सौहार्द की प्रतिमूर्ति अयोध्या के गांधी: हाशिम अंसारी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-01-2024
Gandhi of Ayodhya is the embodiment of harmony: Hashim Ansari
Gandhi of Ayodhya is the embodiment of harmony: Hashim Ansari

 

डॉ फैयाज अहमद फैजी

“मैं चाहता हूं , रामलला आजाद हो जाएं. मौत और फैसले दोनों का इंतजार कर रहा हूं .मैं चाहता हूं कि फैसला पहले आए.” बाबरी मस्जिद के मुख्य पैरोकार मोहम्मद हाशिम अंसारी के ये अंतिम उद्‌गार थे.

हाशिम अंसारी का जन्म सन् 1921 में करीम बक्श अंसारी और सकुरन बानो के घर अयोध्या में हुआ था. हाशिम अंसारी के पिता कनक भवन स्टेट में दीवान थे. उनका परिवार समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था.
 
हाशिम अंसारी के अल्प आयु में उनके पिता चल बसे. बच्चन निर्धनता और अभाव में बीता. माता सकुरन ने मेहनत मजदूरी करके परिवार का पालन पोषण किया.
 
ये सिलासला हाशिम अंसारी के बड़े भाई कासिम के साई‌किल रिपेयरिंग की दुकान खुलने तक चला.बड़े भाई कासिम से साइकिल रिपेयरिंग का काम सीखा.
 
व्यस्क होने पर दर्जी की दुकान पर कपड़ा सिलने का काम करने लगे. ये सिलसिला सन् 1990 तक चला, जब तक कि बेटे इकबाल अंसारी आटो रिक्शा न चलाने लगे .
 
सन् 1949 में विवादित ढांचे में रामलला रखे गए. इसको लेकर अयोध्या कोतवाली में एफआईआर दर्ज कराया गया जिसमें हाशिम अंसारी गवाह बने.
सन् 1952 में विवादित परिसर में अजान देने पर तत्कालीन फैजाबाद कोर्ट ने उन्हें दो वर्ष की सजा सुनाई .
 
1961 में दूसरा मुकद्दमा हाशिम अंसारी,हाजी फेकू मियां सहित 9 मुस्लिमों की ओर से मालिकाना हक के लिए तत्कालीन फैजाबाद सिविल कोर्ट में किया गया. यहीं से सुन्नी वक्फ बोर्ड मुकद्दमे में शामिल हुई.
 
हाशिम अंसारी 1949 से अपने मृत्यु 2016 तक मुकदमे की पैरवी करते रहे. मृत्यु उपरान्त पुत्र इकबाल अंसारी मुकद्दमा लड़ते रहे. जब तक कि फैसला न आ गया.
 
वैसे तो हाशिम अराजनैतिक व्यक्ति थे, लेकिन इमरजेंसी के उस काले समय में वह कांग्रेस की नीतियों  के सख्त विरोधी थे.उन्होंने इसे लोकतंत्र विरोधी कृत्य करार दिया था.
 
फलस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अयोध्या के हिंदू-मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय होने के कारण उनको बरैली के केंद्रीय कारागार में स्थानांतरित कर दिया गया .
 
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आचार, विचार और व्यक्तित्व

हाशिम अंसारी सादा जीवन उच्च विचार के व्यक्ति थे. धन दौलत के प्रति लेस मात्र  लगाव नहीं था. भारतीय सभ्यता और संस्कृति की छाप उनके पूरे व्यक्तित्व पर स्पष्ट परिलक्षित होती थी.अपने आस पड़ोस के लोगों की मदद के लिए अभाव ग्रस्त होने के बावजूद सदैव तत्पर रहते थे. उनके लिए इंसानियत सबसे बड़ा धर्म था.
 
इन्ही गुणों के कारण स्थानीय लोग हाशिम अंसारी को अयोध्या का गांधी कहा करते थे. पसमांदा संगठन अंसार सभा ने उन्हें अमन का फरिश्ता की उपाधि दी थी.
 
दोनों पक्षों में समान रूप से आदर पाने की वजह से उन्हें मुस्लिम पक्ष का पैरोकार बनाने को कहा गया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार लिया.हाशिम ने कभी भी कोई कार्य राजनीतिक फायदे के लिए नहीं किया.
 
उन्होंने ने अपने कानूनी लड़ाई के लिए कभी चंदा या सामुदायिक धन की मांग नहीं की. अपनी आर्थिक कठिनाइयों, अभाव और हजार रुकावटों के बावजूद जीवन के अंतिम समय तक मुकदमे की पैरवी करते रहे.
 
बाबरी विध्वंस के बाद दो लोग उनसे मिलने आए (जिनके बारे में मीडिया का अनुमान था कि वो तत्कालीन प्रधानमन्त्री पी वी नरसिम्हा राव द्वारा भेजे हुए थे) और उनसे मामले को रफा दफा  करने के एवज में दो पेट्रोल पम्प और कोई बड़ी रकम की पेशकश की, जिस पर हाशिम तमतमाते हुए अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए. उनको अपने घर से बाहर निकाल दिया.
 
कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सामाजिक सौहार्द, प्रेमभाव, आपसी मेलजोल को ही सर्वोपरि रखा.सन 1992 में दंगाइयों ने उनका घर जला दिया जिससे वो बहुत दुखी हुए. 
 
कहते थे , मेरा घर जलाने वाले बाहर से आए हुए दंगाई थे. अयोध्या के हिंदुओं ने मुझे और मेरे परिवार को दंगाइयों से बचाया. मेरे अयोध्या वासियों और हिंदू भाईयों की वजह से घर जलने का मुआवजा सरकार से मिला जिससे मैंने अपना घर बनवाया.
 
मुआवजे के बचे हुए पैसे से उन्होंने ने एक सेकेंड हैंड एंबेसडर कार खरीदी , जिसे अपने बेटे इकबाल अंसारी,  जो ऑटो रिक्शा चलाते थे, को दे दिया.इकबाल अंसारी इसे टैक्सी के तौर पर चलाने लगे.अक्सर इसी टैक्सी से हिंदू तीर्थ यात्रियों को अयोध्या में मंदिर दर्शन कराते थे.
 
हाशिम अंसारी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी देश, दुनिया, धर्म और समाज के बारे में समझ बड़ी थी.अपने हज यात्रा के दौरान वहां के विभिन्न संगठनों के द्वारा आमंत्रित किए जाने पर वह भारत का पक्ष रखते हुए कहते थे, भारत में मुसलमानों को कितनी आजादी है.
 
उनकी स्थिति कई मुस्लिम देशों के मुसलमानों से बेहतर है. जीवन के हर क्षेत्र में भारतीय मुसलमानों ने उपलब्धि हासिल की है. यहां गौर करने की बात है कि हज के दौरान मक्का में विश्वभर के मुसलमान एकत्रित होते हैं.
 
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मित्रता 

हाशिम अंसारी के गुणों में एक, उनका मित्रता करने और जीवन पर्यन्त उसे निभाने का भी था. उनके मित्रों में मुख्य रूप से राम मंदिर के प्रमुख पक्षकार दिगंबर अखाड़ा के तत्कालीन मंहत रामचंद्र परमहंस दास जो बाद में श्रीराम जन्मभूमि के अध्यक्ष हुए,परममित्र थे .
 
मुकदमे के ऐतबार से दोनों एक दूसरे के विरोधी, लेकिन संबंध सगे भाइयों जैसा था.अक्सर वो मुकदमे की पैरवी करने एक साथ एक ही रिक्शे, कार में जाया करते थे.
 
रास्ते में, अदालत में, चाय नाश्ता एक साथ करते थे. यह भारत के 5000 साल पुरानी संस्कृति का इस आधुनिक भौतिक युग में एक जीता जागता प्रमाण था.
 
उनके और मित्रों में हनुमान गढ़ी के महंत और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के पूर्व राष्ट्रिय अध्यक्ष ज्ञानदास, निर्मोही अखाड़ा  के रामकेवल दास , महंत भास्कर दास, भगवान सिंह विशारद  थे. जिनके साथ उनका रोज का उठना बैठना आना जाना था.
 
विवाद का शांतिपूर्ण निपटारा 

हाशिम अंसारी की कोशिश विवाद को मिलजुल कर सुलझाने की थी. वो बार बार कहा करते थे, हर हाल में मैं शांति का पक्षधर हूं .मस्जिद तो बाद की बात है. कहा करते थे, अगर हम मुकदमा जीत भी गए तो भी मस्जिद निर्माण तब तक नहीं शुरू करेगे जबतक हिंदू भाइयों की सहमति नहीं मिल जाती.
 
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि हिंदू और पसमांदा एक हैं. एक ही रहेगें. कोई भी विवाद इतना बड़ा नहीं कि दोनों के बीच दरार पैदा हो.विवाद के शांतिपूर्ण निपटारे के लिए वो हमेशा दोनों पक्षों के लोगों से मिलते रहते थे.
 
कोशिश करते रहते थे. उच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी सुलह समझौता करने के लिए तमाम बैठक और समझौते का दौर चलाते रहे.बातचीत किसी नतीजे तक पहुंचता इस से पहले ही कुछ अशराफ और अन्य लोग सर्वोच्च न्यायालय चले गए जिससे हाशिम के प्रयासों को गहरा धक्का लगा. फिर भी वो अपने प्रयासों को मरते दम तक चलाते रहे.
 
समझौते के लिए हाशिम की कोशिशों को  राम जन्म भूमि न्यास भी सराहना करता रहा है.हाशिम ने इस मामले से जुड़े न्यायधीशों की प्रशंसा करते हुए कहा था कि उन लोगों ने इसे राजनीति से दूर रखने और निष्पक्षता बनाए रखने, ईमानदार कोशिश करने में अपनी महती  भूमिका निभाई है.
 
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अशरफाबाद और सांप्रदायिकता विरोधी

हाशिम अशरफ वाद और सांप्रदायिकता के प्रबल विरोधी थे. वो अक्सर इनलागों को मीटिंग्स में, सार्वजनिक जगहों पर लताड़ते थे. उन्होंने कहा था कि अशराफ उलेमा और नेताओं ने कभी भी इस मुद्‌दे को सुलझाने के लिए ईमानदार प्रयास नहीं किए.
 
वो अक्सर कहा करते थे कि सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बहुत से लोग जो मुझे वादी बनाकर कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, मेरे आचार विचार रहन सहन को पसंद नहीं करते.
 
यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका पसमांदा होना और हिंदू समाज के प्रति नरमी एवं सहिष्णुता और हिंदू पक्षकारों के प्रति उनका सानिध्य इसका मुख्य कारण जान पड़ता है.
 
उन्होंने अशराफ और मुस्लिम संगठनों की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि एक तरफ तमाम परेशानियों के साथ मुकद्‌दमा लड़ा जा रहा है.अशराफ और मुस्लिम संगठन इसका राजनैतिक और निजी फायदा उठा रहे हैं.
 
एक बार अशराफ और मुस्लिम संगठनों के सम्प्रदायिक और असमझौतावादी रवऐ से क्रुद्ध और क्षुब्ध होकर, ये कहते हुए कि अगर वो मुझसे सहमत नहीं हैं तो मैं खुद को इस मामले से अलग करने के लिए तैयार हूँ, केस लड़ने से मना कर दिया था.
 
प्रत्युत्तर में एक अशराफ वकील जफरयाब जिलानी ने अहंकार में कहा था कि अंसारी के मामले से हटने पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जफरयाब जिलानी यह भूल रहे थे कि हाशिम अंसारी को तो मामले से हटाया जा सकता है, लेकिन उनके 60-65 साल जो इस संघर्ष में लगे हैं उससे उन्हें कैसे अलग किया जा सकता है.
 
जफरयाब जिलानी यह भी भूल रहे थे कि हाशिम  दोनों पक्षों में निर्विवाद रूप से स्वीकार्य हैं. मुकद्दमे में पक्ष विपक्ष के लोग भली भांति जानते थे कि हाशिम  का रहना दोनों पक्षों की सहमति के लिए कितना अनिवार्य था. उनका हटना मामले पर कितना नकारात्मक प्रभाव डालता .
 
हिंदू पक्ष ने हाशिम अंसारी पर कभी भी कोई नकारात्मक टिप्पणी नहीं की. जबकि अशराफ और मुस्लिम संगठन हमेशा उनकी की छवि धूमिल करने में लगे रहते थे.
 
6 दिसंबर की शोक सभाओं में साम्प्रदायिकता का बोलबाला होने के कारण हाशिम ने अपने आप को सदैव ऐसे आयोजनों से अलग रखा. मरते दम तक इस तरह की सभाओं में नहीं गए.
 
एक बार आजम खान को जब वह उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री थे तब मुस्लिम पक्ष को गुमराह करने और उनको भड़काने की कटु आलोचना की थी. उन्हें लताड़ा भी था.
 
विवाद को और उलझाने के लिए वो कांग्रेस, मुस्लिम संगठनों और अशराफवाद को दोषी ठहराते थे. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि अगर मेरी प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात होती है तो मैं कहूंगा कि मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट में डाला जाए.
 
बाबरी विध्वंस के दोषियों को सजा दिलाई जाए. किसी भी शांतिपूर्ण निपटारे के लिए बातचीत के लिए तत्पर हूं.जीवन के अंतिम समय में स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था.
 
लखनऊ के अस्पताल में उन‌का इलाज-चलता था. तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने फोन कर करके उनका हाल चाल जाना था. अंतिम समय में वो महंत जी से कहा करते थे कि पुत्र इकबाल को आपको सौप कर जाऊंगा. 20 जुलाई 2016 को वो इंतकाल कर गए.
 
उनकी शिक्षाओं, नसीहतो, भावनाओं और कार्यों को उनके पुत्र इकबाल अंसारी आगे बढ़ा रहे हैं. मुकदमे की पैरवी भी करते रहे. महंत, साधु संतों, हिंदू समाज से सानिध्य , लगाव बदस्तूर चलता रहा है.
 
फैसला आने के बाद अशराफ, सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा दोबारा याचिका डालने की कोशिश को ये कहते हुए उन्होंने ने साफ इंकार कर दिया कि मैं फैसले से संतुष्ट हूं. इस मामले को और खिचने का कोई मतलब नहीं. हाशिम अंसारी जीवित होते तो शायद उनका भी यही मत होता.
 
हाशिम अंसारी के इस संघर्ष को अशराफ समुदाय , मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और सुन्नी वक्फ बोर्ड भूला चुका है. उच्चतम न्यायालय द्वारा मस्जिद निर्माण के लिए दी गई भूमि और उस कमेटी में हाशिम और इकबाल का नाम न होना उनके संघर्ष को नकारना है.
 
यह बहुत ही पीड़ादायक बात है. अशराफ का पसमांदा के प्रति भेदभाव का अपना इतिहास रहा है. इकबाल अंसारी ने स्वयं कहा था कि उस मस्जिद का हमसे क्या लेना देना है.
 
कब बन रही है,नहीं बन रही है. मुझसे कोई पूछता जांचता नहीं है.दूसरी तरफ हिंदू पक्ष हाशिम अंसारी के परिवार का उनके पुत्र इकबाल का पूरा सम्मान करता रहा है.
 
भूमिपूजन का निमंत्रण और प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण इस बात का स्पष्ट प्रमाण है.  क्यों न हो, पसमांदा और हिंदुओं का रहन सहन, सभ्यता संस्कृति, सहजीविता एक ही रही है, जबकि अशराफ का चरित्र सदैव पसमांदा विरोधी और शोषक का रहा है.
 
(लेखक पसमांदा एक्टिविस्ट, लेखक, स्तंभकार और पेशे से चिकित्सक है. यह उनके विचार हैं.)