1930 और 1940 के दशक में जब मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर खुलकर बोलना बहुत कठिन माना जाता था, तब बेगम सुल्तान मीर आमिरुद्दीन ने साहस के साथ इन मुद्दों को उठाया। जून 1940 में ऑल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस की पत्रिका रोशनी में “एक मुस्लिम महिला मस्जिद में भाषण देती हुई” शीर्षक से एक संपादकीय प्रकाशित हुआ। इसमें बताया गया कि तमिलनाडु के त्रिचिनापल्ली में मुसलमानों ने बेगम सुल्तान मीर आमिरुद्दीन को मस्जिद में जाकर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। यह घटना इसलिए ऐतिहासिक थी क्योंकि उस समय आम धारणा थी कि मुस्लिम महिलाओं को मस्जिद के आसपास भी नहीं जाना चाहिए। इस अवसर पर पहली बार हज़ारों मुस्लिम महिलाएँ चादर ओढ़े मस्जिद पहुँचीं और उन्होंने विशेष रूप से बेगम से उन्हें संबोधित करने का अनुरोध किया। इस घटना को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक बड़ी जीत माना गया और आशा जताई गई कि देश के अन्य हिस्से भी इस उदाहरण का अनुसरण करेंगे।
बेगम सुल्तान मीर आमिरुद्दीन का जन्म कोलकाता के एक परंपरावादी मुस्लिम परिवार में हुआ था। इसके बावजूद उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और 1920 में वे बंगाल, बिहार, ओडिशा और असम की पहली मुस्लिम महिला स्नातक बनीं। आगे चलकर वे कानून की पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय मुस्लिम महिला बनीं। वे पर्दे में रहती थीं, इसलिए उनकी परीक्षा के लिए विश्वविद्यालय को विशेष व्यवस्था करनी पड़ी। वे उस परीक्षा में बैठने वाली एकमात्र महिला थीं और उन्होंने पूरे विश्वविद्यालय में पहला स्थान प्राप्त किया, सैकड़ों पुरुष छात्रों से आगे निकलते हुए।
विवाह के बाद वे चेन्नई आ गईं और सामाजिक तथा शैक्षणिक कार्यों में सक्रिय हो गईं। वे ऑल इंडिया वीमेंस कॉन्फ्रेंस की प्रमुख सदस्य रहीं और महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलाने के आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय की सीनेट में कार्य किया, भारत का प्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर किया और उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा M.B.E. की उपाधि से सम्मानित किया गया। स्वतंत्र भारत में वे मद्रास से विधायक भी चुनी गईं।
1920 के दशक में उन्होंने मद्रास नगर पालिका द्वारा मुस्लिम लड़कियों को अनिवार्य शिक्षा से बाहर रखने के निर्णय का कड़ा विरोध किया और अंततः इसमें सफलता पाई। उन्होंने राजमुंदरी में महिला क्लब की स्थापना की, महिला सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया, सलेम जैसे शैक्षणिक रूप से पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार के लिए संगठन बनाए और तमिलनाडु महिला सम्मेलन की अध्यक्ष भी रहीं। उनका मानना था कि शिक्षा के बिना महिलाओं और समाज का विकास संभव नहीं है।
1937 में उन्होंने मुस्लिम रिव्यू पत्रिका में “इस्लाम में महिलाओं की स्थिति” विषय पर एक लेख लिखा, जो भारत और यूरोप दोनों में चर्चा का विषय बना। उन्होंने स्पष्ट किया कि मुस्लिम महिलाओं की पिछड़ी स्थिति का कारण इस्लाम नहीं, बल्कि इस्लामी शिक्षाओं की अनदेखी है। उनके अनुसार इस्लाम ज्ञान, प्रगति और महिलाओं के सम्मान की शिक्षा देता है और पैगंबर मुहम्मद (स.) महिलाओं के सबसे बड़े समर्थक थे। उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिमी समाज में भी महिलाओं को लंबे समय तक पुरुषों से कमतर माना जाता रहा है।
1940 में प्रकाशित अपने लेख “मुस्लिम महिलाओं की कानूनी स्थिति” में उन्होंने बताया कि इस्लाम में महिला एक स्वतंत्र व्यक्ति होती है। विवाह के बाद भी उसकी पहचान पति में नहीं मिलती। वह अपनी संपत्ति की मालिक होती है, अपने निर्णय स्वयं ले सकती है और कानूनी अधिकार रखती है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि सामाजिक रीतियों और परंपराओं के कारण व्यवहार में ये अधिकार महिलाओं को नहीं मिल पाते। बेटियों को विरासत से वंचित किया जाता है, मेहर का भुगतान नहीं किया जाता और विवाह में लड़की की सहमति को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।
इसी लेख में उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कानून की मदद आवश्यक है। उन्होंने स्पष्ट रूप से बहुविवाह पर रोक और पुरुषों के मनमाने तलाक के अधिकार पर नियंत्रण की माँग की। उन्होंने कुरआन की आयतों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि सभी पत्नियों के साथ पूर्ण न्याय करना मानव स्वभाव के कारण संभव नहीं है, इसलिए इस्लाम का मूल उद्देश्य एक विवाह ही है और बहुविवाह से महिलाओं को गंभीर कष्ट झेलने पड़ते हैं।
बेगम सुल्तान मीर आमिरुद्दीन ने यह भी स्पष्ट किया कि मुस्लिम महिलाएँ धर्म के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि वे पैगंबर द्वारा दिए गए अधिकारों की पुनः प्राप्ति चाहती हैं, जो समय के साथ गलत परंपराओं के कारण समाप्त हो गए। उनके इन विचारों के बावजूद उन्हें समाज ने नकारा नहीं। वे मद्रास की मुस्लिम शहरी सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुँचीं, जिससे यह सिद्ध होता है कि मुस्लिम समाज ने उनके विचारों को स्वीकार किया।
1947 में उन्होंने मद्रास विधानसभा में महिलाओं को कई सरकारी पदों से वंचित किए जाने का मुद्दा उठाया और इन नियमों को पुराने तथा समय के अनुकूल न होने वाला बताया। उन्होंने न्यायिक, चिकित्सा और शैक्षणिक क्षेत्रों में महिलाओं को समान अवसर देने की माँग की।
इस प्रकार बेगम सुल्तान मीर आमिरुद्दीन भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली एक अग्रणी और साहसी नेता थीं। आज जिन अधिकारों और सुधारों पर चर्चा हो रही है, उनकी नींव उन्होंने लगभग एक सदी पहले रख दी थी। दुर्भाग्य से इतिहास में उनके योगदान को वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वे वास्तव में हकदार थीं।