तालिबान के अफगानिस्तान पर काबिज होने से उठे कई सवाल

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 16-08-2021
क्या तालिबान फिर से काटेंगे महेंदी लगे हाथ ?
क्या तालिबान फिर से काटेंगे महेंदी लगे हाथ ?

 

qurban

कुरबान अली

20 साल बाद अफगानिस्तान पर दोबारा तालिबान  का कब्जा हो गया. पिछले सप्ताह अमेरिकी इंटेलिजेंस और रक्षा अधिकारियों ने कहा था कि तालिबान, अफगानिस्तान को 30 से 90 दिनों के अंदर अपने कब्जे में कर सकते हैं. लेकिन इस बयान के महज  पांच दिनों के भीतर ही तालिबान ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया.

फरवरी 2020 में दोहा में हुए यूएस-तालिबान समझौते के अनुसार, सभी विदेशी सेनाओं को 1 मई 2021 तक अफगानिस्तान छोड़ना था, लेकिन इस वर्ष अप्रैल के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि ये प्रक्रिया 11 सितंबर से पहले पूरी नहीं हो पाएगी.

इस घोषणा के फौरन बाद अचानक अफगानिस्तान से अमेरिकी और अन्य नैटो देशों के सैनिकों की वापसी शुरू हो गई और इसी से तलिबान के हौसले बढ़े और उनका देश पर कब्जा करना आसान हो गया.

न्यूयाॅर्क टाइम्स के अनुसार, अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन ने जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने से पहले ही उनको चेतावनी दे दी थी कि तालिबान, अफगान सेनाओं को पदस्थ करने में सक्षम हैं, लेकिन इसमें एक से डेढ़ साल का समय लग सकता है जो कुछ ही सप्ताहों में हो गया.
 
गौरतलब है कि 2001 से अफगानिस्तान में रहने के दौरान अमेरिका ने 83 अरब डॉलर अफगान सैन्य बलों को ‘ट्रेंड‘ करने और उन्हें असलहा उपलब्ध करने पर खर्च किए थे, लेकिन यह निवेश कुछ ज्यादा काम नहीं आया.


ऐसे में सवाल उठता है कि अफगानिस्तान का भविष्य क्या होगा ? तालिबान के आ जाने के बाद  अफगानिस्तान कैसा होगा ? उसके आस पास के क्षेत्र में शांति रह पाएगी या नहीं ?  विश्व शांति के लिए यह कितना बड़ा खतरा होगा ?और भारत पर इस बदलाव का क्या असर पड़ेगा?

कौन हैं तालिबान ?

तालिबान का शाब्दिक अर्थ होता है छात्र. यह भारत के देवबंद मदरसे की उस विचारधारा के मानने वाले हैं जो वहाबी-सल्फी संप्रदाय से प्रभावित हैं . जिसका मकसद अफगानिस्तान में इस्लामी हुकूमत कायम करना था.

कहा जाता है कि इस समय करीब दो लाख लड़ाके तालिबान की सेना में शामिल हैं. मुल्ला बरादर और मौलवी हैबतुल्ला अखुंदजादा उनके प्रमुख नेता है. अपने इस युद्ध को वह ‘जिहाद‘ कहते हैं.

वर्ष 1992 में सोवियत समर्थक नजीबुल्लाह की सरकार गिरने के बाद अफगानिस्तान के कई राजनीतिक दलों ने इस्लामी हुकूमत कायम करने के मकसद से एक समझौता किया था जिसे ‘पेशावर समझौते‘ के नाम से जाना जाता है.

इस समझौते के पीछे पाकिस्तान का बड़ा हाथ था़. मगर सत्ता पर वर्चस्व की लड़ाई में यह कारगर न हो सका. देश गृहयुद्ध में फंस कर रह गया. यह गृहयुद्ध चार वर्षों तक चला. तालिबान दक्षिणी शहर कंधार के आस पास के इलाकों में मजबूत होते गए.

1996 में उन्होंने पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान की सत्ता पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया. सारे देश में शरिया कानून लागु कर दिया.तालिबान जब  सत्ता में आए थे, उस समय सिर्फ तीन देशों पाकिस्तान, सऊदी अरब और यू.ए.ई ने  उसे मान्यता दी थी.

सत्ता में रहते हुए तालिबान ने कड़े शरिया कानून लागु किए. चोरी करने वालों के हाथ काट दिए जाते थ. बड़े अपराध करने वालों के सर कलम कर दिए जाते थे. फिल्म देखने पर पाबंदी थी. महिला संगीत नहीं गा सकती थीं.

हाथों पर मेहंदी लगाने पर हाथ तक काट दिए जाते थे. उन्हें सिर्फ पर्दे में रहने की इजाजत थी.दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ ज्यादतियां की गईं. बामियान में 1500 वर्ष पुरानी बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ डाली गईं. इन कारणों से दुनियाभर में तालिबान की निंदा हुई. उनके खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगाए गए.

तालिबान की हुकूमत सन 2001 तक उस समय तक रही जब न्यूयॉर्क में 9-11 के अल कायदा हमलों के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर यह कहते हुए हमला कर दिया कि इन हमलों के लिए जिम्मेदार अलकायदा और उसके सरगना ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरी अफगानिस्तान में छिपे हुए हैं.

तालिबान सरकार उनकी मदद कर रही है. पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई पर भी तालिबान की मदद करने के आरोप लगे.एक पाकिस्तानी लेखक अहमद रशीद के मुताबिक, वर्ष 1994 से 2000 के बीच पाकिस्तान ने करीब एक लाख तालिबान लड़ाकों को ट्रेनिंग दी.

लेकिन पाकिस्तान ने कहा कि अमेरिका में हुए 9-11 हमलों के बाद उसने तालिबान की कोई मदद नहीं की. जब 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान में युद्ध किया तो पाकिस्तान ने अमरीका का साथ दिया.  


तालिबान के दोबारा अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के बाद अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को आशंका है कि चूंकि तालिबान अपनी धार्मिक विचारधारा पर सख्ती के साथ अमल करते हैं. किसी भी अन्य धर्म, विचारधारा या संस्था के साथ किसी तरह का संबंध नहीं रखते, इसलिए वे दोबारा जिहाद और आतंकवाद को बढ़ावा देंगे.

इससे विश्व शांति और सुरक्षा को खतरा होगा. उनके सत्ता में रहते हुए अल कायदा और अन्य आतंकवादी संगठन मजबूत होंगे, जिससे क्षेत्र में असुरक्षा, अस्थिरता और अशांति का माहौल पैदा होगा. लगभग 16 देशों ने तो पहले ही तालिबान सरकार से किसी भी तरह का संबंध  न रखने का ऐलान कर दिया है.

इस बीच भारत की दृष्टि से सबसे अहम सवाल ये है कि अफगानिस्तान में तालिबान के आने से भारत पर क्या असर पड़ेगा ?

भारत की सबसे पहली चिंता तो, अफगानिस्तान में मौजूद भारत के राजनयिकों, कर्मचारियों और नागरिकों के बारे में है. हालांकि पिछले एक साल में, जब यह साफ हो गया कि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान छोड़ने जा रहे हैं, तब से भारत ने अपने राजनयिक उपस्थिति को वहां कम कर दिया था.

भारत ने पिछले महीने, कंधार और मजार-ए-शरीफ के वाणिज्य दूतावास बंद कर दिए. वहीं अब देश में काम कर रहे अकेले मिशन काबुल दूतावास ने सभी भारतीय नागरिकों को यह कहते हुए सख्त सलाह भेजी है कि वे जल्द से जल्द भारत लौट जाएं.

अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों पर तालिबान के फैल जाने से भारत की अन्य चिंताएं भी बढ़ गई हैं. एक चिंता तो यह है कि हिज्बुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा,  और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी गुटों को भारत पर हमले के लिए अब वहां पहले से कहीं अधिक साजगार माहौल, जमीन और मदद मिल जाएगी.

वहां तालिबान का कब्जा होने से अब पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसियों का प्रभाव निर्णायक हो जाएगा. ऐसे में, अफगानिस्तान में पिछले दो दशकों से चलाई गई विकास और बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं में भारत की भूमिका सिमट जाएगी. हालांकि अब तक वहां के विकास को लेकर भारतीय प्रयासों की काफी सराहना होती रही है. तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत के पड़ोस में कट्टरपंथ और इस्लामिक आतंकी समूहों के बढ़ने का खतरा भी पैदा हो गया है.


बीते दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान में करीब500 छोटी-बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है जिनमें, स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र, बच्चों के होस्टल और पुल शामिल हैं. यहां तक कि भारत ने अफगानिस्तान में गणतंत्र की निशानी के तौर पर खड़ा संसद भवन, सलमा बांध और जरांज-देलाराम हाइवे में भी भारी निवेश किया है.

इसके अलावा भारत करोड़ों रुपये निवेश कर ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास का काम कर रहा है जिसे जोड़ने वाली सड़क अफगानिस्तान से होकर जाती है.पता नहीं कि अब इन परियोजनाओं का भविष्य क्या होगा ?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी में रहते हुए अफगान और इराक युद्ध कवर कर चुके हैं)