कर्बला में महिलाओं की ऐतिहासिक भूमिका

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] • 1 Years ago
कर्बला में महिलाओं की ऐतिहासिक भूमिका
कर्बला में महिलाओं की ऐतिहासिक भूमिका

 

शादाब तबस्सुम

मुहर्रम के मौके पर अक्सर इमाम हुसैन को याद किया जाता है. लगभग हर कोई हुसैन की शहादत की बात करता है और हुसैनी ब्राह्मण या राहिब दत्त के 7 बेटों की कहानी भी लोगों के बीच कही जाती है. लेकिन कर्बला के युद्ध में यजीद के खिलाफ संघर्ष में और हुसैन की शहादत के बाद महिलाओं की एक बड़ी भूमिका रही! जिनका नाम इतिहास के पन्नों में उतना मशहूर नहीं है.

यह नाम है हुसैन की बहन ज़ैनब का. ये वही बीबी ज़ैनब हैं जो कर्बला के युद्ध के समय एक लीडर बनकर उभरी थीं. अगर ज़ैनब न होतीं तो हुसैन को शायद सिर्फ एक ऐसे योद्धा के रूप में याद किया जाता जिसने तत्कालीन राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ा था.

हुसैन और उनके परिवार के पुरुष सदस्य तो कर्बला में शहीद हो गए थे, लेकिन ज़ैनब के भाषण और उपदेश ही थे जिन्होंने हुसैन की कुर्बानी को लोगों के बीच पहुंचाया था.

हुसैन और उनके साथियों की मौत तो कर्बला में 680 ईस्वी या 61 हिजरी (इस्लामिक कैलेंडर) के दसवें मुहर्रम में ही हो गई थी. हुसैन ने अपनी लड़ाई लड़ ली थी अब ज़ैनब की बारी थी.

अपने दोनो बेटों (औन और मुहम्मद) को कर्बला में गंवाने वाली ज़ैनब, अली और फातिमा की बेटी और पैगंबर मोहम्मद की नवासी थीं. यानी हुसैन और हसन की बहन. अपने परिवार के बाकी सदस्यों की तरह ही ज़ैनब ने भी इस्लामिक इतिहास में अहम हिस्सा निभाया था.

हुसैन की शहादत के बाद ज़ैनब ही वो थीं जिन्होंने कर्बला में हुसैन के एक बेटे अली इब्न अल हुसैन जैन उल अबीदिन की जान बचाई थी और ऐसे इतिहास में हुसैन के वंश को जिंदा रखा था.

11वें मुहर्रम के दिन महिलाएं, बच्चे और हुसैन का बेटा जैन उल अबीदिन याजिद की सेना द्वारा कैद कर लिए गए थे और कूफा के गवर्नर की अदालत में पेश किए जाने थे. कूफा वो शहर था जहां ज़ैनब और उनकी बहन उम्मे कुलसुम ने महिलाओं को कुरान के पाठ पढ़ाए थे.

पैगंबर की नवासी ज़ैनब अपने पिता अली और भाई-बहनों के साथ इसी शहर में रही थीं.

 

इसी शहर में बंदी बनाकर ज़ैनब को लाया गया. जैसे ही कारवां कुफा में पहुंचा वहां लोगों की भीड़ लग गई उन लोगों को देखने के लिए जिन्हें सत्ता ने गद्दार साबित कर दिया था

उसी समय ज़ैनब ने अपना पहला उपदेश (खुत्बा) दिया, जब लोग उन्हें गद्दार समझ रहे थे. लोगों की आवाज़ में ज़ैनब की आवाज़ दब गई और ज़ैनब ने जोर से चिल्ला कर लोगों के बीच अपनी बात पहुंचाई. वो उसी तरह से बोल रही थीं जैसे उनके पिता इमाम अली बोलते थे. जैनब के उपदेश सुनकर जो लोग गद्दारों की सज़ा का जश्न मना रहे थे वो भी मातम मनाने लगे जब ज़ैनब ने अपना उपदेश दिया और हुसैन की बात बताई. तब से लोग मातम मनाने लगे.

लोगों की प्रतिक्रिया से घबराकर कि कहीं जनता बगावत न कर दे, कूफा (इराक) के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन ज़ियाद ने तुरंत इन औरतों और बच्चों को यजीद के पास दमिश्क भेज के लिए कह दिया!

जब ज़ैनब और उनके कारवां को दमिश्क जाना पड़ा तब 750 मील की वह यात्रा उन लोगों पर काफी भारी पड़ी. तब ज़ैनब उनकी बहन और हुसैन के बेटे जैन उल अबीदिन पर कारवां में मरने वाले बच्चों को दफनाने और रोती बिलखती मांओं को संभालने की जिम्मेदारी थी.

उस दौर में ज़ैनब के भाषण लोगों में स्फूर्ति लाते थे और उनकी बहन और फातिमा कुब्रा (हुसैन की बेटी) भी लोगों को जागरूक करते थे. ज़ैनब ने हुसैन की कुर्बानी की कहानी लोगों तक पहुंचाई, वो जहां भी जाती लोगों को अपने दादा, पिता और भाई की कहानी सुनाती और साथ ही गवर्नर की बातें भी बतातीं.

दमिश्क पहुंचने के बाद उन्हें 72 घंटों तक बाज़ार के चौराहे पर खड़ा रखा गया. तब भी ज़ैनब ने भाषण दिया और लोगों को बताया कि हुसैन ने किस तरह अपना बलिदान दिया था. और लोगों को ये बताया कि वह गद्दारों की जीत का जश्न नहीं मना रहे हैं.

यजीद की अदालत में भी हुसैन का कटा हुआ सिर ज़ैनब के सामने रखा था. यजीद ने कई बड़े लोगों को बुलाया था यह देखने के लिए. सभी बंदी रस्सियों से बंधे हुए यजीद के सामने पहुंच रहे थे. उन्हें सिंहासन के सामने एक तख्त पर खड़ा किया गया और याजिद तब भी अपनी जीत का जश्न मना रहा था.

उस समय भी भरे दरबार में ज़ैनब ने पूरी ताकत लगाकर खड़े होकर कुरान की बातें बताईं और कर्बला के युद्ध को लेकर अपना भाषण दिया और बताया कि मुहम्मद के घराने पर क्या क्या जुल्म ढाए गए! उस समय वहां मौजूद हर शख्स चौंक गया था.

ज़ैनब ने सबको रास्ता दिखाया था. उसके बाद बंदियों को एक साल तक टूटे घर में रखा गया और फिर सबको रिहा कर दिया. जैन उल अबीदिन ने अपनी बुआ से मश्वरा किया और यजीद को कहा गया कि सभी शहीदों के सिर लौटा दिए जाएं और उन्हें एक घर दिया जाए जहां वे मातम मना सकें.

तब ज़ैनब ने अपनी पहली मिजलिस (कर्बला के शहीदों के लिए मातम) की थी. ज़ैनब इस पूरे दौर में हुसैन की शहादत के बारे में लोगों को जागरुक करती रहीं और कैदियों का मनोबल बढ़ाती रहीं.

ज़ैनब बुढ़ापे में मदीना वापस आई थीं और वहां भी अपने भाई के बलिदान की कहानी सुनाई थी. ज़ैनब की असली जीत यही थी कि उनके भाई की मौत की कहानी आज भी लोगों द्वारा याद की जाती है. ज़ैनब ने ही शहादत का असली मतलब लोगों को समझाया था.