पाकिस्तानः राजनीति में आर्मी जनरल की सियासत

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 14-11-2022
पाकिस्तानः राजनीति में आर्मी जनरल की सियासत
पाकिस्तानः राजनीति में आर्मी जनरल की सियासत

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

पाकिस्तान के आर्मी जनरल कमर जावेद बावजा की रुखसती 27नवंबर को तय है. अगला आर्मी जनरल कौन बनेगा, इस पर राजनीतिक घमासान छिड़ा हुआ है. जाहिरा तौर पर पाकिस्तान की राजनीति को तय करना है कि जनरल कौन होगा, मगर फौजी सियासत का अहम यही है कि नए फौजी जनरल के इंतखाब में अगर राजनीति की दखल हुई, तो वह अपना दबदबा खो देगी, जो अब तक न हुआ है और न इंस्टीट्यूशन को फिलवक्त तसलीम होगा. इसलिए लव्वोलुआव यह है कि फौज की अपनी सियासत से ही मामला तय हो, मगर उस पर ठप्पा मरकजी सियासत का चस्पा हो जाए. उधर, दावेदार जनरलों ने भी अपने घोड़े दौड़ा रखे हैं. भला इतने ताकतवर और मलाईदार ओहदे को कौन छोड़ना चाहेगा कि अंतरराष्ट्रीय राजनय में पाकिस्तान से कोई मुहायदा करते वक्त आर्मी जनरल की ‘क्लीयरेंस’ लाजिमी मानी जाती हो.

जनरल कमर बाजवा ने चंद रोज पहले कहा था कि सशस्त्र बलों ने खुद को राजनीति से दूर कर लिया है और वो चाहते हैं कि फौज इसी तरह बनी रहे. मगर इस बयान से ठीक पहले का वाकया है. रीत रह खजाने से हलकान पाकिस्तान की सऊदी अरब से उम्मीदें थीं. फिर अमेरिका ने भी भौहें तानी हुई थीं, तो वहां-वहां बाजवा का दौरा उनके इस बयान को झुठलाता नजर आता है. सारे आलम को पता है कि पाकिस्तान में आला लीडरान के कत्ल हुए और छींटे इंस्टीट्षन पर ही पड़े. मगर इस बार इमरान खान के दौर में गंगा थोड़ी उल्टी बही. कलेजे तक भरे बैठे अवाम ने इमरान पर हमले के बाद पहली बार फौजी इदारों के दफ्तरों पर जोरदार मुजाहिरा किए और आगजनी की है. इससे इंस्टीट्यूशन की चूलें लचक गई हैं. इसलिए वह दबाव में है और पावर मैट्रिक्स के हिसाब से ‘हिट हार्ड’ करना चाहती है. सिलेक्टिव पीएम के तौर पर मशहूर हुए इमरान खान फौज का ही ‘खानदानी सियासत’ की नाकामी के बाद ‘मिस्टर क्लीन’ का नवाचार था. लेकिन इमरान खान तो फौज के लिए भस्मासुर साबित हुए, उन्होंने बेगम बेनजीर भुट्टो की तरह तोपों के दहाने इंस्टीट्शन की तरफ ही मोड़ रखे हैं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि हर मुल्क में फौज की अहमियत होती है. बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल के मुताबिक ‘रैयत सब राजी रहे, ताजी रहै सिपाहि. छत्रसाल तेहि भूप को बाल न बाँको जाहि.’ किंतु पाकिस्तानी फौज की मुदाखलत इसीलिए ज्यादा नजर आती है कि वो अपने मुल्क का सबसे बड़ा कारोबारी इदारा भी है. यही वो वजह है कि फौजी जनरल बेसियासती होकर अपना हलवा-मांडा छोड़ने को तैयार नहीं.

इस सूरतेहाल में पाकिस्तान में नए सेना प्रमुख की बेहद अहम तैनाती के सवाल पर गतिरोध बना हुआ है. किसी भी ‘पक्ष’ की पसंद का मतलब है कि सरकार को फिर से विचार करना पड़ेगा, खासकर अगर वह इंस्टीट्यूशन की पसंद पर सेना के साथ सामंजस्य स्थापित करने में नाकाम रहती है, तो. सूत्रों का कहना है कि हालांकि काबिल अफसर तो हैं, लेकिन कुछ अफसरो की अपनी-अपनी अड्डेबाजी है और वे अपने ठौर-ठिकानों के पाबंद हैं. मसलन, डॉन के मुताबिक, लेफ्टिनेंट जनरल आसिम मुनीर को पीएमएल-एन सुप्रीमो नवाज शरीफ का पसंदीदा माना जाता है, हालांकि पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना है कि ‘‘उन्हें शरीफों से कोई प्यार नहीं हो सकता.’’ सूत्र ने कहा, ‘‘ऐसी धारणा है कि एक उम्मीदवार ‘उनका आदमी’ या ‘उनके आदमी’ हैं और इससे एक अनावश्यक विवाद पैदा हो गया है.’’ माना जा रहा है कि इंस्टीट्यूशन 10कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा की ओर झुकी हुई है, जिन्हें एक उत्कृष्ट उम्मीदवार कहा जाता है. मगर उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के प्रति सहानुभूति रखने वाला माना जाता है. उधर, सेना कोई ऐसा व्यक्ति चाहती है, जो राजनीतिक रूप से किसी से भी ना जुड़ा हुआ हो. जनरल साहिर के बारे में यह है कि उन्होंने उन सभी पदों पर काम किया है, जो एक सेना अधिकारी के पास हो सकते हैं और एक उत्कृष्ट पसंद हो सकते हैं, लेकिन फिर से ‘धारणा’ इसे बहुत ही अस्पष्ट बना रही है.

एक धारणा है कि जहां तक लेबलों की बात है, लेफ्टिनेंट जनरल नौमान महमूद को ‘बहुत कठोर’ माना जाता है और लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद आमिर को पीपीपी खेमे का माना जाता है. यदि यह स्थिति बनी रहती है और दोनों पक्ष एक व्यक्ति पर सुलह नहीं कर पाते हैं, तो 29 नवंबर से पहले तीसरा विकल्प होना चाहिए. अब जनरल अजहर अब्बास तीसरे विकल्प के रूप में उभर रहे हैं. जाहिर तौर पर बहुत कम बात करते हैं.बहरहाल, ऊंट जिस भी करवट बैठे, चौसर बिछी हुई है, जम्हूरी और फौजी इदारे इस तरफ और उस तरफ हैं, राजनीति की ललक है कि कोई उसका ‘पैट’ बन जाए, जब कि इंस्टीट्यूशन इस फिराक में है कि जो भी बने, वो कमसकम लीडरान का पिट्ठू न हो और इंस्टीट्यूशन का वफादार रहे.