी.

इमरान नाहर ने न किसी शासकीय अनुदान पर भरोसा किया, न ही किसी बड़े संगठन की सहायता ली.उन्होंने अकेले अपने दम पर यह संग्रह तैयार किया, जिसमें दक्षिण बंगाल, राढ़ बंगाल और बंगाली मुस्लिम समुदाय की कहावतों और गीतों को प्रमुखता दी गई है.

उनके संग्रह में विवाह गीत, दैनिक जीवन की कहावतें, और ऐसी लोकोक्तियाँ भी शामिल हैं जिन्हें अब शायद ही कोई याद करता हो.यह कार्य केवल दस्तावेजीकरण नहीं था.

यह एक गहन शोध प्रक्रिया थी.उन्होंने गाँवों में बुज़ुर्गों से मिलकर, उनके स्मृतियों से शब्दों को खींचाऔर उन्हें संरक्षित किया.उनके लिए यह एक साहित्यिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक भावनात्मक यात्रा थी.उन्होंने माना कि ग्रामीण कहावतें किसी खजाने से कम नहीं हैं,इनमें एक समाज की सामूहिक चेतना बसी होती है.

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इमरान की विशेषता यह है कि वे परीकथाओं को केवल बाल साहित्य के रूप में नहीं देखतीं.उनके अनुसार, "प्राचीन बंगाली परीकथाएँ केवल मनोरंजन नहीं थीं. इनमें स्त्रियों की सोच, सामाजिक संरचना और सुधार की गूँज होती थी."

उनकी दृष्टि में लोककथाएँ स्त्रियों के भीतर छिपी शक्ति और संघर्ष को अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं.यही कारण है कि उनके संग्रह की कई परीकथाएँ नारी केंद्रित हैं — जहाँ स्त्रियाँ केवल पात्र नहीं, बल्कि परिवर्तन की वाहक होती हैं.

उनकी दो प्रकाशित कविता संग्रह — "चंदर चिट्ठी" (चाँद का पत्र) और "एक नोडी जोल, एक आकाश आलो" (एक नदी का जल, एक आकाश का उजाला) विशेष रूप से महिला अधिकारों पर केंद्रित हैं.उन्होंने अपनी कविताओं में ग्रामीण मुस्लिम महिलाओं की आवाज़ को जगह दी हैऔर आत्मनिर्भरता, शिक्षा, और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों को अभिव्यक्ति दी है.

हालाँकि वे नारी सशक्तिकरण की प्रबल पक्षधर हैं, लेकिन खुद को ‘नारीवादी’ नहीं, बल्कि ‘मानवतावादी’ कहती हैं.उनका कहना है: “मैं केवल अपने परिवार या समाज की स्त्रियों के लिए नहीं, बल्कि हर सामाजिक तबके की स्त्रियों के लिए सोचती हूँ.मैं चाहती हूँ कि वे शिक्षित हों, आत्मनिर्भर हों, और समाज में अपने पैरों पर खड़ी हो सकें.”

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पुत्री नरगिस के साथ इमरान 

वे यह मानती हैं कि कलम महिलाओं को केवल अभिव्यक्ति नहीं देती, बल्कि उन्हें अपनी पहचान बनाने का औज़ार भी बनती है.एक कविता की पंक्तियाँ जो वह अक्सर उद्धृत करती हैं, उनकी सोच को खूबसूरती से बयां करती हैं:

"कैद लड़की को उसकी ज़ंजीरों से आज़ाद करो;

उसके हाथ में करछुल की बजाय कलम दो."

इमरान नाहर सिर्फ अतीत के दस्तावेजों में नहीं उलझी हैं, वे वर्तमान की सच्चाइयों से भी गहराई से जुड़ी हुई हैं.उनके लिए समाज का विकास केवल शहरी या मध्यम वर्गीय नहीं है, बल्कि वह उस ग्रामीण किसान का भी उत्थान चाहती हैं, जिसकी आवाज़ अक्सर अनसुनी रह जाती है.

पांडुआ प्रखंड के बेलुन धमासिनी ग्राम पंचायत की घ्यागी नदी, जो कभी जीवनरेखा थी, अब एक सूखी रेखा बन गई है। उनकी कविता और लेखनी में इस सूखते हुए जीवन का दर्द बार-बार प्रकट होता है.

वे स्पष्ट शब्दों में कहती हैं, “पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों के किसान निजी साहूकारों के कर्ज़ के नीचे दबे हैं.मीडिया को उनकी कोई परवाह नहीं.” वे 'मनरेगा' की विफलताओं, कृषि भूमि के बंजर होने, और पलायन जैसी समस्याओं को मजबूती से उठाती हैं.

उनके पति, अब्दुल हन्नान, इस सामाजिक और साहित्यिक मिशन में उनके सबसे बड़े सहयोगी हैं.उनकी बेटी,नरगिस भी उनकी मदद कर रही हैं — इस तरह यह कार्य केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पारिवारिक उत्तरदायित्व बन चुका है.

इमरान नाहर की यात्रा आज भी जारी है.वे आज भी लिख रही हैं, संग्रह कर रही हैंऔर अपनी आवाज़ को उन लोगों तक पहुँचा रही हैं जिन्हें समाज ने हाशिए पर डाल दिया है.वे स्कूलों, महिला मंचों और सांस्कृतिक सभाओं में जाकर युवतियों को लिखने और सोचने के लिए प्रेरित करती हैं.

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वे कहती हैं,"जब तक मैं ज़िंदा हूँ, मैं समाज और महिलाओं के लिए काम करती रहूँगी.यह केवल मेरा सपना नहीं है.यह एक ज़िम्मेदारी है, जो मैंने खुद अपने कंधों पर ली है."

इमरान नाहर जैसे लोग साहित्य और समाज के बीच की उस पुल की तरह हैं, जो दोनों को जोड़ता है — अतीत की कहानियों से लेकर वर्तमान की चुनौतियों तक.उनका काम महज़ संग्रह नहीं, बल्कि एक जीवंत आंदोलन है — मौन लेकिन बुलंद.

इमरान नाहर एक नाम नहीं, एक सांस्कृतिक चेतना हैं.एक ऐसी मशाल, जो बुझती परंपराओं को फिर से रोशनी दे रही है.