डॉ. उज़्मा खातून
भारतीय मुसलमानों के बीच एक शांत लेकिन गहरी सांस्कृतिक बदलाव हो रहा है। यह बदलाव एक बड़े सवाल को जन्म देता है,क्या मुस्लिम-बहुल देशों, खासकर खाड़ी देशों के बढ़ते प्रभाव से भारतीय मुसलमानों की हजारों साल पुरानी मिली-जुली पहचान कमजोर हो रही है? यह बहस अब सिर्फ अकादमिक चर्चा नहीं रही, बल्कि रोज़मर्रा की जिंदगी में साफ़ दिखाई देने लगी है।
यह बदलाव सबसे ज़्यादा कपड़ों में दिखता है,जहाँ कभी रंग-बिरंगा सलवार-कमीज़ आम था, वहां अब काले अबाया और हिजाब तेज़ी से बढ़ रहे हैं। खाने-पीने में भी इसी तरह का बदलाव दिखता है—मान्डी, शावरमा जैसे खाड़ी खाने अब कई जगह स्थानीय व्यंजनों को पीछे छोड़ रहे हैं।
यह लेख उसी बढ़ते प्रभाव,“अरबीकरण” या “गल्फीकरण” का विश्लेषण करता है। यह देखता है कि क्या यह बदलाव “ज्यादा शुद्ध इस्लाम” की ओर वापसी है या फिर भारतीय मुस्लिम पहचान को कमजोर करने वाली एक नई प्रवृत्ति। साथ ही यह इस बात पर भी ध्यान देता है कि भारतीय इस्लाम की साझा विरासत, मज़हब की समझ, पितृसत्ता और पसमांदा समाज की अनदेखी इस पूरी प्रक्रिया को कैसे प्रभावित कर रही है।
भारतीय इस्लाम बनाम खाड़ी का मॉडल
भारतीय इस्लाम कभी एकरूप नहीं रहा। इसकी बुनियाद व्यापारियों और सूफियों से आई। सूफियों ने इस्लाम को स्थानीय भाषाओं, रीति-रिवाजों और संस्कृतियों के साथ जोड़कर “गंगा-जमुनी तहज़ीब” बनाई,एक ऐसा इस्लाम जो किताब से ज्यादा ज़िंदगियों में बसता था।
“अरबीकरण” का मतलब है स्थानीय परंपराओं को छोड़कर उन रीति-रिवाजों को अपनाना जो “ज्यादा पवित्र” माने जाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि यह बदलाव पूरी अरब दुनिया को नहीं अपनाताIयह मुख्यतः खाड़ी देशों की, खासकर वहाबी-सलफी विचारधारा का प्रभाव है। यह विचारधारा पेट्रो-डॉलर और वैश्विक संगठनों की मदद से फैली, जिसने स्थानीय इस्लामी रीति-रिवाजों को “बिदअत” कहकर कमजोर करने की कोशिश की।
Gulf migration यानी खाड़ी देशों में नौकरी करने का ट्रेंड भी इस बदलाव को तेज़ करता है। वहां से लौटने वाले लोग कड़े धार्मिक विचारों के साथ-साथ आर्थिक ताकत भी लाते हैं। कई मध्यमवर्गीय और गरीब मुसलमानों के लिए खाड़ी संस्कृति “आधुनिक, सफल और अमीर मुसलमान” की पहचान बन गई है।
इसलिए यह बदलाव धार्मिक कम और सामाजिक अधिक है।टीवी चैनल्स, इंटरनेट और वैश्विक “उम्मत” की भावना भी भारतीय मुसलमानों को मध्य-पूर्व की ओर झुकाव देती है।
हिजाब:बदलते समय का सबसे बड़ा प्रतीक
हिजाब इस बदलाव का सबसे बड़ा निशान बन गया है। कुरान में “हिजाब” शब्द का मूल अर्थ “रुकावट” या “परदा” है, कपड़ा नहीं। जिन आयतों को हिजाब का आदेश बताया जाता है, वे ऐतिहासिक रूप से पैगंबर की पत्नियों के लिए थीं, वह भी उस समय की सामाजिक अशांति के कारण।
हिजाब या घूंघट इस्लाम से पहले भी मौजूद था—प्राचीन अस्सूरिया, बीज़ेंटाइन और फारसी समाजों में यह “ऊँचे दर्जे” की महिलाओं का प्रतीक था, ताकि उन्हें दासियों से अलग दिखाया जा सके।यानी हिजाब हमेशा धार्मिक से ज्यादा सामाजिक और दर्जे का प्रतीक रहा है।
जाति, पितृसत्ता और पहचान का टकराव
भारत में हिजाब को समझने के लिए हमें मुस्लिम जाति-व्यवस्था को भी समझना होगा। ऊंची जाति मुस्लिम समूह (अशरफ) पर्दे को हमेशा सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते रहे। लेकिन पसमांदा महिलाएँ,जिन्हें घर से बाहर काम करना पड़ता था,पर्दा कर ही नहीं सकती थीं।
इसलिए आज जो सख्त पर्दा या हिजाब का ट्रेंड बढ़ रहा है, वह सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि अशरफ वर्चस्व और पसमांदा संस्कृति के दमन का एक नया रूप भी है।
इतिहास में भी खलीफा उमर ने दास महिलाओं को पर्दा करने से रोका था ताकि “ऊँची और नीची” महिलाओं में फर्क रहे। यह साफ़ दिखाता है कि पर्दा हमेशा पितृसत्ता और सामाजिक दर्जे से जुड़ा रहा।
आज भी कई लड़कियों को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि हिजाब ही उनकी “इज़्ज़त” है। धीरे-धीरे हिजाब आदत बन जाता है, धार्मिक विकल्प नहीं।ईरान की महसा अमीनी का मामला इस बात का उदाहरण है कि कपड़ों का नियंत्रण असल में महिलाओं के शरीर और आज़ादी पर नियंत्रण है।
इसीलिए अमीना वदूद जैसी इस्लामी नारीवादी विद्वान कहती हैं कि मुसलमानों को कुरान को स्त्रीवादी दृष्टि से पढ़ने की जरूरत है, ताकि पितृसत्ता की परतें हट सकें।
भारतीय मुसलमानों के लिए इसके राजनीतिक परिणाम
भारत में बढ़ती “अरबी पहचान” का एक राजनीतिक पहलू भी है।दायें पंथ के लोग हर अबाया को मुसलमानों की “अलगाववादी पहचान” बताते हैं।इसके जवाब में कई मुसलमान हिजाब को प्रतिरोध का प्रतीक बना लेते हैं यानी यह धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक बन जाता है।
लेकिन भारतीय मुस्लिम पहचान अभी भी बदल रही है।भारतीय संस्कृति में हया (मितव्ययिता, मर्यादा) पहले से ही एक मूल्य है। यानी बिना अरबी कपड़े अपनाए भी इंसान पूरी तरह शरीफ और मर्यादित रह सकता है।
जब हम साड़ी, सलवार-कमीज़ या दुपट्टे को “गैर-इस्लामी” कहने लगते हैं, तब हम अपनी जड़ों से दूर हो जाते हैं।सच्ची आज़ादी यह है कि हम किसी विदेशी संस्कृति की नकल न करें, बल्कि अपने भारतीय-इस्लामी मूल्यों के साथ गर्व से खड़े हों।मजहब का असली उद्देश्य चरित्र है, न कि बाहरी पोशाक।
(डॉ. उज़्मा खातून, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की पूर्व प्राध्यापक, लेखिका, स्तंभकार और सामाजिक चिंतक हैं।)