Jashn-e-Rekhta Day 2: A glimpse of culture, Rekhta Bazaar and a special focus on women's safety
अर्सला खान/नई दिल्ली
दिन की शुरुआत सुबह करीब 11:00 बजे से हुई — जैसा कि फेस्टिवल शेड्यूल में तय है। जैसे ही लोग प्रवेश करने लगे, पार्क-एरिया धीरे-धीरे रंगीन और गुलज़ार हो गया। संगीत-कविता के प्रेमी, किताबों के शौकीन, खाने के शौकीन, सब इकजुट हुए — हर चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी। दिन के शुरुआती सत्रों में साहित्यिक चर्चा, कविताएँ, पढ़चर्चा और संवाद हुए, जहाँ उर्दू-शायरी और कहानी-कहानियों ने माहौल को परिभाषित किया। 
खासियत: संस्कृति, संगीत और सामूहिकता
Day 2 में फेस्टिवल का वैरायटी देखने को मिली कविता, कथाकथन, संगीत, संवाद। फेस्टिवल के अलग-अलग स्टेज — जैसे कि Dayaar-e-Izhaar, Sukhan Zaar और Bazm-e-Khayaal में दिनभर कार्यक्रम जारी रहे। इस तरह के आयोजन बताते हैं कि जश्न-ए-रेख़्ता सिर्फ शायरी-संगीत का मेला नहीं, बल्कि एक सांझा अनुभव है — जहाँ अलग-अलग ज़रूरतों, स्वादों और रुचियों के लोग एक साथ आते हैं।
खाने-पीने की रौनक – जब भूख हो कविता की तरह मीठी
जहाँ बात शब्दों की थी, वहीं भूख के लिए भी ख्याल रखा गया था। इस साल का खाना-बाज़ार (food bazaar / फ़ूड कोर्ट) अर्थात Aiwan-e-Zaiqa — खास तौर पर इस बात का ख्याल रखा गया कि खाने का अनुभव आरामदायक हो।
लज़ीज व्यंजन, चाय-नाश्ते, हल्के-भारी खाने सब कुछ था। कई लोग फ़िकर कर रहे थे कि कविताओं और संगीत के बीच भूख उनके वज़न की होगी — लेकिन Aiwan-e-Zaiqa ने वो बहार दे दी।
कुछ ने संतोष जाहिर किया कि “इतनी भीड़ में भी खाने-पीने की व्यवस्था बेहतर थी; लाइनें थीं, लेकिन इंतज़ार लायक था।”
बाज़ार, खरीद-फरोख्त और रंग-बिरंगी चीज़ें
किताबों की चाह हो या हस्तशिल्प, पारंपरिक कलाकृति हो या आधुनिक पेंटिंग Rekhta Bazaar ने हर एक को अपनी ओर खींचा। वहाँ तक कि किताबों की दुकानें — जहाँ पे किताबें, कापियाँ और कलात्मक पोशाक-छपाई थी देखने और लेने वालों की भीड़ थी।
लोग अपने लिए, दोस्तों के लिए, या बस यादगार के तौर पर खरीद-फरोख्त कर रहे थे। इस बाज़ार ने फेस्टिवल को त्योहार से भी ज़्यादा — एक मेल-जोल, सांझा अनुभव — बना दिया।
सुरक्षा, व्यवस्था और “महिलाओं की सुरक्षा”
इतनी भीड़-भाड़ में सबसे ज़रूरी थी सुरक्षा और व्यवस्था। इस फेस्टिवल में प्रवेश के लिए wristband अनिवार्य थी, और सुरक्षा चेकिंग भी कठोर। स्वास्थ्य, पीने के पानी, मदद-काउंटर, वॉलंटियर ये सब मौजूद थे, ताकि भीड़ के बीच सुविधा बनी रहे। जहाँ बड़े-बुज़ुर्ग, परिवार, युवतियाँ — लोग सब थे — वहाँ “महिला सुरक्षा” का ख़्याल भी अहम था; हालांकि फेस्टिवल की आधिकारिक जानकारी में “women safety band” जैसा कोई शब्द नहीं दिखा, लेकिन wristband + पैसिंग + वॉलंटियर व्यवस्था इस पहलू की एक अप्रत्यक्ष गारंटी थी। कई दर्शकों ने बाद में सोशल मीडिया या मंचों पर कहा कि रात के समय निकलते वक़्त रोशनी, गाइडेड रास्ते और हेल्प-डेस्क ने राहत दी।
उर्दू की खुशबू
कहीं-कहीं लोगों ने बताया कि कुछ भीड़-भाड़ की वजह से आवाजाही मुश्किल हुई खाने-पीने या शो के बाद बाहर निकलना थोड़ा तनावपूर्ण था। कुछ ने कहा कि वाशरूम की संख्या सीमित महसूस हुई, और कतारें लंबी थीं। लेकिन, कई लोग इस बात से संतुष्ट थे कि कम-से-कम खाने-पीने की सुविधा थी, पानी था, और सुरक्षा-व्यवस्था ने परेशानी को काफी हद तक रोका।
दिन का अंत — यादें, बातचीत, उम्मीद
रात होते-होते, जब संगीत-शायरी की महफ़िलें अपने चरम पर थीं, और लोग लाइनों के बीच से गुजर रहे थे उस समय ये अनुभव सामान्य से कुछ अधिक था। कुछ नए दोस्त बने, कुछ पुरानी पहचानें मिलीं; कविता साझा हुई, किताबों का आदान-प्रदान हुआ, खाने-पीने की प्लेटें खाली हुईं, और बाज़ार की थैले भरकर चलीं।
शायद हर कोई उम्मीद लेकर गया था लेकिन लौटते समय, दिल में एक हल्की उदासी और एक मजबूत ख़ुशी थी। यह महज़ तीन-चार घंटे नहीं थे, बल्कि एक अनुभव था बातें, स्वाद, किताबें, साहित्य, जैसे एक छोटे-से समाज का मिलन।