यादों की गठरी खोलते ही गुलज़ार बोले, अब्बू जी… अब तैरना सीख चुका हूँ, पर किनारा नहीं मिल रहा

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 06-12-2025
Opening his bundle of memories, Gulzar said, Abbu, I have learnt to swim but the shore is still not there.
Opening his bundle of memories, Gulzar said, Abbu, I have learnt to swim but the shore is still not there.

 

मलिक असगर हाशमी, बांसेरा–सराय कालेखां, नई दिल्ली

बुज़ुर्गी में जब कोई यादों की गाँठ खोलता है, तो अक्सर जीवन का सबसे भीगा हुआ दुख ही टपक पड़ता है। जश्न-ए-रेख्ता के मंच पर जब अभिनेत्री दिव्या दत्ता ने गुलज़ार साहब की स्मृतियों को हल्के-हल्के छेड़ा, तो जैसे भीतर कहीं वर्षों से दबी पर्तें टूटकर बह चलीं। भीड़ में बैठे हज़ारों श्रोताओं की आँखें नम थीं, और मंच पर बैठे गुलज़ार अपनी ही कहानी के ऐसे मोड़ पर पहुँच गए जहाँ शब्द भी भावों के सामने हल्के पड़ जाते हैं।

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शुक्रवार की शाम  बांसेरा में शुरू हुए तीन दिवसीय जश्न-ए-रेख्ता का उद्घाटन दिल्ली के उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना ने किया। उन्होंने गुलज़ार को “बहुमुखी प्रतिभा का दुर्लभ धनी” कहा। किंतु वास्तविक रोशनी तब फैली जब ‘संवाद’ कार्यक्रम में दिव्या दत्ता ने गुलज़ार से बचपन, रिश्तों और उन अनमोल झंकारों पर बात शुरू की, जिनकी प्रतिध्वनि आज भी उनकी लेखनी में सुनाई देती है।

अपने पिता को वे कभी ‘पिताजी’, कभी ‘पापा जी’ और कभी ‘अब्बू जी’ कहते थे। जन्म भले ही एक मुस्लिम बहुल गाँव में हुआ, पर उस गाँव के बच्चों की यह मीठी पुकार,‘अब्बू जी’,उनके मन को इतनी भायी कि वही संबोधन उन्होंने अपने पिता के लिए चुन लिया। वह बोले,“अब्बू जी, अब तैरना तो सीख चुका हूँ... पर किनारा नहीं मिल रहा।”

यह कहते हुए जैसे समय की धूल से ढकी कोई पुरानी टीस फिर चमक उठी। शायद इसलिए कि आज जब दुनिया उन्हें रोशनी की तरह जानती है, उनके अब्बू जी यह सब देखने दुनिया में नहीं हैं।

गुलज़ार साहब बताते हैं कि बचपन में स्कूल में ‘बैतबाज़ी’ आज की भाषा में अंताक्षरी में उनका रुआब ही अलग था। माट साहब उन्हें इस खेल के लिए प्रेरित करते और गुलज़ार उसमें जीतने की ज़िद लिए बैठे रहते। जीतने के लिए मज़मूनों में फेरबदल कर दूसरी शायरियों को अपना बनाकर महफ़िल में सुना देते। धीरे-धीरे यही जोड़-तोड़ उनकी शायरी की पहली सीढ़ी बन गई।उस ज़माने में शायर ‘तख़ल्लुस’ रखते थे। उन्होंने अपना नाम चुना ‘गुलज़ार’ और फिर वही उनके अस्तित्व की पहचान बनता चला गया।

लेकिन पिता को यह सब ‘आवारगी’ लगता था। वे चाहते थे कि शेर-ओ-शायरी छोड़कर “ढंग की नौकरी” की जाए। कौन जानता था कि वही ‘आवारगी’ आगे चलकर भारतीय कविता, गीत और सिनेमा को एक अनमोल नगीना देगी। यही वजह है कि आज दिल्ली के उपराज्यपाल भी गर्व से कहते हैं कि “गुलज़ार साहब के साथ मंच साझा कर मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ।”

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परंतु किनारा मिलने से पहले जो लोग जीवन का असली सहारा होते हैं, वे कभी-कभी बहुत जल्दी छूट जाते हैं। यही टीस उनके शब्दों में उभर आई,“अब्बू जी सब देखने के लिए इस दुनिया में नहीं रहे।”

माँ तो उनसे और भी पहले चली गई थीं बिल्कुल बचपन में। दिव्या दत्ता ने जब उनकी माँ का ज़िक्र छेड़ा, तो गुलज़ार की आँखों के किनारे गीले हो उठे। बेहद धीमी पर दर्द से भरी आवाज़ में बोले,“अम्मा न जाने किस जल्दी में थीं, दौड़ गईं जैसे कहीं खुदा दिख गया हो।”

वे बताते हैं कि लोगों से सुना है,उनकी आँखें उनकी माँ जैसी थीं। उनके कान शायद इसलिए छिदे थे कि अम्मा ने मन्नत के तौर पर छिदवाए होंगे। यह सब दूसरों की कही बातें हैं; माँ का चेहरा उन्हें याद भी नहीं। स्मृतियों की इस धुँध में वे खुद को एक अनाथ रोशनी की तरह पाते हैं जो चमक तो रही है, पर अपनी मूल लौ को कभी देख नहीं पाई।

संवाद के दौरान उन्होंने ‘हरिभाई’ दिवंगत अभिनेता संजीव कुमार की याद भी नम मुस्कान के साथ ताज़ा की। शायरी, उर्दू, फिल्में, दोस्त-हर मोड़ पर गुलज़ार की आवाज़ में कहीं न कहीं वही भीतरी कंपन था, जो किसी सच्चे कलाकार की आत्मा में ही जन्म लेता है।गुलज़ार कहते हैं,“उर्दू दिल और मोहब्बत की भाषा है।”

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उन्हें बांग्ला, पंजाबी, अवधी सब प्रिय हैं, पर उर्दू की मिठास और नफ़ासत को वे अलग ही समझते हैं,“उर्दू फकीरी में भी अमीरी का एहसास कराती है। फकीर भी अगर नफ़ीस उर्दू बोल दे तो लगता है कहीं का नवाब है।”
और रेख्ता की भव्यता को देखते हुए वे खुद भी दंग रह गए,“उर्दू को यहाँ तक ले आना… यह कमाल है।”

 बांसेरा की वह रात, जब गुलज़ार अपनी यादों की परतें खोल रहे थे, धीरे-धीरे जवाँ हो चुकी थी। चारों ओर उर्दू के दीवानों की रौशनी-भरी आँखें थीं और हवा में शब्दों की ख़ुशबू। कभी झुग्गियों के लिए पहचाना जाने वाला यह इलाका अब दिल्ली के सबसे खूबसूरत सांस्कृतिक ठिकानों में तब्दील हो चुका है। एक पुलिसकर्मी ने मुस्कुराते हुए कहा,“साहब, एक साल पहले तक यहाँ कच्ची बस्ती थी... अब देखिए, जैसे कोई बाग़ खिल उठा हो।”

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फूलों की क्यारियों के बीच रात का अँधेरा भी मानो नर्म हो गया था। दूर फ्लाईओवर से गुजरती कारों की रोशनियाँ छोटे-छोटे जुगनुओं की तरह झिलमिला रही थीं। उन्हें देखते हुए सचमुच एहसास होता था,हम सब किसी बड़े शहर का नहीं, बल्कि किसी बड़ी कहानी का हिस्सा हैं। और उस कहानी के सबसे खूबसूरत पन्नों में से एक—इस रात का वह पल था, जब गुलज़ार स्मृतियों की गठरी खोलते हुए कह रहे थे...

“अब्बू जी… अब तैरना सीख चुका हूँ… पर किनारा नहीं मिल रहा।”