रियाद
सऊदी अरब के मक्का स्थित ग्रैंड मस्जिद (मस्जिद अल-हराम) के पूर्व प्रमुख इमाम, शेख़ सालेह अल-तालिब को सात साल से अधिक जेल में रहने के बाद हाल ही में रिहा कर दिया गया है। हालांकि, रिहाई के बावजूद वे अभी भी घर में नजरबंद हैं और उनके पैरों में इलेक्ट्रॉनिक निगरानी उपकरण (एंकल मॉनिटर) लगाया गया है। यह जानकारी मानवाधिकार संगठन Prisoners of Conscience ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म "X" (पूर्व में ट्विटर) पर साझा की। संगठन लंबे समय से सऊदी अरब में धार्मिक नेताओं और स्कॉलरों की गिरफ्तारी और उत्पीड़न पर निगरानी रखता रहा है।
शेख़ सालेह अल-तालिब को अगस्त 2018 में तब गिरफ्तार किया गया था जब उन्होंने अपने एक सार्वजनिक ख़ुतबे (धार्मिक उपदेश) में इस्लामी दृष्टिकोण से सार्वजनिक रूप से गलत कार्यों के खिलाफ आवाज़ उठाने की जिम्मेदारी पर ज़ोर दिया था। माना जाता है कि उनके भाषण को सऊदी सरकार की नीतियों—विशेषकर जनरल एंटरटेनमेंट अथॉरिटी द्वारा आयोजित मिक्स्ड जेंडर इवेंट्स और संगीत समारोहों—की परोक्ष आलोचना के रूप में देखा गया। इसके बाद उन्हें हिरासत में ले लिया गया, लेकिन उनके खिलाफ कोई औपचारिक आरोप सार्वजनिक रूप से नहीं लगाया गया।
वर्ष 2022 में रियाद स्थित स्पेशलाइज्ड क्रिमिनल अपीलेट कोर्ट ने पहले के एक फैसले को पलटते हुए उन्हें दस साल की जेल की सजा सुनाई थी, जबकि इससे पहले उन्हें बरी कर दिया गया था। अब सात साल बाद उनकी रिहाई हुई है, लेकिन वह पूर्ण स्वतंत्रता में नहीं हैं।
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— DAWN السعودية (@DAWNsaudi) August 22, 2022
محكمة الاستئناف الجزائية المتخصصة في الرياض حكمت بالسجن على إمام الحرم المكي الشريف الشيخ صالح آل طالب بالسجن عشر سنوات (١٠ سنوات) بعدما نقضت حكم البراءة السابق في حقه. pic.twitter.com/eAaShZ0HcI
शेख़ सालेह अल-तालिब का जन्म 23 जनवरी 1974 को सऊदी अरब के हवतत बानी तैमिम नामक परिवार में हुआ था, जिसे इस्लामी न्यायशास्त्र, धर्मशिक्षा और क़ुरआनिक अध्ययन में उसके योगदान के लिए जाना जाता है। वह सऊदी अरब के कई शहरों—जैसे मक्का और रियाद—में बतौर जज भी सेवाएं दे चुके हैं। इसके अलावा वे दुनियाभर में अपने क़ुरआन की तिलावत, धार्मिक व्याख्यानों और इस्लामी शिक्षा को लेकर काफी लोकप्रिय हैं। उनकी तिलावतें लाखों लोगों द्वारा ऑनलाइन सुनी जाती हैं, और उनकी धार्मिक पकड़ न केवल अरब जगत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम समुदाय में भी मजबूत रही है।
उनकी रिहाई की खबर सामने आते ही सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई। दुनियाभर के उनके अनुयायियों ने इस पर खुशी ज़ाहिर की और उनकी बहादुरी की सराहना की। हालांकि, उनके खिलाफ की गई कार्रवाई एक बार फिर इस बात को उजागर करती है कि सऊदी अरब में हाल के वर्षों में किस तरह धार्मिक नेताओं, स्कॉलरों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहां तक कि सोशल मीडिया पर राय रखने वालों पर शिकंजा कसा गया है।
विशेष रूप से जून 2017 में क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के सत्ता में आने के बाद से सऊदी अरब में स्वतंत्र अभिव्यक्ति को लेकर हालात सख्त होते गए हैं। धार्मिक विद्वानों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और यहां तक कि शाही परिवार के सदस्यों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने पर गिरफ्तार किया गया है। सोशल मीडिया पर आलोचनात्मक विचार रखने वाले आम नागरिकों तक को लंबे समय की सजा दी गई है।
उल्लेखनीय है कि इसी साल एक और शिक्षक, असआद बिन नासिर अल-ग़ामदी को भी दो साल से अधिक की हिरासत के बाद रिहा किया गया। उनका "अपराध" केवल इतना था कि उन्होंने X (पूर्व ट्विटर) पर अपने विचार व्यक्त किए थे।
सऊदी सरकार की इस नीति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तीखी आलोचना होती रही है। मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि ऐसी कार्रवाइयां न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं, बल्कि इससे समाज में भय का वातावरण भी बनता है, जहां लोग खुलकर अपनी राय व्यक्त करने से कतराते हैं।
शेख़ सालेह अल-तालिब की रिहाई जहां एक ओर उनके अनुयायियों और समर्थकों के लिए राहत की बात है, वहीं दूसरी ओर यह भी दर्शाती है कि सऊदी अरब में धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी अभी भी सीमित है। उनकी नजरबंदी और निगरानी यह स्पष्ट करती है कि राज्य उनके विचारों को अब भी एक चुनौती के रूप में देखता है। इस रिहाई ने एक बार फिर इस बहस को ज़िंदा कर दिया है कि क्या धार्मिक और सामाजिक सुधार के नाम पर असहमति की आवाज़ों को दबाया जाना सही है?
शेख़ सालेह की कहानी न सिर्फ एक धार्मिक विद्वान की है, बल्कि यह उस संघर्ष का भी प्रतीक है जो आज के समय में अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर दुनिया के कई हिस्सों में लड़ा जा रहा है।