साकिब सलीम
उर्दू-हिंदू भाषी लोगों के बीच, परवीन शाकिर का नाम एक ‘मासूम’ ‘भोली’ लड़की की छवि को सामने लाता है, जो अपने प्यार की भीख मांगने वाले पुरुषों की दया पर जीती है. जिया मोहिउद्दीन के शब्दों में, पहली नजर में, परवीन की कविता पूर्वी पुरुषों के अहंकार के लिए एक खुराक के रूप में काम करती है. उन्हें एक ऐसी महिला मिलती है, जो पूरी तरह से उन पर निर्भर होती है और इससे ज्यादा कुछ भी उनके पुरुष अहंकार को नहीं बढ़ाता.
लेकिन, यह छवि उन लोगों के लिए है, जिन्होंने परवीन शाकिर को सतही तौर पर पढ़ा है या उन्हें सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए ही जाना है. आप सतह को थोड़ा खरोंचेंगे, तो दुर्लभ साहस वाली एक नारीवादी कवि सामने आएगी.
1980 में प्रकाशित उनकी कविता संग्रह सद्बर्ग की भूमिका में उन्होंने घोषणा की, ‘‘और मेरा गुनाह ये है कि मैं एक ऐसे कबीले में पैदा हुई, जहां सोच रखना जरायम में शामिल है, मगर क़बीले वालों से भूल ये हुई के उन्होंने मुझे पैदा होते ही जमीन में नहीं गाड़ा और अब मुझे दीवार पर चुन देना उनके लिए अख़लाक़ी तौर पर इतना आसान नहीं रहा.
मगर वो अपनी भूल से बेखबर नहीं, इसलिए अब मैं हूं और होने की मजबूरी का ये अंधा कुआँ. जिसके गिर्द घूमते-घूमते मेरे पांव पत्थर के हो गए हैं और आँखे पानी की - क्योंकि मैंने और लड़कियों की तरह खोए पहनने से इंकार कर दिया था. और इंकार करने वालों का अंजाम कभी अच्छा नहीं हुआ!’’
संयुक्त राष्ट्र ने 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाने का फैसला किया. परवीन शाकिर का मानना था कि ये उत्सव कुछ और नहीं, बल्कि प्रहसन हैं. वे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति को नहीं बदल सकते. उन्होंने नाटक लिखा, एक कविता जैसे ही वह बाहरी दुनिया की आजादी का आनंद लेना शुरू करती है, भौंरा तितली के पंख फाड़ देता है और घोषणा करता है, नाटक समाप्त हो गया है.
परवीन ने लिखा, ‘‘रुत बदली तो भंवरों ने तितली से कहा, आज से तुम आजाद हो, परवाजों की सारी साथ तुम्हारे नाम हुई, जाओ.’’ वह महिलाओं की सदियों की अधीनता को बुलाती है. जब परवीन ने कहा कि तितली, “सदियों के बंधे हुए रेशमी पर फैले और उड़ने लगीं.”
अंत में वह इस अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष को पाखंड कहती हैं, और लिखती हैं कि जब तितली एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचती है तो भौंरे ओस की माला लेकर आते हैं और कहते हैं, ‘‘अपने काले नाखूनों से तितली के पंख नोच के बोले, अहमक लड़की, घर वापस आ जाओ, नाटक खतम हुआ, ख्वातीन का आलमी साल.’’
पितृसत्ता का सबसे कठोर अभियोग उनकी कविता बशीर की घरवाली में देखा जाता है. वह महिलाओं से सवाल करके शुरू करती हैं, ‘‘है रे तेरी क्या औकात! दूध पिलाने वाले जानवरो मैं, ऐ सब से कम औकात’’.
साहित्यिक जगत में इससे पहले किसी ने नहीं सोचा था कि वे महिलाओं को एक ऐसा जानवर कहेंगी, जो अपने बच्चों को दूध पिलाती है. कविता आगे बताती है कि एक महिला हर जगह पीड़ित होती है. एक माँ उससे घर के काम करवाती है और अपने पुरुष भाई को ज्यादा मक्खन खिलाती है.
जैसे-जैसे एक महिला वयस्क होती है, समाज जिसमें उसके करीबी पुरुष रिश्तेदार भी शामिल हैं, उसे यह बताना शुरू कर देते हैं कि उसे कैसे कपड़े पहनने हैं, कैसे बैठना है या कैसे चलना है.
परवीन का विवाह का वर्णन विवाह संस्था पर सबसे कठोर हमला है. बिना एक भी शब्द लागए उन्होंने लिखा, ‘‘सौहलवां लगते ही, एक मर्द ने अपने मर्द का बोझ, दूसरे मर्द के तन पर उतार दिया, बस घर और मालिक बदला, तेरी चकरी वही रही, कुछ और ज्यादा, अब तेरे जिम्मे शामिल था, रोटी खिलाने वाले को, रात गए खुश भी करना, और हर सावन गाबन होना.’’
भैंसों और गायों जैसे अन्य स्तनधारियों को आराम करने की अनुमति है, लेकिन परवीन के अनुसार एक महिला को आराम नहीं दिया जा सकता है. बेशक वह सभी स्तनधारियों में सबसे नीच है. अगर कोई महिला शरीर बेचती है, तो वे उसे वेश्या कहते हैं और भावनाओं का व्यापार करने पर उसे पत्नी कहा जाता है. एक महिला यह सब “एक निवाला रोटी, एक कटोरे पानी की खातिर” करती है.
टोमेटो केचप में परवीन समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों पर हमला करती हैं. 29 साल की कम उम्र में आत्महत्या करने वाली एक अन्य कवियत्री सारा शगुफ्ता को समर्पित इस कविता में परवीन बताती हैं कि कैसे ‘बुद्धिजीवी’ पुरुष ‘महिला कवियों’ को आसान शिकार मानते हैं.
साहित्य पर चर्चा के बहाने उन्होंने उनके साथ सोने की कोशिश की और उनका शोषण किया. वह ऐसे पुरुषों को भेड़िया कहती हैं. अपनी कई कविताओं में उन्होंने पुरुषों की तुलना भेड़ियों और महिलाओं के शरीर की तलाश करने वाले शिकारी कुत्तों से की है.
भेड़िये के रूपक का प्रयोग एक बुरी औरत में भी किया गया था, जहां उन्होंने पितृसत्ता को चुनौती देने वाली स्वतंत्र महिलाओं की तुलना उन दुष्ट महिलाओं से की थी, जो अन्य महिलाओं को इन भेड़ियों से बचाती हैं.