जश्न-ए-रेख़्ता 2025 : दिल्ली की फिजा में कश्मीर की ख़ुशबू

Story by  अर्सला खान | Published by  [email protected] | Date 07-12-2025
Jashn-e-Rekhta Day 2: The fragrance of Kashmir in Delhi's air
Jashn-e-Rekhta Day 2: The fragrance of Kashmir in Delhi's air

 

अर्सला खान/नई दिल्ली

दिसंबर की हल्की सर्दियों में जब दिल्ली की हवा में धुंध घुलती है, उसी हवा में कश्मीर की महक भी घुल गई। इस बार जश्न-ए-रेख़्ता की महफ़िल में कश्मीर सिर्फ एक मेहमान नहीं था, बल्कि एक ख़ूबसूरत मेज़बान जैसा महसूस हुआ — जो अपने साथ पहाड़ों की ठंडक, झेलम का सुकून और घाटी का रंग लेकर आया था।

लोग जहाँ उर्दू के सुरों में खोए हुए थे, वहीं अचानक नज़रें उन स्टॉलों पर ठहर जातीं, जहाँ कश्मीर अपनी पहचान को पूरी सुंदरता के साथ पेश कर रहा था।
 
कश्मीर के कपड़ों की नफ़ासत

कश्मीरी पहनावे का ज़िक्र आते ही कानों में शाल की मुलायमियत और रंगबिरंगी pheran की झपक सी आ जाती है। इस महफ़िल में भी वही नाज़ुक कला अपने पूरे शबाब पर थी।
 
पश्मीना शॉलें — हल्की, नाज़ुक और इतनी गरम कि सर्द हवाओं को भी शर्म आए। सूक्ष्म कढ़ाई वाली सोज़नी शॉलें, जिन्हें बनाने में महीनों नहीं, कई बार सालों का वक्त लगता है, लोगों को अपनी तरफ खींच रही थीं।
 
 
दूसरी ओर टंगी थीं अरी कढ़ाई से सजी pheran — जिनके रंग जैसे वादी में खिलते ट्यूलिप हों। महिलाएँ इन्हें हाथों में लेकर नज़रों में भर लेतीं — शायद किसी सफ़र की याद, शायद किसी अधूरे ख़्वाब की तलाश।
 
बुज़ुर्ग कारीगरों की उंगलियाँ बताते न थकतीं कि हर धागा परंपरा है और हर नक़्शा एक कहानी। यही वजह है कि कश्मीरी परिधान पहनना मानो विरासत ओढ़ लेना है।
 
घाटी का स्वाद — दिल तक जाने वाली राह

जिसे खाने से मोहब्बत हो, उसे कश्मीर अपनी बाँहों में समेट लेता है। यहाँ भी खाने के स्टॉलों पर कश्मीर की असलियत परोसी जा रही थी — सुर्ख-लाल रँग का रोगन जोश, जिसमें खुशबू थी पहाड़ी मसालों की।
 
 
कोने में उबलती काहवा अपनी भाप के साथ राहगीरों को रोक लेती... केसर, बादाम और दालचीनी की वो गर्माहट, जिसे पीकर लगता है जैसे ठंड के साथ दोस्ती हो गई हो।
 
एक हिस्से में वज़वान की झलक... गुस्ताबा, यख़नी, तबक माज़... प्लेट पर नहीं, दिल पर परोसे जाने वाले पकवान और हाँ, कश्मीर की मीठी पहचान — शीरमाल और चोटी रोटी, जिन्हें देखकर बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक सबकी आँखें चमक उठीं।
 
फूलों की घाटी — एक छोटा-सा कश्मीर

कश्मीर का एक और चेहरा था. फूलों से सजा हुआ। कश्मीर बिना फूलों के अधूरा, और फूल बिना कश्मीर के अनाथ।
 
ट्यूलिप की तस्वीरें, सूखे फूलों से बने सजावटी आइटम, ख़ुशबूदार सुगंध — सब मिलकर दिल्ली की इस ज़मीन पर एक मिनी-कश्मीर बना रहे थे।
 
 
दूर से आते पर्यटक, जिनकी नज़रें शायद कश्मीर देखने की तमन्ना में थीं, इस मोहक दृश्य के सामने थम गईं। कुछ के लिए यह याद थी, कुछ के लिए इंतज़ार, और कुछ के लिए पहली मुलाकात।
 
कश्मीर की आवाज़ और पहचान

यहाँ सिर्फ कला और खाना नहीं था यहाँ घाटी की संस्कृति की आवाज़ भी थी। स्थानीय कलाकारों की उपस्थिति, उनकी बोली का लहजा और उनकी पेशकश से महसूस होता था कि कश्मीर दिलों को जोड़ने आया है, दूरियाँ मिटाने आया है।
 
 
उनकी बातों में कभी उम्मीद झलकती, कभी दर्द भी मगर उस सबके बीच कश्मीर की अदम्य खूबसूरती और गरिमा कायम रही। एक कलाकार ने मुस्कुराते हुए कहा  “कश्मीर सिर्फ एक जगह नहीं… एक एहसास है।” और सच में वो एहसास हर कदम, हर स्टॉल, हर चेहरे पर नज़र आ रहा था।
 
एक मुलाक़ात, जो याद रह गई

दिल्लीवासियों और बाहर से आए लोगों के लिए यह एक ऐसा मौका था, जब बिना सफर किए कश्मीर तक पहुँचा जा सकता था। जैसे वादी ने खुद अपने दरवाज़े खोल दिए हों। लोगों ने शॉलें ओढ़ीं, काहवा का स्वाद लिया, और कुछ वक्त के लिए ऐसा महसूस किया कि वे झेलम के किनारे टहल रहे हैं — धूप के इंतज़ार में खड़े चinar पेड़ों के नीचे। यह मुलाकात छोटी थी, मगर असर में गहरी क्योंकि कश्मीर ने फिर याद दिलाया कि सौंदर्य, स्वाद, कला और तहज़ीब — सभी एक जन्नत में जन्मे हैं।