मुहम्मदी बेगमः भारत की पहली मुस्लिम महिला संपादक

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 17-11-2022
मुहम्मदी बेगम
मुहम्मदी बेगम

 

राकेश चौरासिया

मुस्लिम जगत में सैयदा मुहम्मदी बेगम को महिला सशक्तिकरण और भारतीय उपमहाद्वीप की पहली महिला सहाफी के तौर पर जाना जाता है. उन्होंने औरतों की दशा और दिशा बदलने के लिए कई प्रयोग किए, लेकिन उन नवाचारों को स्वीकार कर पाने में तत्कालीन समाज तैयार न था. फिर भी उन्होंने नारी जगत के सशक्तिकरण के लिए ऐसे बीज रोपे, जो बाद की दुनिया के लिए रोशन चिराग बन गए.

वह गजब की शायरी, कहानियों महिला सुधारों और सम सामयिक गद्य लेखन में सिद्धहस्त तो थी हीं, मगर उन्हें असली पहचान तब मिली, जब साप्ताहिक पत्रिका तहजीब-ए-निस्वान प्रकाशित हुई और वो उसकी संपादक बनीं.

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मुहम्मदी बेगम


मुहम्मदी बेगम वजीराबाद हाई स्कूल के प्रधानाचार्य सैयद मुहम्मद शफी की बेटी थीं और उनका जन्म पंजाब के शाहपुर में हुआ था. सैयद मुहम्मद एक तरक्की पसंद इंसान थे और लड़कियों की तालीम के भी हामी थे.

वो चाहते थे कि बच्चियों को ताजे दौर की तालीम मिले, तो उन्हें जिंदगी के कठिन दिनों में मुश्किलों से दो-चार नहीं होना पड़ेगा, बल्कि वो अपने पैरों पर खड़ी होकर अपने परिवार का लालन-पालन और सहारा बन सकेंगी.

पिता की तरक्कीपसंद सोच का ही नतीजा था, जब औरतें पर्दे में रहती थीं और जिन्हें दहलीज के बाहर पांव तक निकालने की मनाही थी, उस दौर में मुहम्मदी बेगम घुड़सवारी किया करती थीं और पुरुषों के वर्चस्व वाले खेल क्रिकेट को भी खेला करती थीं.

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मुमताज अली 


जिस खुले माहौल में बेगम की परवरिश हुई, उसी तरह के खुले ख्यालात वाले शरीके-हयात के लिए उनकी तमन्ना भी पूरी हुई. लाहौर में तब मुमताज अली की प्रिंटिग प्रेस और एक पब्लिकेशन हाउस करता था.

उनकी जब पहली पत्नी की मौत हो गई, तो मुहम्मदी बेगम की 1897 में मुमताज अली से शादी हुई. मुहम्मदी बेगम की तरह मुमताज अली भी नारी सशक्तिकरण के समर्थक थे. मुमताज अली दारुल उलूम देवबंद से शिक्षित थे और सर सैयद अहमद खान के करीबी थे. एएमयू में उनके नाम पर एक हॉस्टल भी है.

शादी के बाद मुहम्मदी बेगम ने जल्दी ही अपने पब्लिकेशन हाउस में प्रकाशन, संपादन और प्रूफरीडिंग करने लगीं. उन्हें हिंदी, उर्दू, फारसी, अरबी और अंग्रेजी का ज्ञान था. इसलिए वे पब्लिकेशन हाउस के लिए एक असेट बन गईं. शादी के लगभग एक साल बाद ही उन्होंने 1 जुलाई, 1898 को ‘तहजीब-ए-निस्वां’ महिला विषयक साप्ताहिक पत्रिका का पहला संस्करण निकाला.

समाज तब औरतों को ज्यादा हुकूक देने के मूड में न था और इसलिए नारी अधिकारों की वकालत करने वाले व्यक्ति, इदारों या रिसालों से भी लोग बिदकते थे. बेगम इस पत्रिका की प्रतियां मुफ्त में बांटती थीं. उनकी पांच सालों की मेहनत के बावजूद ‘तहजीब-ए-निस्वां’ का प्रसार लगभग 450 प्रतियों तक ही सीमित रहा. इससे भी उनका हौसला नहीं टूटा और नारी अधिकारों की बात करती रहीं. उन्होंने 1905 में भी महिलाओं की एक और पत्रिका ‘मुशीर-ए-मदर’ साया की, उसे भी अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिला.

बेगम की पत्रिकाओं को समाज ने स्वीकार तो नहीं किया, लेकिन वे अपनी जिंदगी में ऐसा ऐतिहासिक कारनामा कर गईं कि उनकी महिला पत्रिकाओं में लिखे मजमून नारी सशक्तिकरण के दस्तावेज बन गए. बेगम ने नारी अधिकारों पर एक किताब ‘हुकूक-ए-निस्वां’ भी लिखी थी.

ताज्जुब की बात है कि उन्होंने उस दौर के बंद माहौल में एक और अनूठा प्रयोग किया. अपनी परिकल्पना के मुताबिक उन्होंने कुछ ऐसी दुकानें खुलवाईं, जिनकी दुकानदार और ग्राहक दोनों ही महिलाएं थीं और मर्दों को दुकान के अंदर जाने की मनाही थी.

उन्होंने खुसूसन लड़कियों की तालीम के लिए मदरसे भी खुलवाए. मुस्लिम समाज में महिलाओं के अधिकारों के लिए मुहिम आज तक जारी है और इस तईं किसी हद तक कामयाबी भी मिली है.

इस मुहिम के लिए दस्तावेजीकरण और सोच का श्रेय जिन चंद नामों को जाएगा, उनमें पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख की तरह मुहम्मदी बेगम का नाम भी मुस्लिम महिला पत्रकारिता के क्षेत्र में अमर हो गया है.